अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 16 – 20 ) क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः৷৷15.17৷৷
उत्तमः-परम; पुरुषः-दिव्य व्यक्तित्व; तु-लेकिन; अन्यः-अतिरिक्त; परमात्मा- परम आत्मा; इति-इस प्रकार; उदाहृतः-कहा जाता है; यः-जो; लोकत्रयम्-तीन लोकों में; आविश्य-प्रवेश करके; बिभिर्ति-पालन करना; अव्ययः-अविनाशी; ईश्वरः-नियन्ता।
परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक अन्य परम सर्वोच्च दिव्य व्यक्तित्व है , एक उत्तम श्रेष्ठ पुरुष है जो अक्षय परमात्मा कहा जाता है। वही अविनाशी ईश्वर ही तीनों लोकों में अपरिवर्तनीय नियंता के रूप में प्रवेश करता है और सभी जीवों का पालन पोषण करता है।।15.17।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः – पूर्वश्लोक में क्षर और अक्षर दो प्रकार के पुरुषों का वर्णन करने के बाद अब भगवान यह बताते हैं कि उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है (टिप्पणी प0 782)। यहाँ ‘अन्यः’ पद परमात्मा को अविनाशी अक्षर (जीवात्मा) से भिन्न बताने के लिये नहीं प्रत्युत उससे विलक्षण बताने के लिये आया है। इसीलिये भगवान ने आगे 18वें श्लोक में अपने को नाशवान क्षर से अतीत और अविनाशी अक्षर से उत्तम बताया है। परमात्मा का अंश होते हुए भी जीवात्मा की दृष्टि या खिंचाव नाशवान क्षर की ओर हो रहा है। इसीलिये यहाँ भगवान को उससे विलक्षण बताया गया है। परमात्मेत्युदाहृतः – उस उत्तम पुरुष को ही परमात्मा नाम से कहा जाता है। परमात्मा शब्द निर्गुण का वाचक माना जाता है जिसका अर्थ है – परम (श्रेष्ठ) आत्मा अथवा सम्पूर्ण जीवों की आत्मा। इस श्लोक में परमात्मा और ईश्वर – दोनों शब्द आये हैं जिसका तात्पर्य है कि निर्गुण और सगुण सब एक पुरुषोत्तम ही है। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः – वह उत्तम पुरुष (परमात्मा) तीनों लोकों में अर्थात् सर्वत्र समानरूप से नित्य व्याप्त है। यहाँ ‘बिभर्ति’ पद का तात्पर्य यह है कि वास्तव में परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों का भरण-पोषण करते हैं पर जीवात्मा संसार से अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण भूल से सांसारिक व्यक्तियों आदि को अपना मानकर उनके भरणपोषणादि का भार अपने ऊपर ले लेता है। इससे वह व्यर्थ ही दुःख पाता रहता है (टिप्पणी प0 783.1)। भगवान को ‘अव्ययः’ कहने का तात्पर्य है कि सम्पूर्ण लोकों का भरण-पोषण करते रहने पर भी भगवान का कोई व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात् उनमें किसी तरह की किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती। वे सदा ज्यों के त्यों रहते हैं। ‘ईश्वरः’ शब्द सगुण का वाचक माना जाता है जिसका अर्थ है – शासन करने वाला। मार्मिक बात – यद्यपि माता-पिता बालक का पालन-पोषण किया करते हैं तथापि बालक को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि मेरा पालन-पोषण कौन करता है ? कैसे करता है ? और किसलिये करता है ? इसी तरह यद्यपि भगवान मात्र प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं तथापि अज्ञानी मनुष्य को (भगवान पर दृष्टि न रहनेसे) इस बात का पता ही नहीं लगता कि मेरा पालन-पोषण कौन करता है ? भगवान का शरणागत भक्त ही इस बात को ठीक तरह से जानता है कि एक भगवान ही सबका सम्यक् प्रकार से पालन-पोषण कर रहे हैं। पालन-पोषण करने में भगवान किसी के साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते। वे भक्त-अभक्त , पापी-पुण्यात्मा , आस्तिक-नास्तिक आदि सभी का समानरूप से पालन-पोषण करते हैं (टिप्पणी प0 783.2)। प्रत्यक्ष देखने में आता है कि भगवान द्वारा रचित सृष्टि में सूर्य सबको समानरूप से प्रकाश देता है , पृथ्वी सबको समानरूप से धारण करती है , वैश्वानरअग्नि सबके अन्न को समानरूप से पचाती है , वायु सबको (श्वास लेने के लिये) समानरूप से प्राप्त होती है , अन्न-जल सबको समानरूप से तृप्त करते हैं इत्यादि। पूर्वश्लोक में वर्णित उत्तम पुरुष के साथ अपनी एकता बताकर अब साकाररूप से प्रकट भगवान श्रीकृष्ण अपना अत्यन्त गोपनीय रहस्य प्रकट कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी