Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 15

 

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अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग

पुरुषोत्तमयोग-  पंद्रहवाँ अध्याय

 

 

( 01-06 )  संसार रूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय

SHrimad Bhagavad Geeta Chapter 15श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ৷৷15.1৷৷

 

 

श्रीभगवान् उवाच-परम पुरुषोत्तम भगवान ने कहा; ऊधर्वमूलम्-जड़ें, ऊपर की ओर; अधः-नीचे की ओर; शाखम्–शाखाएँ, अश्वत्थम्-पीपल का पवित्र वृक्ष; प्राहु:-कहा गया है; अव्ययम्-शाश्वत; छन्दांसि-  वैदिक मंत्र या वैदिक स्तोत्र ; यस्य–जिसके; पर्णानि–पत्ते; यः-जो कोई; तम्-उसको; वेद- वेद शास्त्र; सः-वह; वेदवित्-वेदों का ज्ञाता।

 

 

परम पुरुषोतम श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी और शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा वैदिक स्तोत्र इस वृक्ष के पत्ते  हैं । जो इस अविनाशी विश्व वृक्ष को और इसके रहस्य को जानता है वही वेदों का ज्ञाता है ৷৷15.1৷৷

 

 ऊर्ध्वमूलमधःशाखम् – [ 13वें अध्याय के आरम्भ के दो श्लोकों की तरह यहाँ 15वें अध्याय के पहले श्लोक में भी भगवान ने  अध्याय के सम्पूर्ण विषयों का दिग्दर्शन कराया है और ऊर्ध्वमूलम् पद से परमात्मा का ‘अधःशाखम्’ पद से सम्पूर्ण जीवों के प्रतिनिधि ब्रह्माजी का तथा ‘अश्वत्थम्’ पद से संसार का संकेत करके (संसाररूप अश्वत्थवृक्ष के मूल) सर्वशक्तिमान् परमात्मा को यथार्थरूप से जानने वाले को ‘वेदवित्’ कहा है।] साधारणतया वृक्षों का मूल नीचे और शाखाएँ ऊपर की ओर होती हैं परन्तु यह संसारवृक्ष ऐसा विचित्र वृक्ष है कि इसका मूल ऊपर तथा शाखाएँ नीचे की ओर हैं जहाँ जाने पर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आता । ऐसा भगवान का परमधाम ही सम्पूर्ण भौतिक संसार से ऊपर (सर्वोपरि) है। संसारवृक्ष की प्रधान शाखा (तना) ब्रह्माजी हैं क्योंकि संसारवृक्ष की उत्पत्ति के समय सबसे पहले ब्रह्माजी का उद्भव होता है। इस कारण ब्रह्माजी ही इसकी प्रधान शाखा हैं। ब्रह्मलोक भगवद्धाम की अपेक्षा नीचे है। स्थान , गुण , पद , आयु आदि सभी दृष्टियों से परमधाम की अपेक्षा निम्न श्रेणी में होने के कारण ही इन्हें ‘अधः’ (नीचे की ओर) कहा गया है (टिप्पणी प0 742.1)। यह संसाररूपी वृक्ष ऊपर की ओर मूलवाला है। वृक्ष में मूल ही प्रधान होता है। ऐसे ही इस संसाररूपी वृक्ष में परमात्मा ही प्रधान हैं। उनसे ब्रह्माजी प्रकट होते हैं? जिनका वर्णन ‘अधःशाखम्’ पद से हुआ है। सबके मूल प्रकाशक और आश्रय परमात्मा ही हैं। देश , काल , भाव , सिद्धान्त , गुण , रूप , विद्या आदि सभी दृष्टियों से परमात्मा ही सबसे श्रेष्ठ हैं। उनसे ऊपर अथवा श्रेष्ठ की तो बात ही क्या है उनके समान भी दूसरा कोई नहीं है (टिप्पणी प0 742.2) (गीता 11। 43)। संसारवृक्ष के मूल सर्वोपरि परमात्मा हैं। जैसे मूल वृक्ष का आधार होता है ऐसे ही परमात्मा सम्पूर्ण जगत के आधार हैं। इसीलिये उस वृक्ष को ‘ऊर्ध्वमूलम्’ कहा गया है।मूलशब्द कारण का वाचक है। इस संसारवृक्ष की उत्पत्ति और इसका विस्तार परमात्मा से ही हुआ है। वे परमात्मा नित्य , अनन्त और सबके आधार हैं तथा सगुणरूप से सबसे ऊपर नित्यधाम में निवास करते हैं इसलिये वे ‘ऊर्ध्व’ नाम से कहे जाते हैं। यह संसारवृक्ष उन्हीं परमात्मा से उत्पन्न हुआ है इसलिये इसको ऊपर की ओर मूलवाला (ऊर्ध्वमूल) कहते हैं। वृक्ष के मूल से ही तने , शाखाएँ , कोंपलें निकलती हैं। इसी प्रकार परमात्मा से ही सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न होता है उन्हीं से विस्तृत होता है और उन्हीं में स्थित रहता है। उन्हीं से शक्ति पाकर सम्पूर्ण जगत् चेष्टा करता है (टिप्पणी प0 742.3)। ऐसे सर्वोपरि परमात्मा की शरण लेने से मनुष्य सदा के लिये कृतार्थ हो जाता है। (शरण लेने की बात आगे चौथे श्लोक में ‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये’ पदों में कही गयी है)। सृष्टिरचना के लिये ब्रह्माजी प्रकृति को स्वीकार करते हैं परन्तु वास्तव में वे (प्रकृति से सम्बन्धरहित होने के कारण) मुक्त हैं। ब्रह्माजी के सिवाय दूसरे सम्पूर्ण जीव प्रकृति और उसके कार्य शरीरादि के साथ अहंताममतापूर्वक जितना-जितना अपना सम्बन्ध मानते हैं उतने-उतने ही वे बन्धन में पड़े हुए हैं और उनका बार-बार पतन (जन्म-मरण) होता रहता है अर्थात् उतनी ही शाखाएँ नीचे की ओर फैलती रहती हैं। सात्त्विक , राजस और तामस – ये तीनों गतियाँ ‘अधःशाखम्’ के ही अन्तर्गत हैं (गीता 14। 18)। अश्वत्थम् – ‘अश्वत्थम्’ शब्द के दो अर्थ हैं – (1) जो कल दिन तक भी न रह सके (टिप्पणी प0 742.4) और (2) पीपल का वृक्ष। पहले अर्थ के अनुसार – ‘अश्वत्थ’ पद का तात्पर्य यह है कि संसार एक क्षण (टिप्पणी प0 743.1) भी स्थिर रहने वाला नहीं है। केवल परिवर्तन के समूह का नाम ही संसार है। परिवर्तन का जो नया रूप सामने आता है उसको उत्पत्ति कहते हैं थोड़ा और परिवर्तन होने पर उसको स्थितिरूप से मान लेते हैं और जब उस स्थिति का स्वरूप भी परिवर्तित हो जाता है तब उसको समाप्ति (प्रलय) कह देते हैं। वास्तव में इसकी उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय होते ही नहीं। इसलिये इसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होने के कारण यह (संसार) एक क्षण भी स्थिर नहीं है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदर्शन में जा रहा है। इसी भाव से इस संसार को ‘अश्वत्थम्’ कहा गया है। दूसरे अर्थ के अनुसार – यह संसार पीपल का वृक्ष है। शास्त्रों में अश्वत्थ अर्थात् पीपल के वृक्ष की बहुत महिमा गायी गयी है। स्वयं भगवान भी सब वृक्षों में अश्वत्थ को अपनी विभूति कहकर उसको श्रेष्ठ एवं पूज्य बताते हैं – अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम् (गीता 10। 26)। पीपल , आँवला और तुलसी – इनकी भगवद्भावपूर्वक पूजा करने से वह भगवान की पूजा हो जाती है। परमात्मा से संसार उत्पन्न होता है। वे ही संसार के अभिन्ननिमित्तोपादान कारण हैं। अतः संसाररूपी पीपल का वृक्ष भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप होने से पूजनीय है। इस संसाररूप पीपलवृक्ष की पूजा यही है कि इससे सुख लेने की इच्छा का त्याग करके केवल इसकी सेवा करना। सुख की इच्छा न रखने वाले के लिये यह संसार साक्षात भगवत्स्वरूप है – वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) परन्तु संसार से सुख की इच्छा रखने वालों के लिये यह संसार दुःखों का घर ही है। कारण कि स्वयं अविनाशी है और यह संसारवृक्ष प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने के कारण नाशवान , अनित्य और क्षणभङ्गुर है। अतः स्वयं की कभी इससे तृप्ति हो ही नहीं सकती किंतु इससे सुख की इच्छा करके यह बार-बार जन्मता-मरता रहता है। इसलिये संसार से यत्किञ्चित् भी स्वार्थ का सम्बन्ध न रखकर केवल उसकी सेवा करने का भाव ही रखना चाहिये। प्राहुरव्ययम् – संसारवृक्ष को अव्यय कहा जाता है। क्षणभङ्गुर , अनित्य संसार का आदि और अन्त न जान सकने के कारण प्रवाह की निरन्तरता (नित्यता) के कारण तथा इसका मूल सर्वशक्तिमान परमेश्वर नित्य अविनाशी होने के कारण ही इसे अव्यय कहते हैं। जिस प्रकार समुद्र का जल सूर्य के ताप से भाप बनकर बादल बनता है। फिर आकाश में ठण्डक पाकर वही जल बादल से पुनः जलरूप से पृथ्वी पर आ जाता है। फिर वही जल नदी-नाले का रूप धारण करके समुद्र में चला जाता है पुनः समुद्र का जल बादल बनकर बरसता है – ऐसे घूमते हुए जल के चक्र का कभी भी अन्त नहीं आता। इसी प्रकार इस संसारचक्र का भी कभी अन्त नहीं आता। यह संसारचक्र इतनी तेजी से घूमता (बदलता) है कि चलचित्र (सिनेमा) के समान अस्थिर (प्रतिक्षण परिवर्तनशील) होते हुए भी स्थिर की तरह प्रतीत होता है। यह संसारवृक्ष अव्यय कहा जाता है। (प्राहुः) वास्तव में यह अव्यय (अविनाशी) है नहीं। अगर यह अव्यय होता तो न तो इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में यह कहा जाता कि इस (संसार) का जैसा स्वरूप कहा जाता है वैसा उपलब्ध नहीं होता और न इस (संसारवृक्ष) को वैराग्यरूप दृढ़ शस्त्र के द्वारा छेदन करने के लिये ही भगवान प्रेरणा करते। छन्दांसि यस्य पर्णानि – वेद इस संसारवृक्ष के पत्ते हैं। यहाँ वेदों से तात्पर्य उस अंश से है जिसमें सकामकर्मों के अनुष्ठानों का वर्णन है (टिप्पणी प0 743.2)। तात्पर्य यह है कि जिस वृक्ष में सुन्दर फूल-पत्ते तो हों पर फल नहीं हों तो वह वृक्ष अनुपयोगी है क्योंकि वास्तव में तृप्ति तो फल से ही होती है , फूल-पत्तों की सजावट से नहीं। इसी प्रकार सुखभोग चाहने वाले सकाम पुरुष को भोग-ऐश्वर्यरूप फूल-पत्तों से सम्पन्न यह संसारवृक्ष बाहर से तो सुन्दर प्रतीत होता है पर इससे सुख चाहने के कारण उसको अक्षय सुखरूप तृप्ति अर्थात् महान आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। वेदविहित पुण्यकर्मों का अनुष्ठान स्वर्गादि लोकों की कामना से किया जाय तो वह निषिद्ध कर्मों को करने की अपेक्षा श्रेष्ठ तो है पर उन कर्मों से मुक्ति नहीं हो सकती क्योंकि फलभोग के बाद पुण्य कर्म नष्ट हो जाते हैं और उसे पुनः संसार में आना पड़ता है (गीता 9। 21)। इस प्रकार सकामकर्म और उसका फल – दोनों ही उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। अतः साधक को इन (दोनों) से सर्वथा असङ्ग होकर एकमात्र परमात्मतत्त्व को ही प्राप्त करना चाहिये। पत्ते वृक्ष की शाखा से उत्पन्न होने वाले तथा वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले होते हैं। पत्तों से वृक्ष सुन्दर दिखता है तथा दृढ़ होता है (पत्तों के हिलने से वृक्ष का मूल , तना एवं शाखाएँ दृढ़ होती हैं)। वेद भी इस संसारवृक्ष की मुख्य शाखारूप ब्रह्माजी से प्रकट हुए हैं और वेदविहित कर्मों से ही संसार की वृद्धि और रक्षा होती है। इसलिये वेदों को पत्तों का स्थान दिया गया है। संसार में सकाम (काम्य) कर्मों से स्वर्गादि में देवयोनियाँ प्राप्त होती हैं – यह संसारवृक्ष का बढ़ना है। स्वर्गादि में नन्दन-वन , सुन्दर विमान , रमणीय अप्सराएँ आदि हैं – यह संसारवृक्ष के सौन्दर्य की प्रतीति है। सकामकर्मों को करते रहने से बारम्बार जन्म-मरण होता रहता है – यह संसारवृक्ष का दृढ़ होना है। इन पदों से भगवान यह कहना चाहते हैं कि साधक को सकामभाव वैदिक सकामकर्मानुष्ठानरूप पत्तों में न फँसकर संसारवृक्ष के मूल – परमात्मा का ही आश्रय लेना चाहिये। परमात्मा का आश्रय लेने से वेदों का वास्तविक तत्त्व भी जानने में आ जाता है। वेदों का वास्तविक तत्त्व संसार या स्वर्ग नहीं प्रत्युत परमात्मा ही हैं (गीता 15। 15) (टिप्पणी प0 744.1)। यस्तं वेद स वेदवित् — उस संसारवृक्षको जो मनुष्य जानता है वह सम्पूर्ण वेदों के यथार्थ तात्पर्य को जानने वाला है। संसार को क्षणभङ्गुर (अनित्य) जानकर इससे कभी किञ्चिन्मात्र भी सुखकी आशा न रखना – यही संसार को यथार्थरूप से जानना है। वास्तव में संसार को क्षणभङ्गुर जान लेने पर सुखभोग हो ही नहीं सकता। सुखभोग के समय संसार क्षणभङ्गुर नहीं दिखता। जब तक संसार के प्राणीपदार्थों को स्थायी मानते रहते हैं तभी तक सुखभोग , सुख की आशा और कामना तथा संसार का आश्रय , महत्त्व , विश्वास बना रहता है। जिस समय यह अनुभव हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है उसी समय उससे सुख लेने की इच्छा मिट जाती है और साधक उसके वास्तविक स्वरूप को जानकर (संसार से विमुख और परमात्मा के सम्मुख होकर) परमात्मा से अपनी अभिन्नता का अनुभव कर लेता है। परमात्मा से अभिन्नता का अनुभव होने में ही वेदों का वास्तविक तात्पर्य है। जो मनुष्य संसार से विमुख होकर परमात्मतत्त्व से अपनी अभिन्नता (जो कि वास्तव में है) का अनुभव कर लेता है वही वास्तव में ‘वेदवित्’ है। वेदों के अध्ययनमात्र से मनुष्य वेदों का विद्वान तो हो सकता है पर यथार्थ वेदवेत्ता नहीं। वेदों का अध्ययन न होने पर भी जिसको (संसार से सम्बन्धविच्छेदपूर्वक) परमात्मतत्त्व की अनुभूति हो गयी है वही वास्तव में वेदवेत्ता (वेदों के तात्पर्य को अनुभव में लाने वाला) है। भगवान ने इसी अध्याय के 15वें श्लोक में अपने को ‘वेदवित्’ कहा है। यहाँ वे संसार के तत्त्व को जानने वाले पुरुष को ‘वेदवित्त’ कहकर उससे अपनी एकता प्रकट करते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्यशरीर में मिले विवेक की इतनी महिमा है कि उससे जीव संसार के यथार्थ तत्त्व को जानकर भगवान के सदृश वेदवेत्ता बन सकता है (टिप्पणी प0 744.2)परमात्मा का ही अंश होने के कारण जीव का एकमात्र वास्तविक सम्बन्ध परमात्मा से है। संसार से तो इसने भूल से अपना सम्बन्ध माना है वास्तव में है नहीं। विवेक के द्वारा इस भूल को मिटाकर अर्थात् संसार से माने हुए सम्बन्ध का त्याग करके एकमात्र अपने अंशी परमात्मा से अपनी स्वतःसिद्ध अभिन्नता का अनुभव करने वाला ही संसारवृक्ष के यथार्थ तत्त्व को जानने वाला है और उसी को भगवान यहाँ ‘वेदवित्’ कहते हैं। पूर्वश्लोक में भगवान ने जिस संसारवृक्ष का दिग्दर्शन कराया उसी संसारवृक्ष का अब आगे के श्लोक में अवयवों सहित विस्तार से वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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