अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 01-06 ) संसार रूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्৷৷15.5৷৷
निः-से मुक्त; मान-अभिमान; मोहा:-मोह; जित-वश में करना; संग – आसक्ति; दोषा:-बुराइयाँ ; अध्यात्मनित्याः-निरन्तर अपनी आत्मा और भगवान में लीन रहना; विनिवृत्त – से मुक्त; कामा:-विषय भोगों की लालसा; द्वन्द्वैः-द्वैत से; विमुक्ताः-मुक्त; सुख-दुःख-सुख तथा दुख; संज्ञैः-जाने जाते हैं; गच्छन्ति–प्राप्त करते हैं; अमूढाः-मोहरहित; पदम्-लोक; अव्ययम्-अविनाशी; तत्-उस।
जो अभिमान , मान-प्रतिष्ठा और मोह से मुक्त हो गये हैं, जिन्होंने संग दोष या आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है और सांसारिक विषयों में लिप्त मनुष्यों की संगति को त्याग दिया है , जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं और परमात्म स्वरूप में स्थित रहते हैं , जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं और जिसकी सांसारिक कामनाएँ पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है , जो सुख-दुःख रूप द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे ऊँची स्थिति वाले मोह रहित ज्ञानी साधक भक्त और मुक्त जीव उस अविनाशी परमपद परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात मेरे नित्य धाम को प्राप्त करते हैं ৷৷15.5৷৷
निर्मानमोहाः – शरीर में मैं-मेरापन होने से ही मान , आदर-सत्कार की इच्छा होती है। शरीर से अपना सम्बन्ध मानने के कारण ही मनुष्य शरीर के मान-आदर को भूल से स्वयं का मान-आदर मान लेता है और फँस जाता है। जिन भक्तों का केवल भगवान में ही अपनापन होता है , उनका शरीर में मैं-मेरापन नहीं रहता । अतः वे शरीर के मान-आदर से प्रसन्न नहीं होते। एकमात्र भगवान के शरण होने पर उनका शरीर से मोह नहीं रहता फिर मान-आदर की इच्छा उनमें हो ही कैसे सकती है ? केवल भगवान का ही उद्देश्य , ध्येय होने से और केवल भगवान के ही शरण , परायण रहने से वे भक्त संसार से विमुख हो जाते हैं। अतः उनमें संसार का मोह नहीं रहता।जितसङ्गदोषाः – भगवान में आकर्षण होना , प्रेम और संसार में आकर्षण होना आसक्ति कहलाती है। ममता , स्पृहा , वासना , आशा आदि दोष आसक्ति के कारण ही होते हैं। केवल भगवान के ही परायण होने के कारण भक्तों की सांसारिक भोगों में आसक्ति नहीं रहती। आसक्ति न रहने के कारण भक्त आसक्ति से होने वाले ममता आदि दोषों को जीत लेते हैं। आसक्ति प्राप्त और अप्राप्त – दोनों की होती है किन्तु कामना अप्राप्त की ही होती है। इसलिये इस श्लोक में ‘विनिवृत्तकामाः’ पद अलग से आया है। अध्यात्मनित्याः – केवल भगवान के ही शरण रहने से भक्तों की अहंता बदल जाती है। मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं , मैं संसार का नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है – इस प्रकार अहंता बदलने से उनकी स्थिति निरन्तर भगवान में ही रहती है (टिप्पणी प0 754)। कारण कि मनुष्य की जैसी अहंता होती है , उसकी स्थिति वहाँ ही होती है। जैसे मनुष्य जन्म के अनुसार अपने को ब्राह्मण मानता है तो उसकी ब्राह्मणपन की मान्यता नित्य-निरन्तर रहती है अर्थात् वह नित्य-निरन्तर ब्राह्मणपन में स्थित रहता है चाहे याद करे या न करे। ऐसे ही जो भक्त अपन सम्बन्ध केवल भगवान के साथ ही मानते हैं वे नित्य-निरन्तर भगवान में ही स्थित रहते हैं। विनिवृत्तकामाः — संसारका ध्येय? लक्ष्य रहने से ही संसार की वस्तु , परिस्थिति आदि की कामना होती है अर्थात् अमुक वस्तु , व्यक्ति आदि मुझे मिल जाय – इस तरह अप्राप्त की कामना होती है। परन्तु जिन भक्तों का सांसारिक वस्तु आदि को प्राप्त करने का उद्देश्य है ही नहीं , वे कामनाओं से सर्वथा रहित हो जाते हैं। शरीर में ममता होने से कामना पैदा हो जाती है कि मेरा शरीर स्वस्थ्य रहे , बीमार न हो जाय , शरीर हृष्ट-पुष्ट रहे , कमजोर न हो जाय। इसी से सांसारिक धन , पदार्थ , मकान आदि की अनके कामनाएँ पैदा होती हैं। शरीर आदि में ममता न रहने से भक्तों की कामनाएँ मिट जाती हैं। भक्तों का यह अनुभव होता है कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि और अहम् (मैंपन) – ये सभी भगवान के ही हैं। भगवान के सिवाय उनका अपना कुछ होता ही नहीं। ऐसे भक्तों की सम्पूर्ण कामनाएँ विशेष और निःशेषरूप से नष्ट हो जाती हैं। इसलिये उन्हें यहाँ ‘विनिवृत्तकामाः’ कहा गया है। विशेष बात- वास्तव में शरीर आदि का वियोग तो प्रतिक्षण हो ही रहा है। साधक को प्रतिक्षण होने वाले इस वियोग को स्वीकारमात्र करना है। इन वियुक्त होने वाले पदार्थों से संयोग मानने से ही कामनाएँ पैदा होती हैं। जन्म से लेकर आज तक निरन्तर हमारी प्राणशक्ति नष्ट हो रही है और शरीर से प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। जब एक दिन शरीर मर जायेगा तब लोग कहेंगे कि आज यह मर गया। वास्तव में देखा जाय तो शरीर आज नहीं मरा है प्रत्युत प्रतिक्षण मरने वाले शरीर का मरना आज समाप्त हुआ है । अतः कामनाओं से निवृत्त होने के लिये साधक को चाहिये कि वह प्रतिक्षण वियुक्त होने वाले शरीरादि पदार्थों को स्थिर मान कर उनसे कभी अपना सम्बन्ध न माने। वास्तव में कामनाओं की पूर्ति कभी होती ही नहीं। जब तक एक कामना पूरी होती हुई दिखती है तब तक दूसरी अनेक कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। उन कामनाओं से जब किसी एक कामना की पूर्ति होने पर मनुष्य को सुख प्रतीत होता है तब वह दूसरी कामनाओं की पूर्ति के लिये चेष्टा करने लग जाता है परन्तु यह नियम है कि चाहे कितने ही भोगपदार्थ मिल जाएं पर कामनाओं की पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। कामनाओं की पूर्ति के सुखभोग से नयी-नयी कामनाएँ पैदा होती रहती हैं – जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई। संसार के सम्पूर्ण व्यक्ति , पदार्थ एक साथ मिलकर एक व्यक्ति की भी कामनाओं की पूर्ति नहीं कर सकते फिर सीमित पदार्थों की कामना करके सुख की आशा रखना महान भूल ही है। कामनाओं के रहते हुए कभी शान्ति नहीं मिल सकती – स शान्तिमाप्नोति न कामकामी (गीता 2। 70)। अतः कामनाओं की निवृत्ति ही परमशान्ति का उपाय है। इसलिये कामनाओं की निवृत्ति ही करना चाहिये न कि पूर्ति की चेष्टा। सांसारिक भोगपदार्थों के मिलने से सुख होता है – यह मान्यता कर लेने से ही कामना पैदा होती है। यह कामना जितनी तेज होगी उस पदार्थ के मिलने में उतना ही सुख होगा। वास्तव में कामना की पूर्ति से सुख नहीं होता। जब मनुष्य किसी पदार्थ के अभाव का दुःख मानकर कामना करके उस पदार्थ का मन से सम्बन्ध जोड़ लेता है तब उस पदार्थ के मिलने पर अर्थात् उस पदार्थ का मन से सम्बन्धविच्छेद होने पर (अभाव की मान्यता का दुःख मिट जाने पर) सुख प्रतीत होता है। यदि वह पहले से ही कामना न करे तो पदार्थ के मिलने पर सुख और न मिलने पर दुःख होगा ही नहीं। मूल में कामना की सत्ता है ही नहीं क्योंकि जब काम्यपदार्थ की ही स्वतन्त्र सत्ता नहीं है तब उसकी कामना कैसे रह सकती है ? इसलिये सभी साधक निष्काम होने में समर्थ हैं।द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः – वे भक्त सुख-दुःख , हर्ष-शोक , राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित हो जाते हैं। कारण कि उनके सामने अनुकूल-प्रतिकूल जो भी परिस्थिति आती है उसको वे भगवान का ही दिया हुआ प्रसाद मानते हैं। उनकी दृष्टि केवल भगवत्कृपा पर ही रहती है , अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति पर नहीं। अतः जो कुछ होता है वह हमारे प्यारे प्रभु का ही मंगलमय विधान है – ऐसा भाव होने से उनके द्वन्द्व सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं। भगवान् सबके सुहृद् हैं – सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29)। उनके द्वारा अपने अंश (जीवात्मा) का कभी अहित हो ही नहीं सकता। उनके मंगलमय विधान से जो भी परिस्थिति हमारे सामने आती है वह हमारे परमहित के लिये ही होती है। इसलिये भक्त भगवान के विधान में परम प्रसन्न रहते हैं। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का ज्ञान होने पर भी ऐसी परिस्थिति क्यों आ गयी ? ऐसी परिस्थिति आती रहे आदि विकार , द्वन्द्व उनमें नहीं होते। विशेष बात- द्वन्द्व (रागद्वेषादि) ही विषमता है जिनसे सब प्रकार के पाप पैदा होते हैं। अतः विषमता का त्याग करने के लिये साधक को नाशवान पदार्थों के माने हुए महत्त्व को अन्तःकरण से निकाल देना चाहिये। द्वन्द्व के दो भेद हैं -(1) स्थूल (व्यावहारिक) द्वन्द्व –> सुख-दुःख , अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि स्थूल द्वन्द्व हैं। प्राणी सुख , अनुकूलता आदि की इच्छा तो करते हैं पर दुःख , प्रतिकूलता आदि की इच्छा नहीं करते। यह स्थूल द्वन्द्व मनुष्य , पशु , पक्षी , वृक्ष आदि सभी में देखने में आता है। (2) सूक्ष्म (आध्यात्मिक) द्वन्द्व –> यद्यपि अपनी उपासना और उपास्य को सर्वश्रेष्ठ मानकर उसको आदर (महत्त्व) देना आवश्यक एवं लाभप्रद है तथापि दूसरों की उपासना और उपास्य को नीचा बताकर उसका खण्डन , निन्दा आदि करना सूक्ष्म द्वन्द्व है जो साधक के लिये हानिकारक है। वास्तव में सभी उपासनाओं का एकमात्र उद्देश्य संसार (जडता) से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करना है। साधकों की रुचि , श्रद्धा-विश्वास और योग्यता के अनुसार उपासनाओं में भिन्नता होती है जिसका होना उचित भी है। अतः साधक को उपासनाओं की भिन्नता पर दृष्टि न रखकर उद्देश्य की अभिन्नता पर ही दृष्टि रखनी चाहिये। दूसरे की उपासना को न देखकर अपनी उपासना में तत्परतापूर्वक लगे रहने से उपासनासम्बन्धी सूक्ष्म द्वन्द्व स्वतः मिट जाता है। गीता में स्थूल द्वन्द्व को ‘मोहकलिलम्’ (2। 52) और सूक्ष्म द्वन्द्व को ‘श्रुतिविप्रतिपन्ना’ (टिप्पणी प0 755) (2। 53) पदों से कहा गया है। साधक के अन्तःकरण में जब तक संसार (जडता) का सम्बन्ध या महत्त्व रहता है तभी तक ये द्वन्द्व रहते हैं। स्थूल द्वन्द्व संसार को विशेषरूप से सत्ता और महत्ता देता है। अतः स्थूल द्वन्द्व को मिटाना बहुत जरूरी है। जब तक मूढ़ता रहती है तभी तक द्वन्द्व रहते हैं। वास्तव में देखा जाय तो अपने में द्वन्द्व मानना ही मूढ़ता है। राग-द्वेष , सुख-दुःख , हर्ष-शोक आदि द्वन्द्व अन्तःकरण में होते हैं स्वयं (अपने स्वरूप) में नहीं। अन्तःकरण जड है और स्वयं चेतन एवं जड का प्रकाशक है। अतः अन्तःकरण से स्वयं का सम्बन्ध है ही नहीं। केवल मान्यता से ही यह सम्बन्ध प्रतीत होता है। यह सभी का अनुभव है कि सुखदुःखादि द्वन्द्वों के आने पर हम तो वही रहते हैं। ऐसा नहीं होता कि सुख आने पर हम और होते हैं तथा दुःख आने पर और परन्तु मूढ़तावश इन सुखदुःखादि से मिलकर सुखी और दुःखी होने लगते हैं। यदि हम इन आने जाने वालों से न मिलकर अपने स्वरूप में स्थित (स्वस्थ) रहें तो सुखदुःखादि द्वन्द्वों से स्वतः रहित हो जाएंगे। इसलिये साधक को बदलने वाली अर्थात् आने – जाने वाली अवस्थाओं (सुख-दुःख , हर्षशोकादि) पर दृष्टि न रख कर कभी न बदलने वाले अपने स्वरूप पर ही दृष्टि रखनी चाहिये जो सब अवस्थाओं से अतीत है। गीता में भगवान ने राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से मुक्त होने का बड़ा सुगम उपाय बताया है कि अनुकूलता-प्रतिकूलता में राग-द्वेष छिपे हुए हैं। उनसे बचने के लिये साधक को केवल इतनी सावधानी रखनी है कि वह इनके वश में न हो (गीता 3। 34)। तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष दिखने पर भी साधक इनके वशीभूत होकर तदनुसार क्रिया न करे क्योंकि क्रिया करने से ही ये पुष्ट होते हैं। गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् – आने-जाने वाले पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा या चेष्टा करना तथा उनसे सुखी-दुःखी होना मूढ़ता है। वास्तव में संसार निरन्तर परिवर्तनशील है और परमात्मा नित्य रहने वाला है। परमात्मा की सत्ता से ही संसार की सत्ता दिखती है परन्तु अविनाशी परमात्मा और विनाशी संसार की सत्ता को मिलाकर संसार है , ऐसा मान लेना मूढ़ता है। जिस प्रकार मूढ़ (अज्ञानी) मनुष्यों को संसार है – ऐसा स्पष्ट दिखायी देता है , उसी प्रकार अमूढ़ (मोहरहित) भक्तों को परमात्मा है – ऐसा स्पष्ट अनुभव होता है। संसार जैसा दिखायी देता है वैसा ही है – इस प्रकार संसार को स्थायी मान लेना मूढ़ता (मोह) है। जिनकी यह मूढ़ता चली गयी उन भक्तों को यहाँ ‘अमूढाः’ कहा गया है। मूढ़ता चले जाने के बाद सुख-दुःख का असर नहीं पड़ता। जिस पर सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों का असर नहीं पड़ता वह मुक्ति का पात्र होता है (गीता 2। 15)। इसीलिये इस श्लोक में भगवान ने दो बार मूढ़ता के त्याग की बात (निर्मानमोहाः और अमूढाः) कहकर मूढ़ता के त्याग पर विशेष जोर दिया है। मूढ़ता अर्थात् मोह दो प्रकार का होता है – (1) परमात्मा की ओर न लगकर संसार में ही लग जाना और (2) परमात्मा को ठीक तरह से न जानना। इस श्लोक में पहले ‘निर्मानमोहाः’ पद से संसार का मोह चले जाने की बात कही है और यहाँ ‘अमूढाः’ (टिप्पणी प0 756) पद से परमात्मा को ठीक तरह से जान लेने की बात कही है।जिस परमात्मा को इसी अध्याय के पहले श्लोक में ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पद से कहा गया तथा जिस परमपदरूप परमात्मा की खोज करने के लिये चौथे श्लोक में प्रेरणा की गयी और आगे छठे श्लोक में जिसकी महिमा का वर्णन किया गया है उसी परमात्मरूप परमपद को यहाँ ‘अव्ययम् पदम्’ कहा है। जो ऊँची स्थिति के साधक भक्त मान , मोह , ममता आदि दोषों से सर्वथा रहित हो जाते हैं वे उस अविनाशी परमपद को अवश्य प्राप्त होते हैं । जिसको प्राप्त कर लेने पर मनुष्य लौटकर नाशवान संसार में नहीं आता। वास्तव में तो मनुष्यमात्र उस पद को स्वतः प्राप्त है पर उधर दृष्टि न रहने से उसको वैसा अनुभव नहीं होता। इसे एक उदाहरण से समझना चाहिये। हम रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे हैं। हमारी गाड़ी एक स्टेशन पर रुक जाती है। हमारी गाड़ी के पास (दूसरी पटरी पर) खड़ी हुई दूसरी गाड़ी सहसा चलने लगती है। उस समय (उस चलती हुई गाड़ी पर दृष्टि रहने से) भ्रम से हमें अपनी गाड़ी चलती हुई दिखने लगती है परन्तु जब हम वहाँ से अपनी दृष्टि हटाकर स्टेशन की तरफ देखते हैं तब पता लगता है कि हमारी गाड़ी तो ज्यों की त्यों (अपने स्थान पर) खड़ी हुई है। इसी प्रकार संसार से सम्बन्ध होने पर मनुष्य अपने को संसार की तरह क्रियाशील (आने-जाने वाला) देखने लगता है। पर जब वह संसार से दृष्टि हटाकर अपने स्वरूप को देखता है तो उसको पता लगता है कि मैं स्वयं तो ज्यों का त्यों ही हूँ। पूर्वश्लोक में वर्णित जिस अविनाशी पद को भक्तलोग प्राप्त होते हैं वह अविनाशी पद कैसा है ? इसका भगवान विवेचन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी