अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 07 – 11 ) इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता
श्रीभगवानुवाच
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति৷৷15.7৷৷
मम–मेरा; एव-केवल; अंश:-अणु अंश; जीव-लोके-भौतिक संसार में; जीवभूतः-सन्निहित आत्मा; सनातनः-नित्य; मनः-मन; षष्ठानि – छह; इन्द्रियाणि-इन्द्रियों सहित; प्रकृति-भौतिक प्रकृति के बंधन में; स्थानि-स्थित; कर्षति-संघर्ष।
हे अर्जुन! इस भौतिक संसार की आत्माएं या प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा ( जीव बना हुआ आत्मा ) मेरा ही सनातन अंश है , जो कि मन सहित छह इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है अर्थात वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है और अपना मान लेता है ৷৷15.7৷৷
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः – जिनके साथ जीव की तात्त्विक अथवा स्वरूप की एकता नहीं है – ऐसे प्रकृति और प्रकृति के कार्यमात्र का नाम लोक है। तीन लोक , चौदह भुवनों में जीव जितनी योनियों में शरीर धारण करता है उन सम्पूर्ण लोकों तथा योनियों को ‘जीवलोके’ पद के अन्तर्गत समझना चाहिये। आत्मा परमात्मा का अंश है परन्तु प्रकृति के कार्य शरीर , इन्द्रियाँ , प्राण , मन आदि के साथ अपनी एकता मानकर वह जीव हो गया है – जीवभूतः। उसका यह जीवपना बनावटी है , वास्तविक नहीं। नाटक में कोई पात्र बनने की तरह ही यह आत्मा जीवलोक में जीव बनता है। सातवें अध्याय में भगवान ने कहा है कि इस सम्पूर्ण जगत को मेरी जीवभूता परा प्रकृति ने धारण कर रखा है (7। 5) अर्थात् अपरा प्रकृति (संसार) से वास्तविक सम्बन्ध न होने पर भी जीव ने उससे अपना सम्बन्ध मान रखा है। भगवान जीव के प्रति कितनी आत्मीयता रखते हैं कि उसको अपना ही मानते हैं – ममैवांशः। मानते ही नहीं प्रत्युत जानते भी हैं। उनकी यह आत्मीयता महान हितकारी , अखण्ड रहने वाली और स्वतःसिद्ध है। यहाँ भगवान यह वास्तविकता प्रकट करते हैं कि जीव केवल मेरा ही अंश है । इसमें प्रकृति का किञ्चिन्मात्र भी अंश नहीं है। जैसे सिंह का बच्चा भेड़ों में मिलकर अपने को भेड़ मान ले – ऐसे ही जीव शरीरादि जड पदार्थों के साथ मिलकर अपने असली चेतनस्वरूप को भूल जाता है। अतः इस भूल को मिटाकर उसे अपने को सदा सर्वथा चेतनस्वरूप ही अनुभव करना चाहिये। सिंह का बच्चा भेड़ों के साथ मिलकर भी भेड़ नहीं हो जाता। जैसे कोई दूसरा सिंह आकर उसे बोध करा दे कि देख तेरी और मेरी आकृति , स्वभाव , जाति , गर्जना आदि सब एक समान हैं । अतः निश्चितरूप से तू भेड़ नहीं प्रत्युत मेरे जैसा ही सिंह है। ऐसे ही भगवान यहाँ ‘मम एव’ पदों से जीव को बोध कराते हैं कि हे जीव तू मेरा ही अंश है। प्रकृति के साथ तेरा सम्बन्ध कभी हुआ नहीं , है नहीं , होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। भगवत्प्राप्ति के सभी साधनों में अहंता (मैंपन) और ममता (मेरापन) का परिवर्तनरूप साधन बहुत सुगम और श्रेष्ठ है। अहंता और ममता – दोनों में साधक की जैसी मान्यता होती है उसके अनुसार उसका भाव तथा क्रिया भी स्वतः होती है। साधक की अहंता यह होनी चाहिये कि मैं भगवान का ही हूँ और ममता यह होनी चाहिये कि भगवान ही मेरे हैं। यह सबका अनुभव है कि हम अपने को जिस वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि का मानते हैं उसी के अनुसार हमारा जीवन बनता है। पर यह मान्यता (जैसे – मैं ब्राह्मण हूँ , मैं साधु हूँ आदि) केवल (नाटक के स्वाँग की तरह) कर्तव्यपालन के लिये है क्योंकि यह सदा रहने वाली नहीं है परन्तु मैं भगवान का हूँ यह वास्तविकता सदा रहने वाली है। मैं ब्राह्मण हूँ , मैं साधु हूँ आदि भाव कभी हमसे ऐसा नहीं कहते कि तुम ब्राह्मण हो या तुम साधु हो। इसी प्रकार मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , शरीर , धन , जमीन , मकान आदि जिन पदार्थों को हम भूल से अपना मान रहे हैं वे हमें कभी भी ऐसा नहीं कहते कि तुम हमारे हो पर सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता परमात्मा स्पष्ट घोषणा करते हैं कि जीव मेरा ही है । विचार करना चाहिये कि शरीरादि पदार्थों को हम अपने साथ लाये नहीं , इच्छानुसार उसमें परिवर्तन कर सकते नहीं , इच्छानुसार उनको अपने पास स्थिर रख सकते नहीं , हम भी उनके साथ सदा रह सकते नहीं , उनको अपने साथ ले जा सकते नहीं , फिर भी उनको अपना मानते हैं – यह हमारी कितनी बड़ी भूल है ? बचपन में हमारे मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , शरीर जैसे थे वैसे अब नहीं हैं । सब के सब बदल गये हैं फिर भी हम ‘मैं जो बचपन में था वही अब हूँ’ – ऐसा मानते हैं। कारण यही है कि शरीरादि में परिवर्तन होने पर भी हमारे में परिवर्तन नहीं हुआ। इस प्रकार शरीरादि में हमें स्पष्ट परिवर्तन दिखता है। जिसको परिवर्तन दिखता है वह स्वयं परिवर्तनरहित होता ही है। अतः संसार के पदार्थ , व्यक्ति हमारे साथी नहीं हैं। मैं भगवान का हूँ – ऐसा भाव रखना , अपने आपको भगवान में लगाना है। साधकों से भूल यही होती है कि वे अपने आपको भगवान में न लगाकर मन-बुद्धि को भगवान में लगाने की कोशिश करते हैं। मैं भगवान का हूँ – इस वास्तविकता को भूलकर मैं ब्राह्मण हूँ , मैं साधु हूँ आदि भी मानते रहें और मन-बुद्धि को भगवान में लगाते रहें तो यह दुविधा कभी मिटेगी नहीं और बहुत प्रयत्न करने पर भी मन-बुद्धि जैसे भगवान में लगने चाहिये वैसे लगेंगे नहीं। भगवान ने भी इस अध्याय के चौथे श्लोक में ‘मैं उस परमात्मा के शरण हूँ ‘ पदों से अपने आपको परमात्मा में लगाने की बात ही कही है। गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं कि पहले भगवान का होकर फिर नाम-जप आदि साधन करें तो अनेक जन्मों की बिगड़ी हुई स्थिति आज अभी सुधर सकती है – ‘बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु। होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु।।’ (दोहावली 22) तात्पर्य यह है कि भगवान में केवल मन-बुद्धि लगाने की अपेक्षा अपने आपको भगवान में लगाना श्रेष्ठ है। अपने आपको भगवान में लगाने से मन-बुद्धि स्वतः सुगमतापूर्वक भगवान में लग जाते हैं। नाटक का पात्र हजारों दर्शकों के सामने यह कहता है कि मैं रावण का बेटा मेघनाद हूँ और मेघनाद की तरह ही वह बाहरी सब क्रियाएँ करता है परन्तु उसके भीतर यह भाव हरदम रहता है कि यह तो स्वाँग है वास्तव में मैं मेघनाद हूँ ही नहीं। इसी तरह साधकों को भी नाटक के स्वाँग की तरह इस संसाररूपी नाट्यशाला में अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते हुए भीतर से मैं तो भगवान का हूँ – ऐसा भाव हरदम जाग्रत रखना चाहिये। जीव सदा से ही भगवान का है — सनातनः। भगवान ने न तो कभी जीव का त्याग ही किया , न कभी उससे विमुख ही हुए। जीव भी भगवान का त्याग नहीं कर सकता। भगवान के द्वारा मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके वह भगवान से विमुख हुआ है। जिस प्रकार सोने का गहना तत्त्वतः सोने से अलग नहीं हो सकता उसी प्रकार जीव भी तत्त्वतः परमात्मा से कभी अलग नहीं हो सकता। बुद्धिमान कहलाने वाले मनुष्य की यह बहुत बड़ी भूल है कि वह अपने अंशी भगवान से विमुख हो रहा है। वह इधर खयाल ही नहीं करता कि भगवान इतने सुहृद् (दयालु और प्रेमी) हैं कि हमारे न चाहने पर भी हमें चाहते हैं , न जानने पर भी हमें जानते हैं। वे कितने उदार , दयालु और प्रेमी हैं – इसका वर्णन भाषा , भाव , बुद्धि आदि के द्वारा हो ही नहीं सकता। ऐसे सुहृद् भगवान को छोड़कर अन्य नाशवान जड पदार्थों को अपना मानना बुद्धिमानी नहीं प्रत्युत महान मूर्खता है। जब मनुष्य भगवान के आज्ञानुसार अपने कर्तव्य का पालन करता है तब वे उसकी इतनी उन्नति कर देते हैं कि जीवन सफल हो जाता है और जन्ममरणरूप बन्धन सदा के लिये मिट जाता है। जब मनुष्य भूल से कोई निषिद्ध आचरण (पाप) कर बैठता है तब वे दुःखों को भेजकर उसको चेताते हैं , पुराने पापों को भुगताकर उसको शुद्ध करते हैं और नये पापों में प्रवृत्ति होने से रोकते हैं। जीव कहीं भी क्यों न हो – नरक में हो अथवा स्वर्ग में , मनुष्ययोनि में हो अथवा पशुयोनि में , भगवान उसको अपना ही अंश मानते हैं। यह उनकी कितनी अहैतु की कृपा , उदारता और महत्ता है । जीव के पतन को देखकर भगवान दुःखी होकर कहते हैं कि मेरे पास आने का उसका पूरा अधिकार था पर वह मेरे को प्राप्त किये बिना (माम् अप्राप्य) नरकों में जा रहा है (गीता 16। 20)। मनुष्य चाहे किसी भी स्थिति में क्यों न हो – भगवान उसे वहाँ स्थिर नहीं रहने देते , उसे अपनी ओर खींचते ही रहते हैं। जब हमारी सामान्य स्थिति में कुछ भी परिवर्तन (सुख-दुःख , आदर-निरादर आदि) हो तब यह मानना चाहिये कि भगवान हमें विशेषरूप से याद करके नयी परिस्थिति पैदा कर रहे हैं , हमें अपनी ओर खींच रहे हैं। ऐसा मानकर साधक प्रत्येक परिस्थिति में विशेष भगवत्कृपा को देखकर मस्त रहे और भगवान को कभी भूले नहीं। अंशी को प्राप्त करने में अंश को कठिनाई और देरी नहीं लगती। कठिनाई और देरी इसलिये लगती है कि अंश ने अपने अंशी से विमुखता मानकर उन शरीरादि को अपना मान रखा है जो अपने नहीं हैं। अतः भगवान के सम्मुख होते ही उनकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है। सम्मुख होना जीव का काम है क्योंकि जीव ही भगवान से विमुख हुआ है। भगवान तो जीव को अपना मानते ही हैं , जीव भगवान को अपना मान ले – यही सम्मुखता है। मनुष्य से यह ब़ड़ी भूल हो रही है कि जो व्यक्ति , वस्तु , परिस्थिति अभी नहीं है अथवा जिसका मिलना निश्चित भी नहीं है और जो मिलने पर भी सदा नहीं रहेगी – उसकी प्राप्ति में वह अपना पूर्ण पुरुषार्थ और उन्नति मानता है। यह मनुष्य का अपने साथ बड़ा भारी धोखा है । वास्तव में जो नित्यप्राप्त और अपना है उस परमात्मा को प्राप्त करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है , शूरवीरता है। हम धन , सम्पत्ति आदि सांसारिक पदार्थ कितने ही क्यों न प्राप्त कर लें पर अन्त में या तो वे नहीं रहेंगे अथवा हम नहीं रहेंगे। अन्त में ‘नहीं’ ही शेष रहेगा। वास्तव में जो सदा है उस (अविनाशी परमात्मा)को प्राप्त कर लेने में ही शूरवीरता है। जो नहीं है उसको प्राप्त करने में कोई शूरवीरता नहीं है। जीव जितना ही नाशवान पदार्थों को महत्त्व देता है उतना ही वह पतन की तरफ जाता है और जितना ही अविनाशी परमात्मा को महत्त्व देता है उतना ही वह ऊँचा उठता है। कारण कि जीव परमात्मा का ही अंश है।नाशवान सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करके मनुष्य कभी भी बड़ा नहीं हो सकता। केवल बड़े होने का वहम या धोखा हो जाता है और वास्तव में असली बड़प्पन (परमात्मप्राप्ति) से वञ्चित हो जाता है। नाशवान पदार्थों के कारण माना गया बड़प्पन कभी टिकता नहीं और परमात्मा के कारण होने वाला बड़प्पन कभी मिटता नहीं । इसलिये जीव जिसका अंश है उस सर्वोपरि परमात्मा को प्राप्त करने से ही वह बड़ा होता है। इतना बड़ा होता है कि देवतालोग भी उसका आदर करते हैं और कामना करते हैं कि वह हमारे लोक में आये। इतना ही नहीं स्वयं भगवान भी उसके अधीन हो जाते हैं – मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति – भगवान ने जिस प्रकार इसी श्लोक के पूर्वार्ध में जीव को अपने में स्थित न कहकर उसको अपना अंश बताया है उसी प्रकार श्लोक के उत्तरार्ध में मन तथा इन्द्रियों को प्रकृति का अंश न कहकर उनको प्रकृति में स्थित बताया है। तात्पर्य है कि भगवान का अंश जीव सदा भगवान में ही स्थित है और प्रकृति में स्थित मन तथा इन्द्रियाँ प्रकृति के ही अंश हैं। मन और इन्द्रियों को अपना मानना , उनसे अपना सम्बन्ध मानना ही उनको आकर्षित करना है। यहाँ बुद्धि का अन्तर्भाव ‘मन’ शब्द में (जो अन्तःकरणका उपलक्षण है) और पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच प्राणों का अन्तर्भाव ‘इन्द्रिय’ शब्द में मान लेना चाहिये। उपर्युक्त पदों में भगवान कहते हैं कि मेरा अंश जीव मेरे में स्थित रहता हुआ भी भूल से अपनी स्थिति शरीर , इन्द्रियों , मन , बुद्धि में मान लेता है। जैसे शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि प्रकृति का अंश होने से कभी प्रकृति से पृथक् नहीं होते – ऐसे ही जीव भी मेरा अंश होने से कभी मेरे से पृथक होता नहीं , हो सकता नहीं परन्तु यह जीव मेरे से विमुख होकर मुझे भूल गया है। यहाँ मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों का नाम लेने का तात्पर्य यह है कि इन छहों से सम्बन्ध जोड़कर ही जीव बँधता है। अतः साधक को चाहिये कि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को संसार के अर्पण कर दे अर्थात् संसार की सेवा में लगा दे और अपने आपको भगवान के अर्पण कर दे। विशेष बात -(1) मनुष्य भूल से शरीर , स्त्री , पुत्र , धन , मकान , मान , बड़ाई आदि नाशवान वस्तुओं को अपनी और अपने लिये मानकर दुःखी होता है। इससे भी नीची बात यह है कि इस सामग्री के भोग और संग्रह को लेकर वह अपने को बड़ा मानने लगता है जबकि वास्तव में इनको अपना मानते ही इनका गुलाम हो जाता है। हमें पता लगे या न लगे हम जिन पदार्थों की आवश्यकता समझते हैं , जिनमें कोई विशेषता या महत्त्व देखते हैं या जिनकी हम गरज रखते हैं वे (धन , विद्या आदि) पदार्थ हमसे बड़े और हम उनसे तुच्छ हो ही गये। पदार्थों के मिलने में जो अपना महत्त्व समझता है वह वास्तव में तुच्छ ही है चाहे उसे पदार्थ मिलें या न मिलें। भगवान का दास होने पर भगवान कहते हैं – मैं तो हूँ भगतन का दास , भगत मेरे मुकुटमणि परंतु जिनके हम दास बने हुए हैं वे धनादि जड पदार्थ कभी नहीं कहते – लोभी मेरे मुकुटमणि । वे तो केवल हमें अपना दास ही बनाते हैं। वास्तव में भगवान को अपना जानकर उनके शरण हो जाने से ही मनुष्य बड़ा बनता है , ऊँचा उठता है। इतना ही नहीं भगवान ऐसे भक्त को अपने से भी बड़ा मान लेते हैं और कहते हैं – अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः।।(श्रीमद्भा0 9। 4। 63) हे द्विज ! मैं भक्तों के पराधीन हूँ , स्वतन्त्र नहीं। भक्तजन मेरे को अत्यन्त प्यारे हैं। मेरे हृदय पर उनका पूर्ण अधिकार है। कोई भी सांसारिक व्यक्ति , पदार्थ क्या हमें इतनी बड़ाई दे सकता है ? यह जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी प्रकृति के अंश शरीरादि को अपना मानकर स्वयं अपना अपमान करता है और अपने को नीचे गिराता है। अगर मनुष्य इन शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि सांसारिक पदार्थों का दास न बने तो वह भगवान का भी इष्ट हो जाय – इष्टोऽसि मे दृढमिति (गीता 18। 64)। जिन्होंने भगवान को प्राप्त कर लिया है उनको भगवान अपना प्रिय कहते हैं (गीता 12। 13 — 19) परंतु जिन्होंने भगवान को प्राप्त नहीं किया है किंतु जो भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं उन साधकों को तो वे अपना अत्यन्त प्रिय कहते हैं – भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः (गीता 12। 20)। ऐसे परम दयालु भगवान को जो साधकों को अत्यन्त प्रिय और सिद्ध भक्तों को केवल प्रिय कहते हैं , मनुष्य अपना नहीं मानता – यह उसका कितना प्रमाद है , कितना पागलपन है (2) संसार का एक छोटा सा अंश शरीर है और परमात्मा का अंश स्वयं (जीवात्मा) है। भूल यह होती है कि परमात्मा का अंश संसार के अंश के साथ मिलकर संसार और परमात्मा – दोनों को अपने अनुकूल बनाना चाहता है । साधक का काम है – इस भूल को मिटाना। इसके लिये वह शरीर को तो संसार के अनुकूल बना दे और स्वयं परमात्मा के अनुकूल बन जाय। तात्पर्य है कि शरीर को संसार पर छोड़ दे कि जैसी संसार की मरजी हो वैसे रखे और अपने को परमात्मा पर छोड़ दे कि जैसी परमात्मा की मरजी हो वैसे रखे। संसार की चीज संसार को दे दे और परमात्मा की चीज परमात्मा को दे दे – यह ईमानदारी है। इस ईमानदारी का नाम ही मुक्ति है। जिसकी चीज है उसको न दे , संसार की चीज भी ले ले और परमात्मा की चीज भी ले ले – यह बेईमानी है। इस बेईमानी का नाम ही ‘बन्धन’ है। संसार की चीज संसार पर और परमात्मा की चीज परमात्मा पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाय। अपनी कोई कामना न रखे। न जीने की कामना रखे , न मरने की। भगवान ऐसा कर देते तो ठीक रहता , भगवान वर्षा कर देते तो ठीक रहता , गरमी ज्यादा पड़ रही है थोड़ी कम कर देते तो अच्छा था , बाढ़ आ गयी वर्षा कम करते तो ठीक रहता – इस तरह मनुष्य परमात्मा को भी अपने अनुकूल बनाना चाहता है और संसार को भी। इस बात को छोड़कर अपने आपको सर्वथा भगवान के अर्पित कर दे और भगवान से कह दे कि हे नाथ ! आप मेरे को पृथ्वी पर रखें या स्वर्ग में रखें अथवा नरकों में रखें , बालक रखें या जवान रखें अथवा बूढ़ा रखें , अपमानित रखें या सम्मानित रखें , सुखी रखें या दुःखी रखें – जैसी परिस्थिति में रखना चाहें वैसे रखें पर मैं आपको भूलूँ नहीं। मनुष्य जिस घर को अपना मानता है , जिस कुटुम्ब को अपना मानता है , जिन रुपयों को अपना मानता है , उनकी ही चिन्ता उसको होती है। संसार में लाखों-करोड़ों घर हैं , अरबों आदमी हैं , अनगिनत रुपये हैं पर उनकी चिन्ता नहीं होती क्योंकि उनको वह अपना नहीं मानता। जिनको अपना नहीं मानता उनसे तो मुक्त है ही। अतः ज्यादा मुक्ति तो हो चुकी है , थोड़ी सी ही मुक्ति बाकी है । विचार करना चाहिये कि जिन थोड़ी सी चीजों को हम अपनी मानते हैं वे कौन सी सदा साथ रहने वाली हैं । चीजें तो रहेंगी नहीं पर बन्धन (उनका सम्बन्ध) रह जायगा जो जन्म-जन्मान्तर तक साथ रहेगा। इसलिये साधक को चाहिये कि वह या तो शरीर को संसार के अर्पण कर दे जो कर्मयोग है , चाहे अपने को शरीरसंसार से सर्वथा अलग कर ले जो ज्ञानयोग है और चाहे अपने को भगवान के अर्पण कर दे जो भक्तियोग है। इन तीनों में से कोई भी साधन अपना ले – तीनों का फल एक ही होगा। मनसहित इन्द्रियों को अपना मानने के कारण जीव किस प्रकार उनको साथ लेकर अनेक योनियों में घूमता है – इसका भगवान दृष्टान्तसहित वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी