बिरछा कबहुं न फल भखै, नदी न अंचवै नीर।
परमारथ के कारने, साधू धरा शरीर।।
वृक्ष अपने फल को स्वयं नहीं खाते। नदी अपना जल कभी नहीं पीती। ये सदैव दूसरों की सेवा करके प्रसन्न रहते हैं उसी प्रकार संतों का जीवन परमार्थ के लिए होता है अर्थात् दूसरों का कल्याण करने के लिए शरीर धारण किया है।