अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 16 – 20 ) क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ৷৷15.19৷৷
यः-जो; माम् – मुझको; एवम् – इस प्रकार; असम्मूढः-संदेह रहित; जानाति–जानता है; पुरुषोत्तम -दिव्य परम पुरुषः सः-वह; सर्ववित्-पूर्ण ज्ञान युक्त, सब कुछ जानने वाला; भजति-भक्ति में तल्लीन; माम्-मुझको; सर्वभावेन – सर्वस्व रूप से; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन।
हे भरतवंशी अर्जुन! वे जो संशय रहित होकर मुझे परम दिव्य पुरुषोत्तम भगवान के रूप में जानते हैं, वास्तव में वे ही पूर्ण ज्ञान से युक्त हो कर मुझे ही सब कुछ जान कर ह्रदय से मेरी ही भक्ति में तल्लीन रहते हैं ৷৷15.19৷৷
यो मामेवमसम्मूढः – जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश है। अतः अपने अंशी परमात्मा के वास्तविक सम्बन्ध (जो सदा से ही है) का अनुभव करना ही उसका असम्मूढ़ (मोह से रहित) होना है। संसार या परमात्मा को तत्त्व से जानने में मोह (मूढ़ता) ही बाधक है। किसी वस्तु की वास्तविकता का ज्ञान तभी हो सकता है जब उस वस्तु से राग या द्वेषपूर्वक माना गया कोई सम्बन्ध न हो। नाशवान पदार्थों से रागद्वेषपूर्वक सम्बन्ध मानना ही मोह है। संसार को तत्त्व से जानते ही परमात्मा से अपनी अभिन्नता का अनुभव हो जाता है और परमात्मा को तत्त्व से जानते ही संसार से अपनी भिन्नता का अनुभव हो जाता है। तात्पर्य है कि संसार को तत्त्व से जानने से संसार से माने हुए सम्बन्ध का विच्छेद हो जाता है और परमात्मा को तत्त्व से जानने से परमात्मा से वास्तविक सम्बन्ध का अनुभव हो जाता है। संसार से अपना सम्बन्ध मानना ही भक्ति में व्यभिचारदोष है। इस व्यभिचारदोष से सर्वथा रहित होने में ही उपर्युक्त पदों का भाव समझना चाहिये। जानाति पुरुषोत्तमम् – जिसकी मूढ़ता सर्वथा नष्ट हो गयी है वही मनुष्य भगवान को पुरुषोत्तम जानता है। क्षर से सर्वथा अतीत पुरुषोत्तम (परमपुरुष परमात्मा) को ही सर्वोपरि मानकर उनके सम्मुख हो जाना , केवल उन्हीं को अपना मान लेना ही भगवान को यथार्थरूप से पुरुषोत्तम जानना है। संसार में जो कुछ भी प्रभाव देखने-सुनने में आता है वह सब एक भगवान (पुरुषोत्तम) का ही है – ऐसा मान लेने से संसार का खिंचाव सर्वथा मिट जाता है। यदि संसार का थोड़ा सा भी खिंचाव रहता है तो यही समझना चाहिये कि अभी भगवान को दृढ़ता से माना ही नहीं। स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत – जो भगवान को पुरुषोत्तम जान लेता है और इस विषय में जिसके अन्तःकरण में कोई विकल्प , भ्रम या संशय नहीं रहता उस मनुष्य के लिये जानने योग्य कोई तत्त्व शेष नहीं रहता। इसलिये भगवान् उसको ‘सर्ववित’ कहते हैं (टिप्पणी प0 785.1)। भगवान को जानने वाला व्यक्ति कितना ही कम पढ़ा-लिखा क्यों न हो वह सब कुछ जानने वाला है क्योंकि उसने जानने योग्य तत्त्व को जान लिया। उसको और कुछ भी जानना शेष नहीं है। जो मनुष्य भगवान को पुरुषोत्तम जान लेता है उस ‘सर्ववित्’ मनुष्य की पहचान यह है कि वह सब प्रकार से स्वतः भगवान का ही भजन करता है। जब मनुष्य भगवान को क्षर से अतीत जान लेता है तब उसका मन (राग) क्षर (संसार) से हटकर भगवान में लग जाता है और जब वह भगवान को अक्षर से उत्तम जान लेता है तब उसकी बुद्धि (श्रद्धा) भगवान में लग जाती है (टिप्पणी प0 785.2)। फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से स्वतः भगवान का भजन होता है। इस प्रकार सब प्रकार से भगवान का भजन करना ही ‘अव्यभिचारिणी’ भक्ति है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि सांसारिक पदार्थों से जब तक मनुष्य रागपूर्वक अपना सम्बन्ध मानता है तब तक वह सब प्रकार से भगवान का भजन नहीं कर सकता। कारण कि जहाँ राग होता है वृत्ति स्वतः वहीं जाती है। ‘मैं भगवान का हूँ’ और ‘भगवान ही मेरे हैं’ – इस वास्तविकता को दृढ़तापूर्वक मान लेने से स्वतः सब प्रकार से भगवान का भजन होता है। फिर भक्त की मात्र क्रियाएँ (सोना , जागना , बोलना , चलना , खाना-पीना आदि) भगवान की प्रसन्नता के लिये ही होती हैं अपने लिये नहीं। ज्ञानमार्ग में जानना और भक्तिमार्ग में मानना मुख्य होता है। जिस बात में किञ्चिन्मात्र भी सन्देह न हो उसे दृढ़तापूर्वक मानना ही भक्तिमार्ग में जानना है। भगवान को सर्वोपरि मान लेने के बाद भक्त सब प्रकार से भगवान का ही भजन करता है (गीता 10। 8)। भगवान को पुरुषोत्तम (सर्वोपरि) मानने से भी मनुष्य ‘सर्ववित’ हो जाता है फिर सब प्रकार से भगवान का भजन करते हुए भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ जान जाय – इसमें तो कहना ही क्या है । अरुन्धतीदर्शनन्याय (स्थूल से क्रमशः सूक्ष्म की ओर जाने) के अनुसार भगवान ने इस अध्याय में पहले क्षर और फिर अक्षर का विवेचन करने के बाद अन्त में पुरुषोत्तम का वर्णन किया – अपने पुरुषोत्तमत्व को सिद्ध किया। ऐसा वर्णन करने का तात्पर्य और प्रयोजन क्या है ?- इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी