Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय

 

 

Bhagavad Geeta chapter 13इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्‍कार एव च ।

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्‌ ॥ 13.9

 

 

इन्द्रियम अर्थेषु–इन्द्रियों के विषय में; वैराग्यम्-विरक्ति; अनहंकार:-अभिमान से रहित; एव-निश्चय ही; च-भी; जन्म-जन्म; मृत्यु-मृत्यु; जरा-बुढ़ापा; व्याधि-रोग; दुःख-दुख का; दोष-बुराई; अनुदर्शनम् – बोध;

 

 

इन्द्रिय विषयों के प्रति उदासीनता या वैराग्य अर्थात इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव होना , अहंकार का अभाव होना , जन्म, मृत्यु, रोग और वृद्धावस्था कि दुःखमयी अवस्था का ज्ञान होना और इन अवस्थाओं के दोषों का विचार करना। इस प्रकार इस जीवन के सदोष स्वभाव का सूक्ष्मता से निरीक्षण करना – यह ज्ञान कहा गया है। ৷৷13.9৷৷

 

 

‘इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्’ – लोक-परलोक के शब्दादि समस्त विषयों में इन्द्रियों का खिंचाव न होना ही इन्द्रियों के विषयों में रागरहित होना है। इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्बन्ध होने पर भी तथा शास्त्र के अनुसार जीवन-निर्वाह के लिये इन्द्रियों द्वारा विषयों का सेवन करते हुए भी साधक को विषयों में राग , आसक्ति , प्रियता नहीं होनी चाहिये। उपाय – (1) विषयों में राग होने से ही विषयों की महत्ता दिखती है , संसार में आकर्षण होता है और इसी से सब पाप होते हैं। अगर हमारा विषयों में ही राग रहेगा तो तत्त्वबोध कैसे होगा ? परमात्मतत्त्व में हमारी स्थिति कैसे होगी ? अगर राग का त्याग कर दें तो परमात्मा में स्थिति हो जायगी – ऐसा विचार करने से विषयों से वैराग्य हो जाता है। (2) बड़े-बड़े धनी , शूरवीर , राजा-महाराजा हुए और उन्होंने बहुत से भोगों को भोगा पर अन्त में उनका क्या रहा कुछ नहीं रहा। उनके शरीर कमजोर हो गये और अन्त में सब चले गये। इस प्रकार विचार करने से भी वैराग्य हो जाता है। (3) जिन्होंने भोग नहीं भोगे हैं , जिनके पास भोग-सामग्री नहीं है , जो संसार से विरक्त हैं उनकी अपेक्षा जिन्होंने बहुत भोग भोगे हैं और भोग रहे हैं उनमें क्या विलक्षणता , विशेषता आयी ? कुछ नहीं बल्कि भोग भोगने वाले तो शोक-चिन्ता में डूबे हुए हैं। ऐसा विचार करने से भी वैराग्य होता है। ‘अनहंकार एव च ‘ – प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव में मैं हूँ – इस प्रकार की एक वृत्ति होती है। यह वृत्ति ही शरीर के साथ मिलकर मैं शरीर हूँ – इस प्रकार एकदेशीयता अर्थात् अहंकार उत्पन्न कर देती है। इसी के कारण शरीर , नाम , क्रिया , पदार्थ , भाव , ज्ञान , त्याग , देश , काल आदि के साथ अपना सम्बन्ध मानकर जीव ऊँच-नीच योनियों में जन्मता-मरता रहता है (गीता 13। 21)। यह अहंकार साधन में प्रायः बहुत दूर तक रहता है। वास्तव में इसकी सत्ता नहीं है फिर भी स्वयं की मान्यता होने के कारण व्यक्तित्व के रूप में इसका भान होता रहता है। भगवान द्वारा ज्ञान के साधनों में इस पद का प्रयोग किये जाने का तात्पर्य शरीरादि में माने हुए अहंकार का सर्वथा अभाव करने में है क्योंकि जड-चेतन का यथार्थ बोध होने पर इसका सर्वथा अभाव हो जाता है। मनुष्यमात्र अहंकाररहित हो सकता है इसीलिये भगवान यहाँ ‘अनहंकारः’ पद से अहंकार का त्याग करने की बात कहते हैं। अभिमान और अहंकार का प्रयोग एक साथ होने पर उनसे अलग-अलग भावों का बोध होता है। सांसारिक चीजों के सम्बन्ध से अभिमान पैदा होता है। ऐसे ही त्याग, वैराग्य , विद्या आदि को लेकर अपने में विशेषता देखने से भी अभिमान पैदा होता है। शरीर को ही अपना स्वरूप मानने से अंहकार पैदा होता है। यहाँ ‘अनहंकारः’ पद से अभिमान और अहंकार – दोनों के सर्वथा अभाव का अर्थ लेना चाहिये। मनुष्य को नींद से जगने पर सबसे पहले अहम् अर्थात् मैं हूँ – इस वृत्ति का ज्ञान होता है। फिर मैं अमुक शरीर , नाम , जाति , वर्ण , आश्रम आदि का हूँ – ऐसा अभिमान होता है। यह एक क्रम है। इसी प्रकार पारमार्थिक मार्ग में भी अहंकार के नाश का एक क्रम है। सबसे पहले स्थूलशरीर से सम्बन्धित धनादि पदार्थों का अभिमान मिटता है। फिर कर्मेन्द्रियों के सम्बन्ध से रहने वाले कर्तृत्वाभिमान का नाश होता है। उसके बाद बुद्धि की प्रधानता से रहने वाला ज्ञातापन का अहंकार मिटता है। अन्त में अहम् वृत्ति की प्रधानता से जो साक्षीपन का अहंकार है वह भी मिट जाता है। तब सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन स्वरूप स्वतः रह जाता है। उपाय – (1) अपने में श्रेष्ठता की भावना से ही अभिमान पैदा होता है। अभिमान तभी होता है जब मनुष्य दूसरों की तरफ देखकर यह सोचता है कि वे मेरी अपेक्षा तुच्छ है। जैसे गाँव भर  में एक ही लखपति हो तो दूसरोंको देखकर उसको लखपति होने का अभिमान होता है परन्तु अगर दूसरे सभी करोड़पति हों तो उसको अपने लखपति होने का अभिमान नहीं होता। अतः अभिमानरूप दोष को मिटाने के लिये साधक को चाहिये कि वह दूसरोंकी कमीकी तरफ कभी न देखे? प्रत्युत अपनी कमियोंको देखकर उनको दूर करे (टिप्पणी प0 681.1)।(2) एक ही आत्मा जैसे इस शरीरमें व्याप्त है? ऐसे ही वह अन्य शरीरोंमें भी व्याप्त है – सर्वगतः (गीता 2। 24) परन्तु मनुष्य अज्ञान से सर्वव्यापी आत्मा को एक अपने शरीर में ही सीमित मानकर शरीर को मैं मान लेता है। जैसे मनुष्य बैंक में रखे हुए बहुत से रुपयों में से केवल अपने द्वारा जमा किये हुए कुछ रुपयों में ही ममता कर के उनके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपने को धनी मान लेता है । ऐसे ही एक शरीर में मैं शरीर हूँ – ऐसी अहंता करके वह काल से सम्बन्ध मानकर मैं इस समयमें हूँ , देश से सम्बन्ध मानकर मैं यहाँ हूँ , बुद्धि से सम्बन्ध मानकर मैं समझदार हूँ , वाणी से सम्बन्ध मानकर मैं वक्ता हूँ आदि अहंकार कर लेता है। इस प्रकारके सम्बन्ध न मानना ही अहंकार रहित होने का उपाय है। (3) शास्त्रों में परमात्मा का सच्चिदानन्दघनरूप से वर्णन आया है। सत् (सत्ता) , चित् (ज्ञान) और आनन्द (अविनाशी सुख) – ये तीनों परमात्मा के भिन्न-भिन्न स्वरूप नही हैं बल्कि एक ही परमात्मतत्त्व के तीन नाम हैं। अतः साधक इन तीनों में से किसी एक विशेषण से भी परमात्मा का लक्ष्य करके निर्विकल्प (टिप्पणी प0 681.2) हो सकता है। निर्विकल्प होने से उसको परमात्मतत्त्व में अपनी स्वतःसिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है और अहंकार का सर्वथा नाश हो जाता है। इसको इस प्रकार समझना चाहिये  (क) सत् – परमात्मतत्त्व सदा से ही था , सदा से है और सदा ही रहेगा। वह कभी बनता-बिगड़ता नहीं , कम-ज्यादा भी नहीं होता, सदा ज्यों का त्यों रहता है – ऐसा बुद्धि के द्वारा विचार करके निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे साधक का बुद्धिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और उस सत्तत्त्व में अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव हो जाता है। ऐसा अनुभव होने पर फिर अहंकार नहीं रहता। (ख) चित् – जैसे प्रत्येक व्यक्ति के शरीरादि अहम् के अन्तर्गत दृश्य हैं – ऐसे ही अहम् भी (मैं , तू , यह और वह के रूप में ) एक ज्ञान के अन्तर्गत दृश्य है (टिप्पणी प0 681.3)। उस ज्ञान (चेतन) में निर्विकल्प होकर स्थिर हो जाने से परमात्मतत्त्व में स्वतःसिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है। फिर अहंकार नहीं रहता। (ग) आनन्द – साधक लोग प्रायः बुद्धि और अहम को प्रकाशित करने वाले चेतन को भी बुद्धि के द्वारा ही जानने की चेष्टा किया करते हैं। वास्तव में बुद्धि के द्वारा जाने अर्थात् सीखे हुए विषय को ज्ञान की संज्ञा देना और उससे अपने आपको ज्ञानी मान लेना भूल ही है। बुद्धि को प्रकाशित करने वाला तत्त्व बुद्धि के द्वारा कैसे जाना जा सकता है ? यद्यपि साधक के पास बुद्धि के सिवाय ऐसा और कोई साधन नहीं है जिससे वह तत्त्व जाना जा सके तथापि बुद्धि के द्वारा केवल जड संसार की वास्तविकता को ही जाना जा सकता है। बुद्धि जिससे प्रकाशित होती है उस तत्त्व को बुद्धि नहीं जान सकती। उस तत्त्व को जानने के लिये बुद्धि से भी सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है। बुद्धि को प्रकाशित करने वाले परमात्मतत्त्व में निर्विकल्परूप से स्थित हो जाने पर बुद्धि से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। फिर एक आनन्दस्वरूप (जहाँ दुःख का लेश भी नहीं है) परमात्मतत्त्व ही शेष रह जाता है जो स्वयं ज्ञानस्वरूप और सत्स्वरूप भी है। इस प्रकार तत्त्व में निर्विकल्प (चुप) हो जाने पर आनन्द ही आनन्द है – ऐसा अनुभव होता है। ऐसा अनुभव होने पर फिर अहंकार नहीं रहता।’जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्’ – जन्म , मृत्यु , वृद्धावस्था और रोगों के दुःखरूप दोषों को बार-बार देखने का तात्पर्य है — जैसे आँवा में मटका पकता है – ऐसे ही जन्म से पहले माता के उदर में बच्चा जठराग्नि में पकता रहता है। माता के खाये हुए नमक , मिर्च आदि क्षार और तीखे पदार्थों से बच्चे के शरीर में जलन होती है। गर्भाशय में रहने वाले सूक्ष्म जन्तु भी बच्चे को काटते रहते हैं। प्रसव के समय माता को जो पीड़ा होती है? उसका कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। वैसी ही पीड़ा उदरसे बाहर आते समय बच्चे को होती है। इस तरह जन्म के दुःखरूप दोषों का बार-बार विचार करके इस विचार को दृढ़ करना कि इसमें केवल दुःख ही दुःख है। जो जन्मता है उसको मरना ही पड़ता है – यह नियम है। इससे कोई बच ही नहीं सकता। मृत्यु के समय जब प्राण शरीर से निकलते हैं तब हजारों बिच्छू शरीर में एक साथ डंक मारते हों – ऐसी पीड़ा होती है। उम्र भर में कमाये हुए धन से , उम्र भर में रहे हुए मकानसे और अपने परिवार से जब वियोग होता है और फिर उनके मिलने की सम्भावना नहीं रहती तब (ममता-आसक्ति के कारण) बड़ा भारी दुःख होता है। जिस धन को कभी किसी को दिखाना नहीं चाहता था , जिस धन को परिवार वालों से छिपा-छिपा कर तिजोरी में रखा था उसकी चाबी परिवारवालों के हाथ में पड़ी देखकर मन में असह्य वेदना होती है। इस तरह मृत्यु के दुःखरूप दोषों को बार-बार देखे। वृद्धावस्था में शरीर और अवयवों की शक्ति क्षीण हो जाती है जिससे चलने-फिरने , उठने-बैठने में कष्ट होता है। हरेक तरह का भोजन पचता नहीं। बड़ा होने के कारण परिवार से आदर चाहता है पर कोई प्रयोजन न रहने से घरवाले निरादर , अपमान करते हैं। तब मन में पहले की बातें याद आती हैं कि मैंने धम कमाया है , इनको पाला-पोसा है पर आज ये मेरा तिरस्कार कर रहे हैं – इन बातों को लेकर बड़ा दुःख होता है। इस तरह वृद्धावस्था के दुःखरूप दोषों को बार-बार देखे। यह शरीर व्याधियों का , रोगों का घर है – ‘शरीरं व्याधिमन्दिरम्’। शरीर में वात पित्त , कफ आदि से पैदा होने वाले अनेक प्रकार के रोग होते रहते हैं और उन रोगों से शरीर में बड़ी पीड़ा होती है। इस तरह रोगों के दुःखरूप दोषों को बार-बार देखे। यहाँ बार-बार देखने का तात्पर्य बार-बार चिन्तन करने से नहीं है बल्कि विचार करने से है। जन्म , मृत्यु , वृद्धावस्था और रोगों के दुःखों को बार-बार देखने से अर्थात् विचार करने से उनके मूल कारण – उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों में राग स्वाभाविक ही कम हो जाता है अर्थात् भोगों से वैराग्य हो जाता है। तात्पर्य है कि जन्म , मृत्यु आदि के दुःखरूप दोषों को देखना भोगों से वैराग्य होने में कारण है क्योंकि भोगों के राग से अर्थात् गुणों के सङ्ग से ही जन्म होता है – ‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता 13। 21) और जो जन्म होता है वह सम्पूर्ण दुःखों का कारण है। भगवान ने पुनर्जन्म को दुःखालय बताया है – पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् (गीता 8। 15)। शरीर आदि जड पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध मानने से , उनको महत्त्व देने से , उनका आश्रय लेने से ही सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं – ‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति।’ परमात्मा का स्वरूप अथवा उसका ही अंश होने के ही कारण जीवात्मा स्वयं निर्दोष है – ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ (मानस 7। 117। 1)। यही कारण है कि जीवात्मा को दुःख और दोष अच्छे नहीं लगते क्योंकि वे इसके सजातीय नहीं हैं। जीव अपने द्वारा ही पैदा किये दोषों के कारण सदा दुःख पाता रहता है। अतः भगवान जन्म, मृत्यु आदि के दुःखरूप दोषों के मूल कारण देहाभिमान को विचारपूर्वक मिटाने के लिये कह रहे हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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