अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 07 – 11 ) इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्৷৷15.8৷৷
शरीरम्-शरीर; यत्-जैसे; अवाप्नोति–प्राप्त करता है; यत्-जैसे; च-और; अपि-भी; उत्क्रामति-छोड़ता है; ईश्वरः-भौतिक शरीर का स्वामी; गृहीत्वा-ग्रहण करके; एतानि–इन्हें; संयाति–चला जाता है; वायुः-वायुः गन्धान्–सुगंध; इव-सदृश; आशयात्-धारण करना।
जिस प्रकार से वायु सुगंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है उसी प्रकार से देहधारी आत्मा जब पुराने शरीर का त्याग करती है और नये शरीर में प्रवेश करती है उस समय वह अपने साथ मन और इन्द्रियों को भी ले जाती है अर्थात जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण कर के ले जाती है उसी प्रकार शरीर आदि का स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है ৷৷15.8৷৷
( शरीर का स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियों के कार्यों को संस्कार रूप में ग्रहण करके एक शरीर का त्याग करके दूसरे शरीर में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार वायु गन्ध को एक स्थान से ग्रहण करके दूसरे स्थान में ले जाती है।)
वायुर्गन्धानिवाशयात् – जिस प्रकार वायु इत्र के फोहे से गन्ध ले जाती है किन्तु वह गन्ध स्थायीरूप से वायु में नहीं रहती क्योंकि वायु और गन्ध का सम्बन्ध नित्य नहीं है । इसी प्रकार इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , स्वभाव आदि (सूक्ष्म और कारण – दोनों शरीरों) को अपना मानने के कारण जीवात्मा उनको साथ लेकर दूसरी योनि में जाता है। जैसे वायु तत्त्वतः गन्ध से निर्लिप्त है – ऐसे ही जीवात्मा भी तत्त्वतः मन , इन्द्रियाँ , शरीरादि से निर्लिप्त है परन्तु इन मन , इन्द्रियाँ , शरीरादि में मैं-मेरेपन की मान्यता होने के कारण वह (जीवात्मा) इनका आकर्षण करता है। जैसे वायु आकाश का कार्य होते हुए भी पृथ्वी के अंश गन्ध को साथ लिये घूमती है – ऐसे ही जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश होते हुए भी प्रकृति के कार्य (प्रतिक्षण बदलने वाले) शरीरों को साथ लिये भिन्न-भिन्न योनियों में घूमता है। जड होने के कारण वायु में यह विवेक नहीं है कि वह गन्ध को ग्रहण न करे परन्तु जीवात्मा को तो यह विवेक और सामर्थ्य मिला हुआ है कि वह जब चाहे तब शरीर से सम्बन्ध मिटा सकता है। भगवान ने मनुष्यमात्र को यह स्वतन्त्रता दे रखी है कि वह चाहे जिससे सम्बन्ध जोड़ सकता है और चाहे जिससे सम्बन्ध तोड़ सकता है। अपनी भूल मिटाने के लिये केवल अपनी मान्यता बदलने की आवश्यकता है कि प्रकृति के अंश इन स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीरों से मेरा ( जीवात्मा का ) कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर जन्म-मरण के बन्धन से सहज ही मुक्ति है।भगवान ने यहाँ तीन शब्द दृष्टान्त के रूप में दिये हैं – (1) वायु (2) गन्ध और (3) आशय। आशय कहते हैं स्थान को जैसे – जलाशय (जल-आशय) अर्थात् जल का स्थान। यहाँ आशय नाम स्थूलशरीर का है। जिस प्रकार गन्ध के स्थान (आशय) इत्र के फोहे से वायु गन्ध ले जाती है और फोहा पीछे पड़ा रहता है । इसी प्रकार वायुरूप जीवात्मा गन्धरूप सूक्ष्म और कारणशरीरों को साथ लेकर जाता है तब गन्ध का आशयरूप स्थूलशरीर पीछे रह जाता है। शरीरं यदवाप्नोति ৷৷. गृहीत्वैतानि संयाति – यहाँ ‘ईश्वरः’ पद जीवात्मा का वाचक है। इस जीवात्मा से तीन खास भूलें हो रही हैं (1) अपने को मन , बुद्धि , शरीरादि जड पदार्थों का स्वामी मानता है पर वास्तव में बन जाता है स्वयं उनका दास। (2) अपने को उन जड पदार्थों का स्वामी मान लेने के कारण अपने वास्तविक स्वामी परमात्मा को भूल जाता है। (3) जड पदार्थों से माने हुए सम्बन्ध का त्याग करने में स्वाधीन होने पर भी उनका त्याग नहीं करता। परमात्मा ने जीवात्मा को शरीरादि सामग्री का सदुपयोग करने की स्वाधीनता दी है। उनका सदुपयोग करके अपना उद्धार करने के लिये ये वस्तुएँ दी हैं । उनका स्वामी बनने के लिये नहीं परन्तु जीव से यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह उस सामग्री का सदुपयोग नहीं करता प्रत्युत अपने को उनका मालिक मान लेता है पर वास्तव में उनका गुलाम बन जाता है। जीवात्मा जड पदार्थों से माने हुए सम्बन्ध का त्याग तभी कर सकता है जब उसे यह मालूम हो जाय कि इनका मालिक बनने से मैं सर्वथा पराधीन हो गया हूँ और मेरा पतन हो गया है। यह जिनका मालिक बनता है उनकी गुलामी इसमें आ ही जाती है। इसे केवल वहम होता है कि मैं इनका मालिक हूँ। जड पदार्थों का मालिक बन जाने से एक तो इसे उन पदार्थों की कमी का अनुभव होता है और दूसरा यह अपने को अनाथ मान लेता है। जिसे मालिकपना या अधिकार प्यारा लगता है वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि जो किसी व्यक्ति , वस्तु , पद आदि का स्वामी बनता है वह अपने स्वामी को भूल जाता है – यह नियम है। उदाहरणार्थ जिस समय बालक केवल माँ को अपना मानकर उसे ही चाहता है उस समय वह माँ के बिना रह ही नहीं सकता किन्तु वही बालक जब बड़ा होकर गृहस्थ बन जाता है और अपने को स्त्री , पुत्र आदि का स्वामी मानने लगता है तब उसी माँ का पास रहना उसे सुहाता नहीं। यह स्वामी बनने का ही परिणाम है । इसी प्रकार यह जीवात्मा भी शरारीदि जड पदार्थों का स्वामी (ईश्वर) बनकर अपने वास्तविक स्वामी परमात्मा को भूल जाता है – उनसे विमुख हो जाता है। जब तक यह भूल या विमुखता रहेगी तब तक जीवात्मा दुःख पाता ही रहेगा। ‘ईश्वरः’ पद के साथ ‘अपि’ पद एक विशेष अर्थ रखता है कि यह ईश्वर बना जीवात्मा वायु के समान असमर्थ , जड और पराधीन नहीं है। इस जीवात्मा में ऐसी सामर्थ्य और विवेक है कि यह जब चाहे तब माने हुए सम्बन्ध को छोड़ सकता है और परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध का अनुभव कर सकता है परन्तु संयोगजन्य सुख की लोलुपता के कारण यह संसार से माने हुए सम्बन्ध को छोड़ता नहीं और छोड़ना चाहता भी नहीं। जडता (शरीरादि) से तादात्म्य छूटने पर जीवात्मा (गन्ध की तरह) शरीरों को साथ ले जा सकता ही नहीं। जीव को दो शक्तियाँ प्राप्त हैं – (1) ‘प्राणशक्ति’ जिससे श्वासों का आवागमन होता है और (2) ‘इच्छाशक्ति’ जिससे भोगों को पाने की इच्छा करता है। प्राणशक्ति हरदम (श्वासोच्छ्वास के द्वारा) क्षीण होती रहती है। प्राणशक्ति का खत्म होना ही मृत्यु कहलाती है। जड का संग करने से कुछ करने और पाने की इच्छा बनी रहती है। प्राणशक्ति के रहते हुए इच्छाशक्ति अर्थात् कुछ करने और पाने की इच्छा मिट जाय तो मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। प्राणशक्ति नष्ट हो जाय और इच्छाएँ बनी रहें तो दूसरा जन्म लेना ही पड़ता है। नया शरीर मिलने पर इच्छाशक्ति तो वही (पूर्वजन्म की) रहती है , प्राणशक्ति नयी मिल जाती है। प्राणशक्ति का व्यय इच्छाओं को मिटाने में होना चाहिये। निःस्वार्थभाव से सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहने से इच्छाएँ सुगमतापूर्वक मिट जाती हैं। यहाँ ‘गृहीत्वा’ पद का तात्पर्य है – जो अपने नहीं हैं उनसे राग , ममता , प्रियता करना। जिन मन , इन्द्रियों के साथ अपनापन करके जीवात्मा उनको साथ लिये फिरता है वे मन , इन्द्रियाँ कभी नहीं कहतीं कि हम तुम्हारी हैं और तुम हमारे हो। इन पर जीवात्मा का शासन भी चलता नहीं । जैसा चाहे वैसा रख सकता नहीं , परिवर्तन कर सकता नहीं फिर भी इनके साथ अपनापन रखता है जो कि भूल ही है। वास्तव में यह अपनेपन का (राग , ममतायुक्त) सम्बन्ध ही बाँधने वाला होता है। वस्तु हमें प्राप्त हो या न हो , बढ़िया हो या घटिया हो , हमारे काम में आये या न आये , दूर हो या पास हो यदि उस वस्तु को हम अपनी मानते हैं तो उससे हमारा सम्बन्ध बना हुआ ही है। अपनी तरफ से छोड़े बिना शरीरादि में ममता का सम्बन्ध मरने पर भी नहीं छूटता। इसलिये मृत शरीर की हड्डियों को गङ्गाजी में डालने से उस जीव की आगे गति होती है। इस माने हुए सम्बन्ध को छोड़ने में हम सर्वथा स्वतन्त्र तथा सबल हैं। यदि शरीर के रहते हुए ही हम उससे अपनापन हटा दें तो जीतेजी ही मुक्त हो जाएं । जो अपना नहीं है उसको अपना मानना और जो अपना है उसको अपना न मानना – यह बहुत ब़ड़ा दोष है जिसके कारण ही पारमार्थिक मार्ग में उन्नति नहीं होती। इस श्लोक में आया ‘एतानि’ पद सातवें श्लोक के ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि’ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन) का वाचक है। यहाँ ‘एतानि’ पद को सत्रह तत्त्वों के समुदायरूप सूक्ष्मशरीर एवं कारणशरीर (स्वभाव) का भी द्योतक मानना चाहिये। इस सबको ग्रहण करके जीवात्मा दूसरे शरीर में जाता है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों का त्याग करके नये वस्त्र धारण करता है – ऐसे ही जीवात्मा पुराने शरीर का त्याग करके नये शरीर को प्राप्त होता है (गीता 2। 22)। वास्तव में शुद्ध चेतन (आत्मा)का किसी शरीर को प्राप्त करना और उसका त्याग करके दूसरे शरीर में जाना हो नहीं सकता क्योंकि आत्मा अचल और समानरूप से सर्वत्र व्याप्त है (गीता 2। 17? 24)। शरीरों का ग्रहण और त्याग परिच्छिन्न (एकदेशीय) तत्त्व के द्वारा ही होना सम्भव है जबकि आत्मा कभी किसी भी देशकालादि में परिच्छिन्न नहीं हो सकता परन्तु जब यह आत्मा प्रकृति के कार्य शरीर से तादात्म्य कर लेता है अर्थात् प्रकृतिस्थ हो जाता है तब (स्थूल , सूक्ष्म और कारण – तीनों शरीरों में अपने को तथा अपने में तीनों शरीरों को धारण करने अर्थात् उनमें अपनापन करने से ) वह प्रकृति के कार्य शरीरों का ग्रहण-त्याग करने लगता है। तात्पर्य यह है कि शरीर को मैं और मेरा मान लेने कारण आत्मा सूक्ष्मशरीर के आने-जाने को अपना आना-जाना मान लेता है। जब प्रकृति के कार्य शरीर से तादात्म्य मिट जाता है अर्थात् स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर से आत्मा का माना हुआ सम्बन्ध नहीं रहता तब ये शरीर अपने कारणभूत समष्टि तत्त्वों में लीन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि पुनर्जन्म का मूल कारण जीव का शरीर से माना हुआ तादात्म्य ही है। अब भगवान सातवें श्लोक में आये हुए ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि’ पद का खुलासा करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी