Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय

 

 

Bhagavad Geeta chapter 13सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्‌ ।

असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥13.15

 

 

सर्व-सभी; इन्द्रिय-इन्द्रियों; गुण-इन्द्रिय विषय का; आभासम्–गोचर, जानने वाला ; सर्व-सभी; इन्द्रिय-इन्द्रियों से; विवर्जितम्-रहित; असक्तम्-अनासक्त; सर्वभृत्-सबके पालनहार; च-भी; एव–वास्तव में; निर्गुणम्-प्राकृत शक्ति के तीनों गुणों से परे; गुणभोक्तृ-प्रकृति के तीनों गुणों के भोक्ता; च- यद्यपि।

 

 

यद्यपि वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में वह सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला पालनहार है और निर्गुण ( गुणों से रहित ) होने पर भी प्रकृति के तीनों गुणों ( सतोगुण , रजोगुण , तमोगुण ) को भोगने वाला है॥13.15॥

 

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् – पहले परमात्मा हैं, फिर परमात्मा की शक्ति प्रकृति है। प्रकृति का कार्य महत्तत्त्व , महत्तत्त्व का कार्य अहंकार, अहंकार का कार्य पञ्चमहाभूत, पञ्चमहाभूतों का कार्य मन एवं दस इन्द्रियाँ और दस इन्द्रियों का कार्य पाँच विषय – ये सभी प्रकृति के कार्य हैं। परमात्मा प्रकृति और उसके कार्य से अतीत हैं। वे चाहे सगुण हों या निर्गुण , साकार हों या निराकार – सदा प्रकृति से अतीत ही रहते हैं। वे अवतार लेते हैं तो भी प्रकृति से अतीत ही रहते हैं। अवतार के समय वे प्रकृति को अपने वश में करके प्रकट होते हैं। जो अपने को गुणों में लिप्त गुणों से बँधा हुआ मानकर जन्मता-मरता था – वह बद्ध जीव भी जब परमात्मा को प्राप्त होने पर गुणातीत (गुणों से रहित) कहा जाता है तो फिर परमात्मा गुणों में बद्ध कैसे हो सकते हैं ? वे तो सदा ही गुणों से अतीत (रहित) हैं। अतः वे प्राकृत इन्द्रियों से रहित हैं अर्थात् संसारी जीवों की तरह हाथ , पैर , नेत्र , सिर , मुख , कान आदि इन्द्रियों से युक्त नहीं हैं किन्तु उन-उन इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में सर्वथा समर्थ है (टिप्पणी प0 689)। जैसे – वे कानों से रहित होने पर भी भक्तों की पुकार सुन लेते हैं , त्वचा से रहित होने पर भी भक्तों का आलिङ्गन करते हैं , नेत्रों से रहित होने पर भी प्राणिमात्र को निरन्तर देखते रहते हैं , रसना से रहित होने पर भी भक्तों के द्वारा लगाये हुए भोग का आस्वादन करते हैं आदि आदि। इस तरह ज्ञानेन्द्रियों से रहित होने पर भी परमात्मा शब्द , स्पर्श आदि विषयों को ग्रहण करते हैं। ऐसे ही वे वाणी से रहित होने पर भी अपने प्यारे भक्तों से बातें करते हैं , चरणों से रहित होने पर भी भक्त के पुकारने पर दौड़कर चले आते हैं, हाथों से रहित होने पर भी भक्त के दिये हुए उपहार को ग्रहण करते हैं आदि आदि। इस तरह कर्मेन्द्रियों से रहित होने पर भी परमात्मा कर्मेन्द्रियों का सब कार्य करते हैं। यही इन्द्रियों से रहित होने पर भी भगवान का इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करना है। असक्तं सर्वभृच्चैव – भगवान का सभी प्राणियों में अपनापन , प्रेम है पर किसी भी प्राणी में आसक्ति नहीं है। आसक्ति न होने पर भी वे ब्रह्मा से चींटी पर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं। जैसे माता-पिता अपने बालक का पालन-पोषण करते हैं , उससे कई गुना अधिक पालन-पोषण भगवान प्राणियों का करते हैं। कौन प्राणी कहाँ है ? और किस प्राणी को कब किसी वस्तु आदि की जरूरत पड़ती है ? इसको पूरी तरह जानते हुए भगवान उस वस्तु को आवश्यकतानुसार यथोचित रीति से पहुँचा देते हैं। प्राणी पृथ्वी पर हो , समुद्र में हो , आकाश में हो अथवा स्वर्ग में हो अर्थात् त्रिलोकी में कहीं भी । कोई छोटा से छोटा अथवा बड़ा से बड़ा प्राणी हो उसका पालन-पोषण भगवान करते हैं। प्राणिमात्र के सुहृद् होने से वे अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के द्वारा पाप-पुण्यों का नाश करके प्राणिमात्र को शुद्ध , पवित्र करते रहते हैं। निर्गुणं गुणभोक्तृ च – वे परमात्मा सम्पूर्ण गुणों से रहित होने पर भी सम्पूर्ण गुणों के भोक्त हैं। तात्पर्य है कि जैसे माता-पिता बालक की मात्र क्रियाओं को देखकर प्रसन्न होते हैं। ऐसे ही परमात्मा भक्त के द्वारा की हुई मात्र क्रियाओं को देखकर प्रसन्न होते हैं अर्थात् भक्तलोग जो भी क्रियाएँ करते हैं उन सब क्रियाओं के भोक्ता भगवान ही बनते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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