Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 15

 

 

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अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग

पुरुषोत्तमयोग-  पंद्रहवाँ अध्याय

 

( 01-06 )  संसार रूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय

 

 

SHrimad Bhagavad Geeta Chapter 15ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी৷৷15.4৷৷

 

 

ततः-तब; तत्-उस; परिमार्गितव्यम्-खोजना चाहिए; यस्मिन्-जहाँ; गताः-जाकर; न-कभी नहीं; निवर्तन्ति–वापस आते हैं; भूयः-पुनः; तम्-उसको; एव–निश्चय ही; च-भी; आद्यम्-मूल; पुरुषम्-परम प्रभुः प्रपद्ये-शरणागत होना; यतः-जिससे; प्रवृत्तिः-गतिविधि; प्रसृता–प्रवाह; पुराणी-अनादिकाल।

 

 

वैराग्य रूपी शस्त्र से काटने के बाद मनुष्य को उस परम-लक्ष्य (परमात्मा) के मार्ग की खोज करनी चाहिये, जिस मार्ग पर पहुँचा हुआ और जिसके प्राप्त होने के बाद मनुष्य इस संसार में फिर कभी वापस नहीं लौटता है, फिर मनुष्य को “मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ” ऐसा विचार कर उस परमात्मा के शरणागत हो जाना चाहिये, जिस परमात्मा से इस अनादि काल से चली आने वाली इस सृष्टि या संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार होता है ৷৷15.4৷৷

 

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् – भगवान ने पूर्वश्लोक में ‘छित्त्वा’ पद से संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने की बात कही है। इससे यह सिद्ध होता है कि परमात्मा की खोज करने से पहले संसार से सम्बन्धविच्छेद करना बहुत आवश्यक है। कारण कि परमात्मा तो सम्पूर्ण देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि में ज्यों के त्यों विद्यमान हैं केवल संसार से अपना सम्बन्ध मानने के कारण ही नित्यप्राप्त परमात्मा के अनुभव में बाधा लग रही है। संसार से सम्बन्ध बना रहने से परमात्मा की खोज करने में ढिलाई आती है और जप , कीर्तन , स्वाध्याय आदि सब कुछ करने पर भी विशेष लाभ नहीं दिखता। इसलिये साधक को पहले संसार से सम्बन्धविच्छेद करने को ही मुख्यता देनी चाहिये। जीव परमात्मा का ही अंश है। संसार से सम्बन्ध मान लेने के कारण ही वह अपने अंशी (परमात्मा) के नित्यसम्बन्ध को भूल गया है। अतः भूल मिटने पर मैं भगवान का ही हूँ – इस वास्तविकता की स्मृति प्राप्त हो जाती है। इसी बात पर भगवान कहते हैं कि उस परमपद (परमात्मा) से नित्यसम्बन्ध पहले से ही विद्यमान है। केवल उसकी खोज करनी है। संसार को अपना मानने से नित्यप्राप्त परमात्मा अप्राप्त दिखने लग जाता है और अप्राप्त संसार प्राप्त दिखने लग जाता है। इसलिये परमपद (परमात्मा) को ‘तत्’ पद से लक्ष्य करके भगवान कहते हैं कि जो परमात्मा नित्यप्राप्त है उसी की पूरी तरह खोज करनी है। खोज उसी की होती है जिसका अस्तित्व पहले से ही होता है। परमात्मा अनादि और सर्वत्र परिपूर्ण हैं। अतः यहाँ खोज करने का मतलब यह नहीं है कि किसी साधनविशेष के द्वारा परमात्मा को ढूँढ़ना है। जो संसार (शरीर , परिवार धनादि) कभी अपना था नहीं , है नहीं , होगा नहीं । उसका आश्रय न लेकर जो परमात्मा सदा से ही अपने हैं , अपने में हैं और अभी हैं । उनका आश्रय लेना ही उनकी खोज करना है। साधक को साधन-भजन करना तो बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके समान कोई उत्तम काम नहीं है किंतु परमात्मतत्त्व को साधन-भजन के द्वारा प्राप्त कर लेंगे – ऐसा मानना ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने से अभिमान बढ़ता है जो परमात्मप्राप्ति में बाधक है। परमात्मा कृपा से मिलते हैं। उनको किसी साधन से खरीदा नहीं जा सकता। साधन से केवल असाधन (संसार से तादात्म्य , ममता और कामना का सम्बन्ध अथवा परमात्मा से विमुखता) का नाश होता है जो अपने द्वारा ही किया हुआ है। अतः साधन का महत्त्व असाधन को मिटाने में ही समझना चाहिये। असाधन को मिटाने की सच्ची लगन हो तो असाधन को मिटाने का बल भी परमात्मा की कृपा से मिलता है। साधकों के अन्तःकरण में प्रायः एक दृढ़ धारणा बनी हुई है कि जैसे उद्योग करने से संसार के पदार्थ प्राप्त होते हैं। ऐसे ही साधन करते-करते (अन्तःकरण शुद्ध होने पर) ही परमात्मा की प्राप्ति होती है परन्तु वास्तव में यह बात नहीं है क्योंकि परमात्मप्राप्ति किसी भी कर्म (साधन , तपस्यादि) का फल नहीं है चाहे वह कर्म कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो। कारण कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कर्म का भी आरम्भ और अन्त होता है । अतः उस कर्म का फल नित्य कैसे होगा ? कर्म का फल भी आदि और अन्तवाला होता है। इसलिये नित्य परमात्मतत्त्व की प्राप्ति किसी कर्म से नहीं होती। वास्तव में त्याग , तपस्या आदि से जडता (संसार और शरीर) से सम्बन्धविच्छेद ही होता है जो भूल से माना हुआ है। सम्बन्धविच्छेद होते ही जो तत्त्व सर्वत्र है , सदा है , नित्यप्राप्त है , उसकी अनुभूति हो जाती है – उसकी स्मृति जाग्रत् हो जाती है। अर्जुन भी पूरा उपदेश सुनने के बाद अन्त में कहते हैं – स्मृतिर्लब्धा (18। 73) मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। यद्यपि विस्मृति भी अनादि है तथापि वह अन्त होने वाली है। संसार की स्मृति और परमात्मा की स्मृति में बहुत अन्तर है। संसार की स्मृति के बाद विस्मृति का होना सम्भव है जैसे – पक्षाघात (लकवा) होने पर पढ़ी हुई विद्या की विस्मृति होना सम्भव है। इसके विपरीत परमात्मा की स्मृति एक बार हो जाने पर फिर कभी विस्मृति नहीं होती (गीता 2। 72? 4। 35) जैसे – पक्षाघात होने पर अपनी सत्ता (मैं हूँ) की विस्मृति नहीं होती। कारण यह है कि संसार के साथ कभी सम्बन्ध होता नहीं और परमात्मा से कभी सम्बन्ध छूटता नहीं। शरीर संसार से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है – इस तत्त्व का अनुभव करना ही संसारवृक्ष का छेदन करना है और मैं परमात्मा का अंश हूँ – इस वास्तविकता में हरदम स्थित रहना ही परमात्मा की खोज करना है। वास्तव में संसार से सम्बन्धविच्छेद होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व की अनुभूति हो जाती है। यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः – जिसे पहले श्लोक में ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पद से तथा इस श्लोक में ‘आद्यम् पुरुषम्’ पदों से कहा गया है और आगे छठे श्लोक में जिसका विस्तार से वर्णन हुआ है उसी परमात्मतत्त्व का निर्देश यहाँ ‘यस्मिन्’ पद से किया गया है। जैसे जल की बूँदे समुद्र में मिल जाने के बाद पुनः समुद्र से अलग नहीं हो सकती । ऐसे ही परमात्मा का अंश (जीवात्मा) परमात्मा को प्राप्त हो जाने के बाद फिर परमात्मा से अलग नहीं हो सकता अर्थात् पुनः लौटकर संसार में नहीं आ सकता। ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण प्रकृति अथवा उसके कार्य गुणों का सङ्ग ही है (गीता 13। 21)। अतः जब साधक असङ्गशस्त्र के द्वारा गुणों के सङ्ग का सर्वथा छेदन (असत के सम्बन्ध का सर्वथा त्याग ) कर देता है तब उसका पुनः कहीं जन्म लेने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी – सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता एक परमात्मा ही हैं। वे ही इस संसार के आश्रय और प्रकाशक हैं। मनुष्य भ्रमवश सांसारिक पदार्थों में सुखों को देखकर संसार की तरफ आकर्षित हो जाता है और संसार के रचयिता (परमात्मा)को भूल जाता है। परमात्मा का रचा हुआ संसार भी जब इतना प्रिय लगता है तब (संसार के रचयिता) परमात्मा कितने प्रिय लगने चाहिये यद्यपि रची हुई वस्तु में आकर्षण का होना एक प्रकार से रचयिता का ही आकर्षण है (गीता 10। 41) तथापि मनुष्य अज्ञानवश उस आकर्षण में परमात्मा को कारण न मानकर संसार को ही कारण मान लेता है और उसी में फँस जाता है। प्राणिमात्र का यह स्वभाव है कि वह उसी का आश्रय लेना चाहता है और उसी की प्राप्ति में जीवन लगा देना चाहता है जिसको वह सबसे बढ़कर मानता है अथवा जिससे उसे कुछ प्राप्त होने की आशा रहती है। जैसे संसार में लोग रुपयों को प्राप्त करने में और उनका संग्रह करने में बड़ी तत्परता से लगते हैं क्योंकि उनको रुपयों से सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओं के मिलने की आशा रहती है। वे सोचते हैं – शरीर के निर्वाह की वस्तुएँ तो रुपयों से मिलती ही हैं , अनेक तरह के भोग , ऐश-आराम के साधन भी रुपयों से प्राप्त होते हैं। इसलिये रुपये मिलने पर मैं सुखी हो जाऊँगा तथा लोग मुझे धनी मानकर मेरा बहुत मान-आदर करेंगे। इस प्रकार रुपयों को सर्वोपरि मान लेने पर वे लोभ के कारण अन्याय , पाप की भी परवाह नहीं करते। यहाँ तक कि वे शरीर के आराम की भी उपेक्षा करके रुपये कमाने तथा संग्रह करने में ही तत्पर रहते हैं। उनकी दृष्टि में रुपयों से बढ़कर कुछ नहीं रहता। इसी प्रकार जब साधक को यह ज्ञात हो जाता है कि परमात्मा से बढ़कर कुछ भी नहीं है और उनकी प्राप्ति में ऐसा आनन्द है जहाँ संसार के सब सुख फीके पड़ जाते हैं (गीता 6। 22)? तब वह परमात्मा को ही प्राप्त करने के लिये तत्परता से लग जाता है (गीता 15। 19)। तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये – जिसका कोई आदि नहीं है किन्तु जो सबका आदि है (गीता 10। 2) उस आदिपुरुष परमात्मा का ही आश्रय (सहारा) लेना चाहिये। परमात्मा के सिवाय अन्य कोई भी आश्रय टिकने वाला नहीं है। अन्य का आश्रय वास्तव में आश्रय ही नहीं है प्रत्युत वह आश्रय लेने वाले का ही नाश (पतन) करने वाला है जैसे – समुद्र में डूबते हुए व्यक्ति के लिये मगरमच्छ का आश्रय इस मृत्युसंसारसागर के सभी आश्रय मगरमच्छ के आश्रय की तरह ही हैं। अतः मनुष्य को विनाशी संसार का आश्रय न लेकर अविनाशी परमात्मा का ही आश्रय लेना चाहिये। जब साधक अपना पूरा बल लगाने पर भी दोषों को दूर करने में सफल नहीं होता तब वह अपने बल से स्वतः निराश हो जाता है। ठीक ऐसे समय पर यदि वह (अपने बल से सर्वथा निराश होकर) एकमात्र भगवान का आश्रय ले लेता है तो भगवान की कृपाशक्ति से उसके दोष निश्चितरूप से नष्ट हो जाते हैं और भगवत्प्राप्ति हो जाती है (टिप्पणी प0 752)। इसलिये साधक को भगवत्प्राप्ति से कभी निराश नहीं होना चाहिये। भगवान की शरण लेकर निर्भय और निश्चिन्त हो जाना चाहिये। भगवान के शरण होने पर उनकी कृपा से विघ्नों का नाश और भगवत्प्राप्ति – दोनों की सिद्धि हो जाती है (गीता 18। 58? 62)। साधक को जैसे संसार के सङ्ग का त्याग करना है । ऐसे ही असङ्गता के सङ्ग का भी त्याग करना है। कारण कि असङ्ग होने के बाद भी साधक में मैं असङ्ग हूँ – ऐसा सूक्ष्म अहंभाव (परिच्छिन्नता) रह सकता है जो परमात्माके शरण होने पर ही सुगमतापूर्वक मिट सकता है। परमात्मा के शरण होने का तात्पर्य है – अपने कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , अहम् (मैंपन), धन , परिवार , मकान आदि सब के सब पदार्थों को परमात्मा के अर्पण कर देना अर्थात् उन पदार्थों से अपनापन सर्वथा हटा लेना । शरणागत भक्त में दो भाव रहते हैं – मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं। इन दोनों में भी मैं भगवान का हूँ और भगवान के लिये हूँ – यह भाव ज्यादा उत्तम है। कारण कि भगवान मेरे हैं और मेरे लिये हैं – इस भाव में अपने लिये भगवान से कुछ चाह रहती है । अतः साधक भगवान से अपनी मनचाही कराना चाहेगा परन्तु मैं भगवान का हूँ और भगवान के लिये हूँ – इस भाव में केवल भगवान की मनचाही होगी। इस प्रकार साधक में अपने लिये कुछ भी करने और पाने का भाव न रहना ही वास्तव में अनन्य शरणागति है। इस अनन्य शरणागति से उसका भगवान के प्रति वह अनिर्वचनीय और अलौकिक प्रेम जाग्रत हो जाता है जो क्षति पूर्ति और निवृत्ति से रहित है जिसमें अपने प्रिय के मिलने पर भी तृप्ति नहीं होती और वियोग में भी अभाव नहीं होता जो प्रतिक्षण बढ़ता रहता है जिसमें असीम अपार आनन्द है जिससे आनन्ददाता भगवान को भी आनन्द मिलता है। तत्त्वज्ञान होने के बाद जो प्रेम प्राप्त होता है वही प्रेम अनन्य शरणागति से भी प्राप्त हो जाता है। ‘एव’ पद का तात्पर्य है कि दूसरे सब आश्रयों का त्याग करके एकमात्र भगवान का ही आश्रय ले। यही भाव गीता में ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते’ (7। 14) तमेव शरणं गच्छ (18। 62) और मामेकं शरणं व्रज (18। 66) पदों में भी आया है। ‘प्रपद्ये’ कहने का अर्थ है – मैं शरण हूँ। यहाँ शङ्का हो सकती है कि भगवान कैसे कहते हैं कि मैं शरण हूँ ? क्या भगवान भी किसी के शरण होते हैं ? यदि शरण होते हैं तो किसके शरण होते हैं । इसका समाधान यह है कि भगवान किसी के शरण नहीं होते क्योंकि वे सर्वोपरि हैं। केवल लोकशिक्षा के लिये भगवान साधक की भाषा में बोलकर साधक को यह बताते हैं कि वह मैं शरण हूँ ऐसी भावना करे।परमात्मा है और मैं (स्वयं) हूँ – इन दोनों में है के रूप में एक ही परमात्मसत्ता विद्यमान है। मैं के साथ होने से ही है का हूँ में परिवर्तन हुआ है। यदि मैंरूप एकदेशीय स्थिति को सर्वदेशीय है में विलीन कर दें तो है ही रह जायगा , हूँ नहीं रहेगा। जब तक स्वयं के साथ बुद्धि , मन , इन्द्रियाँ , शरीर आदि का सम्बन्ध मानते हुए हूँ बना हुआ है तब तक व्यभिचारदोष होने के कारण अनन्य शरणागति नहीं है। परमात्मा का अंश होने के कारण जीव वास्तव में सदा परमात्मा के ही आश्रित रहता है परन्तु परमात्मा से विमुख होने के बाद (आश्रय लेने का स्वभाव न छूटने के कारण) वह भूल से नाशवान संसार का आश्रय लेने लगता है जो कभी टिकता नहीं। अतः वह दुःख पाता रहता है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह परमात्मा से अपने वास्तविक सम्बन्ध को पहचान कर एकमात्र परमात्मा के शरण हो जाय। जो महापुरुष आदिपुरुष परमात्मा के शरण होकर परमपद को प्राप्त होते हैं उनके लक्षणों का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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