कर्मयोग ~ अध्याय तीन
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुतस्तेन एव सः ॥3 .12॥
इष्टान्–वांछित; भोगान्–जीवन की आवश्यकताएं , जीवन निर्वाह ; हि-निश्चय ही; व:-तुम्हें; देवा:-स्वर्ग के देवता; दास्यन्ते – प्रदान करेंगे; यज्ञभाविता:-यज्ञ कर्म से प्रसन्न होकर; तैः-उनके द्वारा; दत्तान्–प्रदान की गई वस्तुएँ; अप्रदाय–अर्पित किए बिना; एभ्यः-इन्हें; यः-जो; भुङ्क्ते सेवन करता है; स्तेनः-चोर; एव–निश्चय ही; सः-वे।
तुम्हारे द्वारा सम्पन्न यज्ञों से तुष्ट और प्रसन्न होकर देवता( बिना मांगे ) ही इच्छित भोग एवं जीवन निर्वाह और कर्त्तव्य पालन के लिए वांछित आवश्यक वस्तुएँ और सामग्री प्रदान करते रहेंगे किन्तु जो उन देवताओं से प्राप्त भोगों और सामग्री को उनको अर्पित किए बिना या दूसरों की सेवा में लगाए बिना ( दूसरों में बांटे बिना ) स्वयं ही उपभोग करते हैं या केवल अपने ही शरीर और इन्द्रियों को तृप्त करते हैं , वे वास्तव में चोर ही हैं।।3.12।।
( “इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ” यहाँ भी ‘इष्टभोग’ शब्द का अर्थ इच्छित पदार्थ नहीं हो सकता। कारण कि पीछे के (11वें) श्लोक में परम कल्याण को प्राप्त होने की बात आयी है और उसके हेतु के लिये वह (12वाँ) श्लोक है। भोगों की इच्छा रहते परम कल्याण कभी हो ही नहीं सकता। अतः यहाँ ‘इष्ट ‘ शब्द ‘यज् ‘ धातु से निष्पन्न होने से तथा भोग (टिप्पणी प0 132.1) शब्द का अर्थ आवश्यक सामग्री होने से उपर्युक्त पदों का अर्थ होगा वे देवता तुम लोगों को यज्ञ (कर्तव्यकर्म) करने की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। यहाँ “यज्ञभाविताः देवाः ” पदों का तात्पर्य है कि देवता तो अपना अधिकार समझकर मनुष्यों को आवश्यक सामग्री प्रदान करते ही हैं केवल मनुष्यों को ही अपना कर्तव्य निभाना है। “तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते ” ब्रह्माजी ने देवताओं के लिये ‘ ते देवाः ‘ पदों का प्रयोग किया है क्योंकि उनके सामने मनुष्य थे देवता नहीं परन्तु यहाँ ” एभ्यः ” पद (जो इदम् शब्द से बनता है) का प्रयोग हुआ है जो समीपता का द्योतक है। भगवान के लिये सभी समीप ही हैं (गीता 7। 26)। इससे सिद्ध होता है कि अब यहाँ से भगवान के वचन आरम्भ होते हैं। यहाँ ‘भुङ्क्ते ‘ (टिप्पणी प0 132.2) पद का तात्पर्य केवल भोजन करने से ही नहीं है प्रत्युत शरीर-निर्वाह की समस्त आवश्यक सामग्री (भोजन , वस्त्र , धन , मकान आदि ) को अपने सुख के लिये काम में लाने से है। यह शरीर माता-पिता से मिला है और इसका पालन-पोषण भी उन्हीं के द्वारा हुआ है। विद्या गुरुजनों से मिली है। देवता सबको कर्तव्यकर्म की सामग्री देते हैं। ऋषि सबको ज्ञान देते हैं। पितर मनुष्य की सुख-सुविधा के उपाय बताते हैं। पशु-पक्षी , वृक्ष-लता आदि दूसरों के सुख में स्वयं को समर्पित कर देते हैं। ( यद्यपि पशु-पक्षी आदि को यह ज्ञान नहीं रहता कि हम परोपकार कर रहे हैं तथापि उनसे दूसरों का उपकार स्वतः होता रहता है ) इस प्रकार हमारे पास जो कुछ भी सामग्री , बल , योग्यता , पद , अधिकार , धन , सम्पत्ति आदि है वह सब की सब हमें दूसरों से ही मिली है। इसलिये इनको दूसरों की ही सेवा में लगाना है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि सभी पदार्थ हमें संसार से मिले हैं। ये कभी अपने नहीं हैं और अपने होंगे भी नहीं। अतः इनको अपना और अपने लिये मानकर इनसे सुख भोगना ही बन्धन है। इस बन्धन से छूटने का यही सरल उपाय है कि जिनसे ये पदार्थ हमें मिले हैं इन्हें उन्हीं का मानते हुए उन्हीं की सेवा में निष्कामभावपूर्वक लगा दें। यही हमारा परम कर्तव्य है।साधकों के मन में प्रायः ऐसी भावना पैदा हो जाती है कि अगर हम संसार की सेवा करेंगे तो उसमें हमारी आसक्ति हो जायगी और हम संसार में फँस जायँगे परन्तु भगवान के वचनों से यह सिद्ध होता है कि फँसने का कारण सेवा नहीं है प्रत्युत अपने लिये कुछ भी लेने का भाव ही है। इसलिये लेने का भाव छोड़कर देवताओं की तरह दूसरों को सुख पहुँचाना ही मनुष्यमात्र का परम कर्तव्य है। कर्मयोग के सिद्धान्त में प्राप्त सामग्री , सामर्थ्य , समय तथा समझदारी का सदुपयोग करने का ही विधान है। प्राप्त सामग्री आदि से अधिक की (नयी-नयी सामग्री आदि की) कामना करना कर्मयोग के सिद्धान्त के विरुद्ध है। अतः प्राप्त सामग्री आदि को ही दूसरों के हित में लगाना है। अधिक की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। युक्तिसंगत बात है कि जिसमें जितनी शक्ति होती है उससे उतनी ही आशा की जाती है फिर भगवान् अथवा देवता उससे अधिक की आशा कैसे कर सकते हैं ? “स्तेन एव सः यहाँ सः स्तेनः” पदों में एकवचन देने का तात्पर्य यह है कि अपने कर्तव्य का पालन न करने वाला मनुष्य सबको प्राप्त होने वाली सामग्री (अन्न , जल , वस्त्र आदि ) का भाग दूसरों को दिये बिना ही अकेला स्वयं ले लेता है। अतः वह चोर ही है। जो मनुष्य दूसरों को उनका भाग न देकर स्वयं अकेले ही भोग करता है वह तो चोर है ही पर जो मनुष्य किसी भी अंश में अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है अर्थात् सामग्री को सेवा में लगाकर बदले में मान-बड़ाई आदि चाहता है वह भी उतने अंश में चोर ही है। ऐसे मनुष्य का अन्तःकरण कभी शुद्ध और शान्त नहीं रह सकता। यह व्यष्टि-शरीर किसी भी प्रकार से समष्टि-संसार से अलग नहीं है और अलग हो सकता भी नहीं क्योंकि समष्टि का अंश ही व्यष्टि कहलाता है। इसलिये व्यष्टि (शरीर) को अपना मानना और समष्टि (संसार) को अपना न मानना ही राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों का कारण है एवं यही अहंकार , व्यक्तित्व अथवा विषमता है (टिप्पणी प0 133)। कर्मयोग के अनुष्ठान से ये सब (राग-द्वेष आदि ) सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं। कारण कि कर्मयोगी का यह भाव रहता है कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ वह सब अपने लिये नहीं प्रत्युत संसारमात्र के लिये कर रहा हूँ। इसमें भी एक बड़ी मार्मिक बात यह है कि कर्मयोगी अपने कल्याण के लिये भी कोई कर्म न कर के संसारमात्र के कल्याण के उद्देश्य से ही सब कर्म करता है। कारण कि सबके कल्याण से अपना कल्याण अलग मानना भी व्यक्तित्व और विषमता को जन्म देना है जो साधक की उन्नति में बाधक है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि जो कुछ भी हमारे पास है वह सब का सब हमें संसार से मिला है। संसार से मिली वस्तु को केवल अपनी स्वार्थसिद्धि में लगाना ईमानदारी नहीं है। कर्तव्यसम्बन्धी विशेष बात- हिन्दू संस्कृति का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य का कल्याण करना है। इसी उद्देश्य से ब्रह्माजी (सृष्टि के आदि में) मनुष्य को निःस्वार्थ भाव से अपने-अपने कर्तव्य के द्वारा एक- दूसरेको सुख पहुँचाने की आज्ञा देते हैं (गीता 3। 10)। परिवार में भाई , बहनें , माताएँ आदि सब के सब कर्म करते ही हैं परन्तु उनसे बड़ी भारी भूल यह होती है कि वे कामना , ममता , आसक्ति , स्वार्थ आदि के वशीभूत होकर कर्म करते हैं। अतः लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही लाभ उन्हें नहीं होते प्रत्युत हानि ही होती है। स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने लिये कर्म करने से ही लोक में लड़ाई , खटपट , ईर्ष्या आदि होते हैं और परलोक में दुर्गति होती है। दूसरों की सेवा करके बदले में कुछ भी चाहने से वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ मनुष्य का सम्बन्ध जुड़ जाता है। किसी भी कर्म के साथ स्वार्थ का सम्बन्ध जोड़ लेने से वह कर्म तुच्छ और बन्धनकारक हो जाता है। स्वार्थी मनुष्य को संसार में कोई अच्छा नहीं कहता। चाहने वाले को कोई अधिक देना नहीं चाहता। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि घर में भी रागी तथा भोगी व्यक्ति से वस्तुएँ छिपायी जाती हैं। इसके विपरीत हमारे पास जितनी समझ , समय , सामर्थ्य और सामग्री है उतने से ही हम दूसरों की सेवा करें तो उससे कल्याण तो होता ही है इसके सिवाय वस्तु , आराम , मान , बड़ाई , आदर , सत्कार आदि न चाहने पर भी प्राप्त होने लगते हैं परन्तु कर्मयोगी में मानबड़ाई आदि की इच्छा नहीं होती क्योंकि इनकी इच्छा और सुखभोग ही बन्धनकारक होता है। मुझे सुख कैसे मिले केवल इसी चाहना के कारण मनुष्य कर्तव्यच्युत और पतित हो जाता है। अतः दूसरों को सुख कैसे मिले ऐसा भाव कर्मयोगी को सदा ही रखना चाहिये। घर में माता-पिता , भाई-बहन , स्त्री-पुत्र आदि जितने व्यक्ति हैं उन सभी को एक-दूसरे के हित की बात सोचनी चाहिये। प्रायः सेवा करने वाले से एक भूल हो जाती है कि वह मैं सेवा करता हूँ मैं वस्तुएँ देता हूँ ऐसा मानकर झूठा अभिमान कर बैठता है। वस्तुतः सेवा करने वाला व्यक्ति सेव्य की वस्तु ही सेव्य को देता है। जैसे माँ का दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चे के लिये ही है । ऐसे ही मनुष्य के पास जितनी भी सामग्री है वह उसके अपने लिये न होकर दूसरों के लिये ही है। अतः मनुष्य को प्राप्त सामग्री में ममता करने अर्थात् उसे अपनी और अपने लिये मानने का अधिकार नहीं है। ममता करने पर भी प्राप्त सामग्री तो सदा रहेगी नहीं केवल ममतारूप बन्धन रह जायगा। इसी कारण भगवान् कहते हैं कि वस्तुओं को अपनी मानकर स्वयं उसका भोग करने वाला मनुष्य चोर ही है। देवता , ऋषि पितर , पशु , पक्षी , वृक्ष , लता आदि सभी का स्वभाव ही परोपकार करने का है। मनुष्य सदा इनसे सहयोग पाने के कारण इनका ऋणी है। इस ऋण से मुक्त होने के लिये ही पञ्चमहायज्ञ (ऋषियज्ञ , देवयज्ञ , भूतयज्ञ , पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ ) का विधान है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो बुद्धिपूर्वक सभी को अपने कर्तव्यकर्मों से तृप्त कर सकता है। अतः सबसे ज्यादा जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है। इसी को ऐसी स्वतन्त्रता मिली है जिसका सदुपयोग करके यह परम श्रेय की प्राप्ति कर सकता है। देवता आदि तो अपने कर्तव्य का पालन करते ही हैं। यदि मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता तो देवताओं में ही नहीं बल्कि त्रिलोकी भर में हलचल उत्पन्न हो जाती है और परिणामस्वरूप अतिवृष्टि , अनावृष्टि , भूकम्प , दुर्भिक्ष आदि प्राकृतिक प्रकोप होने लगते हैं। भगवान् भी (गीता 3। 2324 में) कहते हैं कि यदि मैं सावधानीपूर्वक कर्तव्य का पालन न करूँ तो समस्त लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ। जिस तरह गतिशील बैलगाड़ी का कोई एक पहिया भी खण्डित हो जाय तो उससे पूरी बैलगाड़ी को झटका लगता है इसी तरह गतिशील सृष्टिचक्र में यदि एक व्यक्ति भी कर्तव्यच्युत होता है तो उसका विपरीत प्रभाव सम्पूर्ण सृष्टि पर पड़ता है। इसके विपरीत जैसे शरीर का एक भी पीड़ित (रोगी) अङ्ग ठीक होने पर सम्पूर्ण शरीर का स्वतः हित होता है ऐसे ही अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करने वाले मनुष्य के द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि का स्वतः हित होता है। प्रजापति ब्रह्माजी ने देवता और मनुष्य दोनों को अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने की आज्ञा दी है। देवता आदि सब मर्यादा से चलते हैं। केवल मनुष्य ही अपनी बेसमझी से मर्यादा को भंग करता है। कारण कि उसे दूसरोंकी सेवा करने के लिये जो सामग्री मिली है उसपर वह अपना अधिकार समझ बैठता है। अनन्त जन्मों के कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिये मनुष्य को स्वतन्त्रता मिली है किन्तु वह उसका सदुपयोग करके कर्म और कर्मफल में ममता-आसक्ति कर बैठता है। फलस्वरूप नया बन्धन उत्पन्न करके वह स्वयं फँस जाता है और आगे अनेक जन्मों तक दुःख पाने की तैयारी कर लेता है। अतः मनुष्य को चाहिये कि उसे जो कुछ सामग्री मिली है उससे वह त्रिलोकी की सेवा करे अर्थात् उस सामग्री को वह भगवान , देवता , ऋषि , पितर , मनुष्य आदि समस्त प्राणियों की सेवा में लगा दे। शङ्का- जो कुछ सामग्री प्राप्त हुई है वह सब की सब दूसरों की सेवा में लगा देने पर कर्मयोगी की जीवन-निर्वाह कैसे हो सकेगा ? समाधान – वास्तव में यह शंका शरीर के साथ अपनी एकता मानने से अर्थात शरीर को ही अपना स्वरूप मानने से पैदा होती है परन्तु कर्मयोगी शरीर से अपना कोई सम्बन्ध मानता ही नहीं प्रत्युत उसे संसार का और संसार के लिये ही मानकर उसी की सेवा में लगा देता है। उसकी दृष्टि अविनाशी स्वरूप पर रहती है नाशवान शरीर पर नहीं। जिसकी दृष्टि शरीर पर रहती है वही ऐसी शंका कर सकता है कि कर्मयोगी का जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? जब तक भोग की इच्छा रहती है तभी तक जीने की इच्छा तथा मरने का भय रहता है। भोगेच्छा कर्मयोगी में रहती ही नहीं क्योंकि उसके सम्पूर्ण कर्म अपने लिये न होकर दूसरों की सेवा के लिये ही होते हैं। अतः कर्मयोगी अपने जीने की परवाह नहीं करता। उसके मन में यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मेरा जीवन-निर्वाह कैसे होगा । वास्तव में जिसके हृदय में जगत की आवश्यकता नहीं रहती उसकी आवश्यकता जगत को रहती है। इसलिये जगत् उसके निर्वाह का स्वतः प्रबन्ध करता है। जिनका जीवन परोपकार के लिये ही समर्पित है ऐसे पशु-पक्षी , कीट-पतंग , वृक्ष-लता आदि सभी साधारण प्राणियों के भी जीवन-निर्वाह का जब प्रबन्ध है तब शरीर सहित मिली हुई सब सामग्री को प्राणियों के हित में व्यय करने वाले मनुष्य के जीवननिर्वाह का प्रबन्ध न हो यह कैसे सम्भव है ? सबका पालन करने वाले भगवान की असीम कृपा से जीवन-निर्वाह की सामग्री समस्त प्राणियों को समान रूप से मिली हुई है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सबके सामने है। माता के शरीर में जहाँ रक्त ही रक्त रहता है वहाँ भी बच्चे के जीवन-निर्वाह के लिये मीठा और पुष्टिकर दूध स्वतः पैदा हो जाता है। अतः चाहे प्रारब्ध से मानो चाहे भगवत्कृपा से मनुष्य के जीवन-निर्वाह की सामग्री उसको मिलती ही है। इसमें संदेह , चिन्ता , शोक एवं विचार होना ही नहीं चाहिये। भगवान के राज्य में जब पापी से पापी एवं नास्तिक से नास्तिक पुरुष का भी जीवन-निर्वाह होता है तब कर्मयोगी के जीवन-निर्वाह में क्या बाधा आ सकती है ? अतः यह प्रश्न उठाना ही भूल है। सम्बन्ध – नवें श्लोक में भगवान ने यज्ञ के लिये किये जाने वाले कर्म बाँधने वाले नहीं होते ऐसा बताकर यज्ञ के लिये कर्म करने की आज्ञा दी। उस आज्ञा को ब्रह्माजी के वचनों द्वारा पुष्ट करके नवें श्लोक में कहे हुए अपने वचनों से एकवाक्यता करते हुए आगे के श्लोक में यज्ञ (कर्तव्यकर्म) करने और न करने के फल का स्पष्ट विवेचन करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )