अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 16 – 20 ) क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ৷৷15.20৷৷
इति–इन; गुह्यतमम्-सबसे गुह्यतम; शास्त्रम्-वैदिक शास्त्र; इदम्-यह; उक्तम्-प्रकट किया गया; मया – मेरे द्वारा; अनघ-पापरहित, अर्जुन; एतत्-यह; बुद्ध्वा -समझ कर; बुद्धिमान्–प्रबुद्ध; स्यात् – हो जाता है; कृतकृत्यः-अपने प्रयासों से परिपूर्ण होना; च-तथा; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन।
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार मेरे द्वारा वैदिक ग्रंथों और शास्त्रों का सबसे गुह्य सिद्धान्त और अति गोपनीय रहस्य कहा गया अथवा प्रकट किया गया है। जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान और ज्ञानवान हो जाता है और अपने प्रयासो में सफल अथवा कृतकृत्य हो जाता है।।१५.20।।
अनघ – अर्जुन को निष्पाप इसलिये कहा गया है कि वे दोषदृष्टि (असूया) से रहित थे। दोषदृष्टि करना पाप है। इससे अन्तःकरण अशुद्ध होता है। जो दोषदृष्टि से रहित होता है वही भक्ति का पात्र होता है। गोपनीय बात दोषदृष्टि से रहित मनुष्य के सामने ही कही जाती है (टिप्पणी प0 786)। यदि दोषदृष्टि वाले मनुष्य के सामने गोपनीय बात कह दी जाय तो उस मनुष्य पर उस बात का उलटा असर पड़ता है अर्थात् वह उस गोपनीय बात का उलटा अर्थ लगाकर वक्ता में भी दोष देखने लगता है कि यह आत्मश्लाघी है , दूसरों को मोहित करने के लिये कहता है इत्यादि। इससे दोषदृष्टि वाले मनुष्य की बहुत हानि होती है। दोषदृष्टि होने में खास कारण है – अभिमान। मनुष्य में जिस बात का अभिमान हो , उस बात की उसमें कमी होती है। उस कमी को वह दूसरों में देखने लगता है। अपने में अच्छाई का अभिमान होने से दूसरों में बुराई दिखती है और दूसरों में बुराई देखने से ही अपने में अच्छाई का अभिमान आता है। यदि दोषदृष्टि वाले मनुष्य के सामने भगवान अपने को सर्वोपरि पुरुषोत्तम कहें तो उसको विश्वास नहीं होगा , उलटे वह यह सोचेगा कि भगवान आत्मश्लाघी (अपने मुँह अपने बड़ाई करने वाले) हैं – निज अग्यान राम पर धरहीं। (मानस 7। 73। 5) भगवान के प्रति दोषदृष्टि होने से उसकी बहुत हानि होती है। इसलिये भगवान और संतजन दोषदृष्टि वाले अश्रद्धालु मनुष्य के सामने गोपनीय बातें प्रकट नहीं करते (गीता 18। 67)। वास्तव में देखा जाय तो दोषदृष्टि वाले मनुष्य के सामने गोपनीय (रहस्ययुक्त) बातें मुख से निकलती ही नहीं । अर्जुन के लिये ‘अनघ’ सम्बोधन देने में यह भाव भी हो सकता है कि इस अध्याय में भगवान ने जो परमगोपनीय प्रभाव बताया है वह अर्जुन जैसे दोषदृष्टि से रहित सरल पुरुष के सम्मुख ही प्रकट किया जा सकता है। इति गुह्यतमं शास्त्रमिदम् – 14वें अध्याय के 26वें श्लोक में ‘अव्यभिचारिणी’ भक्ति की बात कहने के बाद भगवान ने 15वें अध्याय के पहले श्लोक से 19वें श्लोक तक जिस (क्षर , अक्षर और पुरुषोत्तम के) विषय का वर्णन किया है उस विषय की पूर्णता और लक्ष्य का निर्देश यहाँ ‘इति इदम्’ पदों से किया गया है। इस अध्याय में पहले भगवान ने क्षर (संसार) और अक्षर (जीवात्मा) का वर्णन करके अपना अप्रतिम प्रभाव (12वें से 15वें श्लोक तक) प्रकट किया। फिर भगवान ने यह गोपनीय बात प्रकट की कि जिसका यह सब प्रभाव है वह (क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम) पुरुषोत्तम मैं ही हूँ। नाटक में स्वाँग धारण किये हुए मनुष्य की तरह भगवान इस पृथ्वी पर मनुष्य का स्वाँग धारण करके अवतरित होते हैं और ऐसा बर्ताव करते हैं कि अज्ञानी मनुष्य उनको नहीं जान पाते (गीता 7। 24)। स्वाँग में अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया जाता , गुप्त रखा जाता है परन्तु भगवान ने इस अध्याय में (18वें श्लोक में) अपना वास्तविक परिचय देकर अत्यन्त गोपनीय बात प्रकट कर दी कि मैं ही पुरुषोत्तम हूँ। इसलिये इस अध्याय को ‘गुह्यतम’ कहा गया है। शास्त्र में प्रायः संसार , जीवात्मा और परमात्मा का वर्णन आता है। इन तीनों का ही वर्णन 15वें अध्याय में हुआ है इसलिये इस अध्याय को ‘शास्त्र’ भी कहा गया है। सर्वशास्त्रमयी गीता में केवल इसी अध्याय को ‘शास्त्र’ की उपाधि मिली है। इसमें पुरुषोत्तम का वर्णन मुख्य होने के कारण इस अध्याय को ‘गुह्यतम शास्त्र’ कहा गया है। इस गुह्यतम शास्त्र में भगवान ने अपनी प्राप्ति के छः उपायों का वर्णन किया है (1) संसार को तत्त्व से जानना (श्लोक 1)। (2) संसार से माने हुए सम्बन्ध का विच्छेद करके एक भगवान के शरण होना (श्लोक 4)। (3) अपने में स्थित परमात्मतत्त्व को जानना (श्लोक 11)। (4) वेदाध्ययन के द्वारा तत्त्व को जानना (श्लोक 15)। (5) भगवान को पुरुषोत्तम जानकर सब प्रकार से उनका भजन करना (श्लोक 19)। (6) सम्पूर्ण अध्याय के तत्त्व को जानना (श्लोक 20)। जिस अध्याय में भगवत्प्राप्ति के ऐसे सुगम उपाय बताये गये हों उसको शास्त्र कहना उचित ही है। मया उक्तम् – इन पदों से भगवान यह कहते हैं कि सम्पूर्ण भौतिक जगत का प्रकाशक और अधिष्ठान , समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित वेदों के द्वारा जानने योग्य एवं क्षर और अक्षर दोनों से उत्तम साक्षात मुझ पुरुषोत्तम के द्वारा ही यह गुह्यतम शास्त्र अत्यन्त कृपापूर्वक कहा गया है। अपने विषय में जैसा मैं कह सकता हूँ वैसा कोई नहीं कह सकता। कारण कि दूसरा पहले (मेरी ही कृपाशक्ति से) मेरे को जानेगा (टिप्पणी प0 787) फिर वह मेरे विषय में कुछ कहेगा जबकि मेरे में अनजानपना है ही नहीं। वास्तव में स्वयं भगवान के अतिरिक्त दूसरा कोई भी उनको पूर्णरूप से नहीं जान सकता (गीता 10। 2? 15)। छठे अध्याय के 39वें श्लोक में अर्जुन ने भगवान से कहा था कि आपके सिवाय दूसरा कोई भी मेरे संशय का छेदन नहीं कर सकता। यहाँ भगवान मानो यह कह रहे हैं कि मेरे द्वारा कहे हुए विषय में किसी प्रकार का संशय रहने की सम्भावना ही नहीं है। एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत – पूरे अध्याय में भगवान ने जो संसार की वास्तविकता , जीवात्मा के स्वरूप और अपने अप्रतिम प्रभाव एवं गोपनीयता का वर्णन किया है उसका (विशेषरूप से 19वें श्लोक का) निर्देश यहाँ ‘एतत्’ पद से किया गया है। इस गुह्यतम शास्त्र को जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है वह ज्ञानवान अर्थात् ज्ञातज्ञातव्य हो जाता है। उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता क्योंकि उसने जानने योग्य पुरुषोत्तम को जान लिया। परमात्मतत्त्व को जानने से मनुष्य की मूढ़ता नष्ट हो जाती है। परमात्मतत्त्व को जाने बिना लौकिक सम्पूर्ण विद्याएँ , भाषाएँ , कलाएँ आदि क्यों न जान ली जायँ उनसे मूढ़ता नहीं मिटती क्योंकि लौकिक सब विद्याएँ आरम्भ और समाप्त होने वाली तथा अपूर्ण हैं। जितनी लौकिक विद्याएँ हैं सब परमात्मा से ही प्रकट होने वाली हैं । अतः वे परमात्मा को कैसे प्रकाशित कर सकती हैं ? इन सब लौकिक विद्याओं से अनजान होते हुए भी जिसने परमात्मा को जान लिया है वही वास्तव में ज्ञानवान है। 19वें श्लोक में सब प्रकार से भजन करने वाले जिस मोहरहित भक्त को ‘सर्ववित्’ कहा गया है उसी को यहाँ ‘बुद्धिमान’ नाम से कहा गया है। यहाँ ‘च’ पद में पूर्वश्लोक में आयी बात के फल (प्राप्तप्राप्तव्यता) का अनुकर्षण है। पूर्वश्लोक में सर्वभाव से भगवान का भजन करने अर्थात् अव्यभिचारिणी भक्ति की बात विशेषरूप से आयी है। भक्ति के समान कोई लाभ नहीं है – लाभु कि किछु हरि भगति समाना (मानस 7। 112। 4)। अतः जिसने भक्ति को प्राप्त कर लिया वह प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। भगवत्तत्त्व की यह विलक्षणता है कि कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग – तीनों में से किसी एक की सिद्धि से कृतकृत्यता , ज्ञातज्ञातव्यता और प्राप्तप्राप्तव्यता – तीनों की प्राप्ति हो जाती है। इसलिये जो भगवत्तत्त्व को जान लेता है उसके लिये फिर कुछ जानना , पाना और करना शेष नहीं रहता । उसका मनुष्यजीवन सफल हो जाता है – स्वामी रामसुखदास जी
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