Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 15

 

 

Previous        Menu          Next

 

 

अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग

पुरुषोत्तमयोग-  पंद्रहवाँ अध्याय

 

( 07 – 11 )   इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता

 

 

SHrimad Bhagavad Geeta Chapter 15उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌ ।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः৷৷15.10৷৷

 

 

उत्क्रामन्तम्-प्रस्थान करते हुए; स्थितम्–शरीर में रहते हुए; वा-अपि-अथवा; भुजजानम्-भोग करते हुए; वा–अथवा; गुण-अन्वितम्-प्रकृति के गुणों के अधीन; विमूढाः-अज्ञानी; न – कभी नहीं; अनुपश्यन्ति-जान सकते हैं; पश्यन्ति-देख सकते हैं; ज्ञानचक्षुषः-ज्ञान चक्षुओं से सम्पन्न।

 

 

अज्ञानीजन इस शरीर में स्थित आत्मा का अनुभव नहीं कर पाते जबकि यह शरीर में ही रहती है , इन्द्रिय विषयों का भोग करती है ; न ही उन्हें इसके शरीर से प्रस्थान करने का बोध होता है लेकिन वे मनुष्य जिनके नेत्र ज्ञान से युक्त होते हैं वे ही इसे ऐसा करते देख सकते हैं अर्थात जीवात्मा किस प्रकार शरीर में स्थित रहती है, किस प्रकार प्रकृति के गुणों के अधीन होकर विषयों का भोग करती है और किस प्रकार इस शरीर का त्याग कर सकती है; मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रिया को नहीं देख पाते हैं। केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो गयी हैं ৷৷15.10৷৷

( मूढ़ जन शरीर को छोड़कर जाते हुए या शरीर का त्याग करते हुए , शरीर में स्थित या रहते हुए , विषयों का भोग करते हुए गुणों से युक्त इस जीवात्मा के स्वरूप को नहीं जान पाते, केवल ज्ञानरूपी नेत्रों या ज्ञान चक्षु वाले ज्ञानी मनुष्य ही उसे जान सकते हैं।)

 

उत्क्रामन्तम् – स्थूलशरीर को छोड़ते समय जीव सूक्ष्म और कारणशरीर को साथ लेकर प्रस्थान करता है। इसी क्रिया को यहाँ ‘उत्क्रामन्तम्’ पद से कहा है। जब तक हृदय में धड़कन रहती है तब तक जीव का प्रस्थान नहीं माना जाता। हृदय की धड़कन बंद हो जाने के बाद भी जीव कुछ समय तक रह सकता है। वास्तव में अचल होने से शुद्ध चेतनतत्त्व का आवागमन नहीं होता। प्राणों का ही आवागमन होता है परन्तु सूक्ष्म और कारणशरीर से सम्बन्ध रहने के कारण जीव का आवागमन कहा जाता है। आठवें श्लोक में ईश्वर बने जीवात्मा के विषय में आये ‘उत्क्रामति’ पद को यहाँ ‘उत्क्रामन्तम्’ पद से कहा गया है। स्थितं वा – जिस प्रकार कैमरे पर वस्तु का जैसा प्रतिबिम्ब पड़ता है उसका वैसा ही चित्र अङ्कित हो जाता है। इसी प्रकार मृत्यु के समय अन्तःकरण में जिस भाव का चिन्तन होता है उसी आकार का सूक्ष्मशरीर बन जाता है। जैसे कैमरे पर पड़े प्रतिबिम्ब के अनुसार चित्र के तैयार होने में समय लगता है – ऐसे ही अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार भावी स्थूलशरीर के बनने में (शरीर के अनुसार कम या अधिक) समय लगता है। आठवें श्लोक में जिसका ‘यदवाप्नोति’ पद से वर्णन हुआ है । उसी को यहाँ ‘स्थितम्’ पद से कहा गया है। अपि भुञ्जानं वा – मनुष्य जब विषयों को भोगता है तब अपने को बड़ा सावधान मानता है और विषयसेवन में सावधान रहता भी है। विषयी मनुष्य शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध – इनमें से एक-एक विषय को अच्छी तरह जानता है। अपनी जानकारी से एक-एक विषय को भी बड़ी स्पष्टता से वर्णन करता है। इतनी सावधानी रखने पर भी वह मूढ़ (अज्ञानी) ही है क्योंकि विषयों के प्रति यह सावधानी किसी काम की नहीं है प्रत्युत मरने पर नरकों और नीच योनियो में ले जाने वाली है। परमात्मा , जीवात्मा और संसार – इन तीनों के विषय में शास्त्रों और दार्शनिकों के अनेक मतभेद हैं परन्तु जीवात्मा संसार के सम्बन्ध से महान दुःख पाता है और परमात्मा के सम्बन्ध से महान सुख पाता है – इसमें सभी शास्त्र और दार्शनिक एकमत हैं। संसार एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता – यह अकाट्य नियम है। संसार क्षणभङ्गुर है – यह बात कहते , सुनते और पढ़ते हुए भी मूढ़ मनुष्य संसार को स्थिर मानते हैं। भोगसामग्री , भोक्ता और भोगरूप क्रिया – इन सबको स्थायी माने बिना भोग हो ही नहीं सकता। भोगी मनुष्य की बुद्धि इतनी मूढ़ हो जाती है कि वह इन भोगों से बढ़कर कुछ है ही नहीं – ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेता है (गीता 16। 11)। इसलिये ऐसे मनुष्यों के ज्ञाननेत्र बंद ही रहते हैं। वे मौत को निश्चित जानते हुए भी भोग भोगने के लिये (मरने वालों के लोक में रहते हुए भी) सदा जीते रहने की इच्छा रखते हैं। ‘अपि’ पद का भाव है कि जीवात्मा जिस समय स्थूलशरीर से निकलकर (सूक्ष्म और कारणशरीरसहित) जाता है , दूसरे शरीर को प्राप्त होता है तथा विषयों का उपभोग करता है – इन तीनों ही अवस्थाओं में गुणों मेंसे लिप्त दिखने पर भी वास्तव में वह स्वयं निर्लिप्त ही रहता है। वास्तविक स्वरूप में न उत्क्रमण है , न स्थिति है और न भोक्तापन ही है। पिछले श्लोक के ‘विषयानुपसेवते’ पद को ही यहाँ ‘भुञ्जानम्’ पद से कहा गया है। गुणान्वितम् – यहाँ ‘गुणान्वितम्’ पद का तात्पर्य यह है कि गुणों से सम्बन्ध मानते रहने के कारण ही जीवात्मा में उत्क्रमण , स्थिति और भोग – ये तीनों क्रियाएँ प्रतीत होती हैं। वास्तव में आत्मा का गुणों से सम्बन्ध है ही नहीं। भूल से ही इसने अपना सम्बन्ध गुणों से मान रखा है जिसके कारण इसे बारम्बार ऊँच-नीच योनियों में जाना पड़ता है। गुणों से सम्बन्ध जोड़कर जीवात्मा संसार से सुख चाहता है – यह उसकी भूल है। सुख लेने के लिये शरीर भी अपना नहीं है फिर अन्य की तो बात ही क्या है । मनुष्य मानो किसी न किसी प्रकार से संसार में ही फँसना चाहता है , व्याख्यान देने वाला व्यक्ति श्रोताओं को अपना मानने लग जाता है। किसी का भाई-बहन न हो तो वह धर्म का भाई-बहन बना लेता है। किसी का पुत्र न हो तो वह दूसरे का बालक गोद ले लेता है। इस तरह नये-नये सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य चाहता तो सुख है पर पाता दुःख ही है। इसी बात को भगवान कह रहे हैं कि जीव स्वरूप से गुणातीत होते हुए भी गुणों (देश , काल , व्यक्ति , वस्तु) से सम्बन्ध जोड़कर उनसे बँध जाता है। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में आये ‘प्रकृतिस्थानि’ पद को ही यहाँ ‘गुणान्वितम्’ पद से कहा गया है। मार्मिक बात – जब तक मनुष्य का प्रकृति अथवा उसके कार्य – गुणों से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहता है तब तक गुणों के अधीन होकर उसे कर्म करने के लिये बाध्य होना पड़ता है (गीता 3। 5)। चेतन होकर गुणों के अधीन रहना अर्थात् जड की परतन्त्रता स्वीकार करना व्यभिचारदोष है। प्रकृति अथवा गुणों से सर्वथ मुक्त होने पर जो स्वाधीनता का अनुभव होता है उसमें भी साधक जब तक (अहम की गन्ध रहने के कारण) रस लेता है तब तक व्यभिचारदोष रहता ही है। रस न लेने से जब वह व्यभिचारदोष मिट जाता है तब अपने प्रेमास्पद भगवान के प्रति स्वतः प्रियता जाग्रत होती है। फिर प्रेम ही प्रेम रह जाता है जो उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। इस प्रेम को प्राप्त करना ही जीव का अन्तिम लक्ष्य है। इस प्रेम की प्राप्ति में ही पूर्णता है। भगवान भी भक्त को अपना अलौकिक प्रेम देकर ही राजी होते हैं और ऐसे प्रेमी भक्त को योगियों में सर्वश्रेष्ठ योगी मानते हैं (गीता 6। 47)। गुणातीत होने में तो (स्वयं का विवेक सहायक होने के कारण) अपने साधन का सम्बन्ध रहता है पर गुणातीत होने के बाद प्रेम की प्राप्ति होने में भगवान की कृपा का ही सम्बन्ध रहता है। विमूढा नानुपश्यन्ति – जैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य करने पर भी हम वही रहते हैं । ऐसे ही गुणों से युक्त होकर शरीर को छोड़ते , अन्य शरीर को प्राप्त होते तथा भोग भोगते समय भी स्वयं (आत्मा) वही रहता है। तात्पर्य यह है कि परिवर्तन क्रियाओं में होता है स्वयं में नहीं परन्तु जो भिन्न-भिन्न क्रियाओं के साथ मिलकर स्वयं को भी भिन्न-भिन्न देखने लगता है (3। 27) ऐसे अज्ञानी (तत्त्व को न जानने वाले) मनुष्य के लिये यहाँ ‘विमूढा नानुपश्यन्ति’ पद दिये गये हैं। मूढ़लोग भोग और संग्रह में इतने आसक्त रहते हैं कि शरीरादि पदार्थ नित्य रहने वाले नहीं हैं – यह बात सोचते ही नहीं। भोग भोगने का क्या परिणाम होगा ? उस ओर वे देखते ही नहीं। भगवान ने गीता के सत्रहवें अध्याय में जहाँ सात्त्विक, राजस और तामस पुरुषों को प्रिय लगने वाले आहारों का वर्णन किया है वहाँ सात्त्विक आहार के परिणाम का वर्णन पहले किया गया है , राजस आहार के परिणाम का वर्णन अन्त में किया गया है और तामस आहार के परिणाम का वर्णन ही नहीं किया गया है (गीता 17। 8 — 10)। इसका कारण यह है कि सात्त्विक मनुष्य कर्म करने से पहले उसके परिणाम (फल) पर दृष्टि रखता है , राजस मनुष्य पहले सहसा काम कर बैठता है फिर परिणाम चाहे जैसा आये परन्तु तामस मनुष्य तो परिणाम की तरफ दृष्टि ही नहीं डालता। इसी प्रकार यहाँ भी ‘विमूढा नानुपश्यन्ति’ पद देकर भगवान मानो यह कहते हैं कि मोहग्रस्त मनुष्य तामस ही हैं क्योंकि मोह तमोगुण का कार्य है। वे विषयों का सेवन करते समय परिणाम पर विचार ही नहीं करते। केवल भोग भोगने और संग्रह करने में ही लगे रहते हैं। ऐसे मनुष्यों का ज्ञान तमोगुण से ढका रहता है। इस कारण वे शरीर और आत्मा के भेद को नहीं जान सकते। पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः – प्राणी , पदार्थ , घटना , परिस्थिति – कोई भी स्थिर नहीं है अर्थात् दृश्यमात्र निरन्तर अदर्शन में जा रहा है – ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव होना ही ज्ञानरूप चक्षुओं से देखना है। परिवर्तन की ओर दृष्टि होने से अपरिवर्तनशील तत्त्व में स्थिति स्वतः होती है क्योंकि नित्य परिवर्तनशील पदार्थ का अनुभव अपरिवर्तनशील तत्त्व को ही होता है।यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिये कि ज्ञानी मनुष्य का भी स्थूलशऱीर से निकलकर दूसरे शरीर को प्राप्त होना तथा भोग भोगना होता है। ज्ञानी मनुष्य का स्थूलशरीर तो छूटेगा ही पर दूसरे शरीर को प्राप्त करना तथा रागबुद्धि से विषयों का सेवन करना उसके द्वारा नहीं होते। दूसरे अध्याय के तेरहवें श्लोक में भगवान ने कहा है कि जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन , जवानी और वृद्धावस्था होती है ऐसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है परन्तु उस विषय में ज्ञानी मनुष्य मोहित अथवा विकार को प्राप्त नहीं होता। कारण यह है कि वह ज्ञानी मनुष्य ज्ञानरूप नेत्रों के द्वारा यह देखता है कि जन्म-मृत्यु आदि सब क्रियाएँ या विकार परिवर्तनशील शरीर में ही हैं , अपरिवर्तनशील स्वरूपमें नहीं। स्वरूप इन विकारों से सब समय सर्वथा निर्लिप्त रहता है। शरीर को अपना मानने तथा उससे सुख लेने की आशा रखने से ही विमूढ़ मनुष्यों को तादात्म्य के कारण ये विकार स्वयं में होते प्रतीत होते हैं। विमूढ़ मनुष्य आत्मा को गुणों से युक्त देखते हैं और ज्ञाननेत्रों वाले मनुष्य आत्मा को गुणों से रहित – वास्तविक रूप से देखते हैं। पूर्वश्लोक में वर्णित तत्त्व को जो पुरुष यत्न करने पर जानते हैं , उनमें क्या विशेषता है ? और जो यत्न करने पर भी नहीं जानते उनमें क्या कमी है ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

       Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!