Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

Previous           Menu          Next

 

 

Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

 

 

Bhagawad gita chapter 13अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.32।।

 

 

अनादित्वात्-आदि रहित; निर्गुणत्वात्-प्रकृति के गुणों से रहित; परम-सर्वोच्च; आत्मा-आत्मा; अयम्-यह; अव्ययः-अविनाशी; शरीर-स्थ:-शरीर में वास करने वाला; अपि – यद्यपि; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; न करोति-कुछ नहीं करता; न लिप्यते-न ही दूषित होता है।

 

 

हे कौन्तेय ! अनादि होने से और निर्गुण ( प्रकृति के गुणों से रहित ) होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है अर्थात वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है ॥13.32॥

 

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः – इसी अध्याय के 19वें श्लोक में जिसको अनादि कहा है उसीको यहाँ भी ‘अनादित्वात्’ पद से अनादि कहा है अर्थात् यह पुरुष आदि (आरम्भ) से रहित है। अब प्रश्न होता है कि वहाँ तो प्रकृति को भी अनादि कहा है इसलिये प्रकृति और पुरुष – दोनों में क्या फरक रहा ? इसके उत्तर में भगवान कहते हैं – ‘निर्गुणत्वात्’ अर्थात् यह पुरुष गुणों से रहित है। प्रकृति अनादि तो है पर वह गुणों से रहित नहीं है बल्कि गुणों और विकारों वाली है। उससे सात्त्विक , राजस और तामस – ये तीनों गुण तथा विकार पैदा होते हैं परन्तु पुरुष इन तीनों गुणों और विकारों से सर्वथा रहित (निर्गुण और निर्विकार) है। ऐसा यह पुरुष साक्षात अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है अर्थात् यह पुरुष विनाशरहित परम शुद्ध आत्मा है। ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ – यह पुरुष शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता है और न किसी कर्म से लिप्त ही होता है। तात्पर्य है कि इस पुरुष (स्वयं) ने न तो पहले किसी भी अवस्था में कुछ किया है , न वर्तमान में कुछ करता है और न आगे ही कुछ कर सकता है अर्थात् यह पुरुष सदा से ही प्रकृति से निर्लिप्त , असङ्ग है तथा गुणों से रहित और अविनाशी है। इसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व है ही नहीं। यहाँ ‘शरीरस्थोऽपि’ कहने का तात्पर्य है कि यह पुरुष जिस समय अपने को शरीर में स्थित मानकर अपने को कार्य का कर्ता और सुख-दुःख का भोक्ता मानता है उस समय भी वास्तव में यह तटस्थ , प्रकाशमात्र ही रहता है। सुख-दुःख का भान इसी से होता है । अतः इसको प्रकाशक कह सकते हैं पर इसमें प्रकाशक धर्म नहीं है। यहाँ ‘अपि’ पद से ऐसा मालूम होता है कि अनादिकाल से अपने को शरीर में स्थित मानने वाला हरेक (चींटी से ब्रह्मापर्यन्त) प्राणी स्वरूप से सदा ही निर्लिप्त , असङ्ग है। उसकी शरीर के साथ एकता कभी हुई ही नहीं क्योंकि शरीर तो प्रकृति का कार्य होने से सदा प्रकृति में ही स्थित रहता है और स्वयं परमात्मा का अंश होने से सदा परमात्मा में ही स्थित रहता है। स्वयं परमात्मा से कभी अलग हो सकता ही नहीं। शरीर के साथ एकात्मता मानने पर भी शरीर के साथ कितना ही घुल-मिल जाने पर भी शरीर को ही अपना स्वरूप मानने पर भी उसकी निर्लिप्तता कभी नष्ट नहीं होती । वह स्वरूप से सदा ही निर्लिप्त रहता है। अपनी निर्लिप्तता का अनुभव न होने पर भी उसके स्वरूप में कुछ भी विकृति नहीं होती। अतः उसने अपने स्वरूप से न कभी कुछ किया है और न करता ही है तथा वह स्वयं न कभी लिप्त हुआ है और न लिप्त होता ही है। यद्यपि पुरुष अपने को शरीर में स्थित मानने से ही कर्ता और भोक्ता बनता है तथापि 21वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि प्रकृति में स्थित पुरुष ही भोक्ता बनता है और यहाँ कहते हैं कि शरीर में स्थित होने पर भी पुरुष कर्ता-भोक्ता नहीं है। ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति और उसका कार्य शरीर – दोनों एक ही हैं। अतः पुरुष को चाहे प्रकृति में स्थित कहो , चाहे शरीर में स्थित कहो । एक ही बात है। एक शरीर के साथ सम्बन्ध होने से मात्र प्रकृति के साथ , मात्र शरीरों के साथ सम्बन्ध हो जाता है। वास्तव में पुरुष का सम्बन्ध न तो व्यष्टि शरीर के साथ है और न समष्टि प्रकृति के साथ ही है। अपना सम्बन्ध शरीर के साथ मानने से ही वह अपने को कर्ता-भोक्ता मान लेता है। वास्तव में वह न कर्ता है और न भोक्ता है। पूर्वश्लोक में कहा गया कि वह पुरुष न करता है और न लिप्त होता है तो अब प्रश्न होता है कि वह कैसे लिप्त नहीं होता और कैसे नहीं करता ? इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

        Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!