अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 01-06 ) संसार रूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम৷৷15.6৷৷
न-नहीं; तत्-वह; भासयते-आलोकित करता है; सूर्यः-सूर्य न-न तो; शशाङ्कः-चन्द्रमा; न-न तो; पावकः-अग्नि; यत्-जहाँ; गत्वा-जाकर न-कभी नहीं; निवर्तन्ते-वापस आते हैं; तत् धाम-उसके धाम; परमम्-परम; मम-मेरा ।
उस परम-धाम को अर्थात मेरे सर्वोच्च लोक को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा प्रकाशित कर सकता है और न ही अग्नि प्रकाशित कर सकती है, जहाँ पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस भौतिक संसार में वापस लौट कर नहीं आता है वही मेरा परम-धाम है ৷৷15.6৷৷
[छठा श्लोक पाँचवें और सातवें श्लोकों को जोड़ने वाला है। इन श्लोकों में भगवान यह बताते हैं कि वह अविनाशी पद मेरा ही धाम है जो मेरे से अभिन्न है और जीव भी मेरा अंश होने के कारण मेरे से अभिन्न है। अतः जीव की भी उस धाम (अविनाशी पद) से अभिन्नता है अर्थात् वह उस धाम को नित्यप्राप्त है। यद्यपि इस छठे श्लोक का बारहवें श्लोक से घनिष्ठ सम्बन्ध है तथापि पाँचवें और सातवें श्लोकों को जोड़ने के लिये इसको यहाँ दिया गया है। इस श्लोक में भगवान ने दो खास बातें बतायी हैं – (1) उस धाम को सूर्यादि प्रकाशित नहीं कर सकते (जिसका कारणरूप से विवेचन भगवान ने इसी अध्याय के बारहवें श्लोक में किया है ) और (2) उस धाम को प्राप्त हुए जीव पुनः लौटकर संसार में नहीं आते (जिसका कारणरूप से विवेचन भगवान ने इसी अध्याय के सातवें श्लोक में किया है)।] न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः – दृश्य जगत में सूर्य के समान तेजस्वी , प्रकाशस्वरूप कोई चीज नहीं है। वह सूर्य भी उस परमधाम को प्रकाशित करने में असमर्थ है फिर सूर्य से प्रकाशित होने वाले चन्द्र और अग्नि उसे प्रकाशित कर ही कैसे सकते हैं ? इसी अध्याय के बारहवें श्लोक में भगवान स्पष्ट कहेंगे कि सूर्य , चन्द्र और अग्नि में मेरा ही तेज है। मेरे से ही प्रकाश पाकर ये भौतिक जगत को प्रकाशित करते हैं। अतः जो उस परमात्मतत्त्व से प्रकाश पाते हैं उनके द्वारा परमात्मस्वरूप परमधाम कैसे प्रकाशित हो सकता है ? (टिप्पणी प0 757) तात्पर्य यह है कि परमात्मतत्त्व चेतन है और सूर्य , चन्द्र तथा अग्नि जड (प्राकृत) हैं। ये सूर्य , चन्द्र और अग्नि क्रमशः नेत्र , मन और वाणी को प्रकाशित करते हैं। ये तीनों (नेत्र , मन और वाणी) भी जड ही हैं। इसलिये नेत्रों से उस परमात्मतत्त्व को देखा नहीं जा सकता , मन से उसका चिन्तन नहीं किया जा सकता और वाणी से उसका वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि जड तत्त्व से चेतन परमात्मतत्त्व की अनुभूति नहीं हो सकती। वह चेतन (प्रकाशक) तत्त्व इन सभी प्रकाशित पदार्थों में सदा परिपूर्ण है। उस तत्त्व में अपनी प्रकाशकता का अभिमान नहीं है। चेतन जीवात्मा भी परमात्मा का अंश होने के कारण स्वयं प्रकाशस्वरूप है । अतः उसको भी जड पदार्थ (मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ आदि) प्रकाशित नहीं कर सकते। मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ आदि जडपदार्थों का उपयोग (भगवान के नाते दूसरों की सेवा करके) केवल जडता से सम्बन्धविच्छेद करने में ही है। एक बात ध्यान देने की है कि यहाँ सूर्य को भगवान या देव की दृष्टि से न देखकर केवल प्रकाश करने वाले पदार्थों की दृष्टि से देखा गया है। तात्पर्य है कि सूर्य तैजस तत्त्वों में श्रेष्ठ है । अतः यहाँ केवल सूर्य की बात नहीं प्रत्युत चन्द्र आदि सभी तैजसतत्त्वों की बात चल रही है। जैसे दसवें अध्याय के 37वें श्लोक में भगवान ने कहा कि वृष्णिवंशियों में मैं वासुदेव हूँ (गीता 10। 37) तो वहाँ वासुदेव का भगवान के रूप से वर्णन नहीं प्रत्युत वृष्णिवंश के श्रेष्ठ पुरुष के रूप से ही वर्णन है। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम – जीव परमात्मा का अंश है। वह जब तक अपने अंशी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक उसका आवागमन नहीं मिट सकता। जैसे नदियों के जल को अपने अंशी समुद्र से मिलने पर ही स्थिरता मिलती है – ऐसे ही जीव को अपने अंशी परमात्मा से मिलने पर ही वास्तविक स्थायी शान्ति मिलती है। वास्तव में जीव परमात्मा से अभिन्न ही है पर संसार के (माने हुए) सङ्ग के कारण उसको ऊँच-नीच योनियों में जाना पड़ता है। यहाँ परमधाम शब्द परमात्मा का धाम और परमात्मा – दोनों का ही वाचक है। यह परमधाम प्रकाशस्वरूप है। जैसे सूर्य अपने स्थानविशेष पर भी स्थित है और प्रकाशरूप से सब जगह भी स्थित है अर्थात् सूर्य और उसका प्रकाश परस्पर अभिन्न हैं । ऐसे ही परमधाम और सर्वव्यापी परमात्मा भी परस्पर अभिन्न हैं। भक्तों की भिन्न-भिन्न मान्यताओं के कारण ब्रह्मलोक , साकेत धाम , गोलोक धाम , देवीद्वीप , शिवलोक आदि सब एक ही परमधाम के भिन्न-भिन्न नाम हैं। यह परमधाम चेतन , ज्ञानस्वरूप , प्रकाशस्वरूप और परमात्मस्वरूप है। यह अविनाशी परमपद आत्मरूप से सबमें समानरूप से अनुस्यूत (व्याप्त) है। अतः स्वरूप से हम उस परमपद में स्थित हैं ही परन्तु जडता (शरीर आदि) से तादात्म्य , ममता और कामना के कारण हमें उसकी प्राप्ति अथवा उसमें अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव नहीं हो रहा है। पूर्वश्लोक में भगवान ने अपने परमधाम का वर्णन करते हुए यह बताया कि उसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसार में नहीं आते। उसके विवेचन के रूप में अपने अंश जीवात्मा को भी (परमधाम की ही तरह) अपने से अभिन्न बताते हुए जीव से क्या भूल हो रही है कि जिससे उसको नित्यप्राप्त परमात्मस्वरूप परमधाम का अनुभव नहीं हो रहा है ? इसका कारण सहित वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी