Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता

 

Karm Yog chapter 3 Bhagavad Gita

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥3 .21॥

 

यत्-यत्-जो-जो; आचरित-करता है; श्रेष्ठ:-उत्तम; तत्-वही; तत्-केवल वही; एव–निश्चय ही; इतरः-सामान्य; जनः-व्यक्ति; सः-वह; यत्-जो कुछ; प्रमाणम्-आदर्श; कुरुते-करता है; लोकः-संसार; तत्-उसके; अनुवर्तते–अनुसरण करता है।

 

श्रेष्ठ पुरुष ( महापुरुष  ) जो-जो आचरण या  कर्म  करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण या कर्म करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण या आदर्श प्रस्तुत करता है, समस्त संसार ( सामान्य मनुष्य- जन समुदाय ) उसी के अनुसार बरतने लग जाता है अर्थात उसी का अनुसरण करने लगता है।।3.21।।

 

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः” श्रेष्ठ पुरुष वही है जो संसार (शरीरादि पदार्थों) को और स्वयं (अपने स्वरूप ) को तत्त्व से जानता है। उसका यह स्वाभाविक अनुभव होता है कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि ,धन , कुटुम्ब , जमीन आदि पदार्थ संसार के हैं अपने नहीं। इतना ही नहीं वह श्रेष्ठ पुरुष त्याग , वैराग्य , प्रेम , ज्ञान , सद्गुण , आदि को भी अपना नहीं मानता क्योंकि उन्हें भी अपना मानने से व्यक्तित्व पुष्ट होता है जो तत्त्वप्राप्ति में बाधक है। मैं त्यागी हूँ , मैं वैरागी हूँ , मैं सेवक हूँ , मैं भक्त हूँ आदि भाव भी व्यक्तित्व को पुष्ट करने वाले होने के कारण तत्त्वप्राप्ति में बाधक होते हैं। श्रेष्ठ पुरुष में (जडता के सम्बन्ध से होने वाला) व्यष्टि अहंकार तो होता ही नहीं और समष्टि अहंकार व्यवहारमात्र के लिये होता है जो संसार की सेवा में लगा रहता है क्योंकि अहंकार भी संसार का ही है (गीता 7। 4 13। 5)। संसार से मिले हुए शरीर , धन , परिवार , पद , योग्यता , अधिकार आदि सब पदार्थ सदुपयोग करने अर्थात् दूसरों की सेवा में लगाने के लिये ही मिले हैं उपभोग करने अथवा अपना अधिकार जमाने के लिये नहीं। जो इन्हें अपना और अपने लिये मानकर इनका उपभोग करता है उसको भगवान चोर कहते हैं “यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः” (गीता 3। 12)। ये सब पदार्थ समष्टि के ही हैं व्यष्टि के कभी किसी प्रकार नहीं। वास्तव में इन पदार्थों से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। श्रेष्ठ पुरुष के अपने कहलाने वाले शरीरादि पदार्थ (संसार के होने से) स्वतःस्वाभाविक संसार की सेवा में लगते हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के हित में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। देने के भाव से समाज में एकता , प्रेम उत्पन्न होता है और लेने के भाव से संघर्ष उत्पन्न होता है। देने का भाव उद्धार करने वाला और लेने का भाव पतन करने वाला होता है। शरीर को मैं , मेरा अथवा मेरे लिये मानने से ही लेने का भाव उत्पन्न होता है। शरीर से अपना कोई सम्बन्ध न मानने के कारण श्रेष्ठ पुरुष में लेने का भाव किञ्चिन्मात्र भी नहीं होता। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरों का हित करने वाली ही होती है। ऐसे श्रेष्ठ पुरुष के दर्शन , स्पर्श , वार्तालाप , चिन्तन आदि से स्वतः लोगों का हित होता है। इतना ही नहीं उसके शरीर को स्पर्श करके बहने वाली वायु तक से लोगों का हित होता है। ऐसे श्रेष्ठ पुरुष दो प्रकार के होते हैं (1) अवधूत कोटि के ओर (2) आचार्य कोटि के। अवधूत कोटि के श्रेष्ठ पुरुष अवधूतों के लिये ही आदर्श होते हैं साधारण जनता के लिये नहीं परन्तु आचार्य कोटि के श्रेष्ठ पुरुष मनुष्यमात्र के लिये आदर्श होते हैं। यहाँ आचार्य कोटि के श्रेष्ठ पुरुषों का वर्णन किया गया है जिनके आचरण सदा शास्त्रमर्यादा के अनुकूल ही होते हैं। कोई देखे या न देखे अहंता-ममता न रहने के कारण उनके द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्य का पालन होता है। जैसे जंगल में कोई पुष्प खिला और कुछ समय के बाद मुरझा गया और सूखकर गिर गया। उसे किसी ने देखा नहीं फिर भी उसने (चारों ओर) अपनी सुगन्ध फैलाकर दुर्गन्ध का नाश किया ही है। इसी तरह श्रेष्ठ पुरुष से (परहित का असीम भाव होने के कारण) संसारमात्र का स्वाभाविक ही बहुत उपकार हुआ करता है चाहे कोई समझे या न समझे। कारण यह है कि व्यक्तित्व (अहंता-ममता) मिट जाने के कारण भगवान की उस पालन शक्ति के साथ उसकी एकता हो जाती है जिसके द्वारा संसारमात्र का हित हो रहा है। जैसे एक ही शरीर के सब अङ्ग भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही हैं (जैसे किसी भी अङ्ग में पीड़ा होने पर मनुष्य उसे अपनी पीड़ा मानता है) ऐसे ही संसार के सब प्राणी भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही हैं। जैसे शरीर का कोई भी पीड़ित (रोगी ) अङ्ग ठीक हो जाने पर सम्पूर्ण शरीर का हित होता है ऐसे ही मर्यादा में रहकर प्राप्त वस्तु समय , परिस्थिति आदि के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करने वाले मनुष्य के द्वारा सम्पूर्ण संसार का स्वतः हित होता है। श्रेष्ठ पुरुष के आचरणों और वचनों का प्रभाव (स्थूलशरीर से होने के कारण) स्थूलरीति से पड़ता है जो सीमित होता है परन्तु उसके भावों का प्रभाव सूक्ष्मरीति से पड़ता है जो असीम होता है। कारण यह है कि क्रिया तो सीमित होती है पर भाव असीम होता है। श्रेष्ठ पुरुष जिन भावों को अपने आचरणों में लाता है उन भावों का दूसरे मनुष्यों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अपने वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि के आचरणों का अच्छी तरह से पालन करने के कारण उसके द्वारा कहे हुए वचनों का दूसरे वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि के लोगों पर भी बहुत प्रभाव पड़ता है। यद्यपि श्रेष्ठ मनुष्य अपने लिये कोई आचरण नहीं करता और उसमें कर्तृत्वाभिमान भी नहीं होता तथापि लोगों की दृष्टि में वह आचरण करता हुआ दिखने के कारण यहाँ आचरति क्रिया का प्रयोग हुआ है। उसके द्वारा सबके उपकार के लिये स्वतः स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं। अपना कोई स्वार्थ न रहने के कारण उसकी छोटी-बड़ी प्रत्येक क्रिया लोगों का स्वतः हित करने वाली होती है। यद्यपि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है “तस्य कार्यं न विद्यते ” (गीता 3। 17) और उसमें करने का अभिमान भी नहीं है “निर्ममो निरहंकारः” (गीता 2। 71) तथापि उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक सुचारु रूप से कर्तव्य का पालन होता है। इस प्रकार उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक लोगसंग्रह होता है। प्रायः देखा जाता है कि जिस समाज , सम्प्रदाय , जाति , वर्ण , आश्रम आदि में जो श्रेष्ठ मनुष्य कहलाते हैं और जिनको लोग श्रेष्ठ मानकर आदर की दृष्टि से देखते हैं वे जैसा आचरण करते हैं उस समाज , सम्प्रदाय , जाति आदि के लोग भी वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं। अन्तःकरण में धन और पद का महत्त्व एवं लोभ रहने के कारण लोग अधिक धनवाले ( लखपति , करोड़पति) तथा ऊँचे पदवाले (नेता , मन्त्री आदि) पुरुषों को श्रेष्ठ मान लेते हैं और उन्हें बहुत आदर की दृष्टि से देखते हैं। जिनके अन्तःकरण में जड वस्तुओं (धन , पद आदि) का महत्त्व है वे मनुष्य वास्तव में न तो स्वयं श्रेष्ठ होते हैं और न श्रेष्ठ व्यक्ति को समझ ही सकते हैं। जिसको वे श्रेष्ठ समझते हैं वह भी वास्तव में श्रेष्ठ नहीं होता। यदि उनके हृदय में धन का अधिक आदर है तो उन पर अधिक धनवालों का ही प्रभाव पड़ता है जैसे चोर पर चोरों के सरदार का ही प्रभाव पड़ता है। वास्तव में श्रेष्ठ न होने पर भी लोगों के द्वारा श्रेष्ठ मान लिये जाने के कारण उन धनी तथा उच्च पदाधिकारी पुरुषों के आचरणों का समाज में स्वतः प्रचार हो जाता है। जैसे धन के कारण जो श्रेष्ठ माने जाते हैं वे पुरुष जिन-जिन उपायों से धन कमाते और जमा करते हैं उन-उन उपायों का लोगों में स्तवः प्रचार हो जाता है चाहे वे उपाय कितने ही गुप्त क्यों न हों । यही कारण है कि वर्तमान में झूठ , कपट , बेईमानी , धोखा , चोरी आदि बुराइयों का समाज में किसी पाठशाला में पढ़ाये बिना ही स्वतः प्रचार होता चला जा रहा है। यह दुःख और आश्चर्य की बात है कि वर्तमान में लोग लखपति को श्रेष्ठ मान लेते हैं पर प्रतिदिन भगवन्नाम का लाख जप करने वाले को श्रेष्ठ नहीं मानते। वे यह विचार ही नहीं करते कि लखपति के मरने पर एक कौड़ी भी साथ नहीं जायगी जबकि भगवन्नाम का जप करने वाले के मरनेप र पूरा का पूरा भगवन्नामरूप धन उसके साथ जायगा । एक भी भगवान्नाम पीछे नहीं रहेगा । अपने-अपने स्थान या क्षेत्र में जो पुरुष मुख्य कहलाते हैं उन अध्यापक , व्याख्यानदाता , आचार्य  , गुरु , नेता , शासक महन्त , कथावाचक , पुजारी आदि सभी को अपने आचरणों में विशेष सावधानी रखने की बड़ी भारी आवश्यकता है जिससे दूसरों पर उनका अच्छा प्रभाव पड़े। इसी प्रकार परिवार के मुख्य व्यक्ति (मुखिया) को भी अपने आचरणों में पूरी सावधानी रखने की आवश्यकता है। कारण कि मुख्य व्यक्ति की ओर सबकी दृष्टि रहती है। रेलगाड़ी के चालक के समान मुख्य व्यक्ति पर विशेष जिम्मेवारी रहती है। रेलगाड़ी में बैठे अन्य व्यक्ति सोये भी रह सकते हैं पर चालक को सदा जाग्रत् रहना पड़ता है। उसकी थोड़ी भी असावधानी से दुर्घटना हो जाने की सम्भावना रहती है। इसलिये संसार में अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ माने जाने वाले सभी पुरूषों को अपने आचरणों पर विशेष ध्यान रखने की बहुत आवश्यकता है। “स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ” जिसके अन्तःकरण में कामना , ममता , आसक्ति स्वार्थ पक्षपात आदि दोष नहीं हैं और नाशवान् पदार्थों का महत्त्व या कुछ भी लेने का भाव नहीं है ऐसे मनुष्य के द्वारा कहे हुए वचनों का प्रभाव दूसरों पर स्वतः पड़ता है और वे उसके वचनानुसार स्वयं आचरण करने भी लग जाते हैं। यहाँ यह शंका हो सकती है कि जब आचरण की बात कह दी तब प्रमाण के कहने की क्या आवश्यकता है और प्रमाण की बात कहने पर आचरण के कहने की क्या आवश्यकता है इसका समाधान यह है कि यद्यपि आचरण मुख्य होता है तथापि एक ही मनुष्य के द्वारा सभी वर्णों , आश्रमों , सम्प्रदायों आदि के भावों का आचरण करना सम्भव नहीं है। अतः श्रेष्ठ मनुष्य स्वयं जिस वर्ण , आश्रम आदि में है उसके अनुसार तो वह साङ्गोपाङ्ग आचरण करता ही है और अन्य वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि के लोगों के लिये भी वह अपने वचनों से शास्त्र , इतिहास आदि के प्रमाण से यह शिक्षा देता है कि अपने लिये कुछ न करके सम्पूर्ण प्राणियों के हित के भाव से अपने-अपने (वर्ण , आश्रम ,सम्प्रदाय आदि के अनुसार) कर्तव्य का पालन करना कल्याण का सुगम और श्रेष्ठ साधन है (गीता 18। 45)। उसके वचनों से प्रभावित होकर दूसरे वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि के लोग उसके कहे अनुसार अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करने लग जाते हैं। इसीलिये भगवान ने 20वें श्लोक में लोकसंग्रह के लिये अपने कर्तव्यकर्मों का पालन करने पर ही विशेष रूप से जोर दिया है। यदि श्रेष्ठ मनुष्य स्वयं अपने वर्ण , आश्रम आदि के अनुसार आचरण न करके केवल प्रमाण दे तो उसका लोगों पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। उसमें लोगों का ऐसा भाव हो सकता है कि ये बातें तो केवल कहने-सुनने की हैं क्योंकि कहने वाला स्वयं भी तो अपने कर्तव्यकर्म का पालन नहीं कर रहा है। ऐसा भाव होने पर लोगों में अपने कर्तव्य के प्रति अश्रद्धा और अरुचि होने की सम्भावना रहती है। इसलिये श्रेष्ठ पुरुष स्वयं आचरण करके और प्रमाण देकर दोनों ही प्रकार से लोगों को अपने-अपने कर्तव्यपालन में लगाकर उनका हित करता है। श्रेष्ठ पुरुष के आचरणों का अनुवर्तन (अनुसरण) वे ही लोग करते हैं जो उसे श्रेष्ठ मानते हैं। अतः वास्तव में श्रेष्ठ होने पर भी अगर कोई मनुष्य उसे श्रेष्ठ नहीं मानता तो वह उस श्रेष्ठ पुरुष के आचरणों और वचनों के अनुसार आचरण नहीं कर सकेगा। वर्तमान में पारमार्थिक (भगवत्सम्बन्धी) भावों का प्रचार करन वाले बहुत से पुरुषों के होने पर भी लोगों पर उन भावों का प्रभाव बहुत कम दिखायी देता है। इसका कराण यही है कि प्रायः वक्ता जैसा कहता है वैसा स्वयं पूरा आचरण नहीं करता। स्वयं आचरण करके कही गयी बात गोली से भरी बन्दूक के समान है जो गोली के छूटने पर आवाज के साथ-साथ मार भी करती है। इसके विपरीत आचरण में लाये बिना कही गयी बात केवल बारूद से भरी बन्दूक के समान है जो केवल आवाज करके ही शान्त हो जाती है। हाँ , पारमार्थिक बातें ऐसे ही खत्म नहीं हो जातीं बल्कि कुछ न कुछ प्रभाव डालती ही हैं। भगवत चर्चा  , कथाकीर्तन आदि का कुछ न कुछ प्रभाव सब पर पड़ता ही है। अगर सुनने वालों में श्रद्धा है और वे साधन करते हैं अथवा करना चाहते हैं तो उन पर (अपनी श्रद्धा और साधन की रुचि के कारण) वचनों का प्रभाव अधिक पड़ता है।अब भगवान आगे के तीन श्लोकों में अपना उदाहरण देकर लोकसंग्रह की पुष्टि करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी 

 

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