Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

 

 

Bhagawad gita chapter 13उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।13.23।।

 

 

उपद्रष्टा-साक्षी; अनुमन्ता–अनुमति देने वाला; च-भी; भर्ता-निर्वाहक; भोक्ता–परम भोक्ता; महा-ईश्वर:-परम नियंन्ता; परम्-आत्म-परमात्मा; इति-भी; च-तथा; अपि-निस्सन्देह; उक्तः-कहा गया है; देहे-शरीर में; अस्मिन्-इस; पुरुषःपर-परम प्रभु।

 

 

इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। यह पुरुष या आत्मा साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है अर्थात इस शरीर में पुरुष या आत्मा रुपी परमेश्वर भी रहता है। यह आत्मा रूप पुरुष शरीर रूप प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखने से ‘उपद्रष्टा’, उसके साथ मिलकर सम्मति, अनुमति देने से ‘अनुमन्ता’, अपने को उसका भरण पोषण करने वाला मानने से ‘भर्ता’, उसके सङ्गसे सुखदुःख भोगने से ‘भोक्ता’, और अपने को उसका स्वामी मानने से ‘महेश्वर’ बन जाता है। परन्तु स्वरूप से यह पुरुष ‘परमात्मा’ कहा जाता है। यह देह में रहता हुआ भी देह से पर या सम्बन्ध-रहित ही है। परम पुरुष ही  इस देह में साक्षी, अनुमति प्रदान करने वाला, सहायक, परम भोक्ता, परम नियन्ता और परमात्मा कहा जाता है॥13.23॥

 

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः – यह पुरुष स्वरूप से नित्य है , सब जगह परिपूर्ण है , स्थिर है , अचल है , सदा रहने वाला है (गीता 2। 24)। ऐसा होता हुआ भी जब यह प्रकृति और उसके कार्य शरीर की तरफ दृष्टि डालता है अर्थात् उनके साथ अपना सम्बन्ध मानता है तब इसकी उपद्रष्टा संज्ञा हो जाती है। यह हरेक कार्य के करने में सम्मति , अनुमति देता है। अतः इसका नाम अनुमन्ता है। यह एक व्यष्टि शरीर के साथ मिलकर उसके साथ तादात्म्य करके अन्न-जल आदि से शरीर का पालन-पोषण करता है , शीत-उष्ण आदि से उसका संरक्षण करता है। अतः इसका नाम भर्ता हो जाता है। यह शरीर के साथ मिलकर अनुकूल परिस्थिति के आने से अपने को सुखी मानता है और प्रतिकूल परिस्थिति के आने से अपने को दुःखी मानता है। अतः इसकी भोक्ता संज्ञा हो जाती है। यह अपने को शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि तथा धन , सम्पत्ति आदि का मालिक मानता है। अतः यह महेश्वर नाम से कहा जाता है। ‘परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः’ – पुरुष सर्वोत्कृष्ट है, परम आत्मा है । इसलिये शास्त्रों में इसको परमात्मा नाम से कहा गया है। यह देह में रहता हुआ भी देह के सम्बन्ध से स्वतः रहित है। आगे इसी अध्याय के 31वें श्लोक में इसके विषय में कहा गया है कि यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है। इस श्लोक में एक ही तत्त्व को भिन्न-भिन्न उपाधियों के सम्बन्ध से ‘उपद्रष्टा’ आदि पदों से सम्बोधित किया गया है । इसलिये इन पृथक – पृथक नामों से पुरुष के ही स्वरूप का वर्णन समझना चाहिये। वास्तव में उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। जैसे एक ही व्यक्ति देश , काल , वेश , सम्बन्ध आदि के अनुसार भिन्न-भिन्न (पिता , चाचा , नाना , भाई आदि ) नामों से पुकारा जाता है । ऐसे ही पुरुष भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने पर भी वास्तव में एक ही है। 19वें श्लोक से 22वें श्लोक तक प्रकृति और पुरुष का विवेचन करके अब आगे के श्लोक में उन दोनों को तत्त्व से जानने का फल बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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