Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ 13.19
इति–इस प्रकार; क्षेत्रम्-क्षेत्र की प्रकृति; तथा—और; ज्ञानम्-ज्ञान का अर्थ; ज्ञेयम्-ज्ञान का विषय; च-और; उक्तम्-प्रकट करना; समासतः-संक्षेप में; मत् भक्त:-मेरा भक्त; एतत्-यह सब; विज्ञाय-जान कर; मत् भावाय-मेरी दिव्य प्रकृति; उपपद्यते-प्राप्त करता है।
इस प्रकार मैंने तुम्हें कर्म क्षेत्र अर्थात क्षेत्र की प्रकृति, ज्ञान अर्थात ज्ञान का अर्थ और ज्ञेय अर्थात ज्ञान का विषय या ज्ञान के लक्ष्य को संक्षेप में प्रकट किया है। इसे वास्तव में केवल मेरे भक्त ही पूर्णतः समझ सकते हैं और इसे जानकर वे मेरी दिव्य प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात मेरा भक्त इसको तत्त्व से जानकर मेरे भाव को अर्थात मेरे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। ॥13.19॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः – इसी अध्याय के पाँचवें और छठे श्लोक में जिसका वर्णन किया गया है वह क्षेत्र है 7वें से 11वें श्लोक तक जिस साधन-समुदाय का वर्णन किया गया है , वह ज्ञान है और 12वें से 17वें श्लोक तक जिसका वर्णन किया गया है? वह ज्ञेय है। इस तरह मैंने क्षेत्र , ज्ञान और ज्ञेय का संक्षेप से वर्णन किया है। मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते – मेरा भक्त क्षेत्र को , साधनसमुदायरूप ज्ञान को और ज्ञेय तत्त्व (परमात्मा) को तत्त्व से जानकर मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है। क्षेत्र को ठीक तरह से जान लेने पर क्षेत्र से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। ज्ञान को अर्थात् साधन-समुदाय को ठीक तरह से जानने से , अपनाने से देहाभिमान (व्यक्तित्व) मिट जाता है। ज्ञेय तत्त्व को ठीक तरह से जान लेने पर उसकी प्राप्ति हो जाती है अर्थात् परमात्मतत्त्व के साथ अभिन्नता का अनुभव हो जाता है। इसी अध्याय के पहले और दूसरे श्लोक में जिस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संक्षेप से वर्णन किया था उसी का विस्तार से वर्णन करनेके लिये आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी