Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥13.4
तत्-वह; क्षेत्रम्-कर्मक्षेत्र; यत्-क्या; च-भी; यादृक्-उसकी प्रकृति; च-भी; यत् विकारि-यह परिवर्तन कैसे होते है; यतः-जिससे; च-भी; यत्-जोः सः-वह; च-भी; यः-जो; यत् प्रभाव:-उसकी शक्तियाँ क्या हैं; च-भी; तत्-उस; समासेन-संक्षेप में; मे-मुझसे; शृणु-सुनो।
वह क्षेत्र या कर्म क्षेत्र क्या है ? इसकी प्रकृति क्या है ? इसमें कैसे परिवर्तन होते है? यह कहाँ से और किस कारण से उत्पन्न हुआ है? किन विकारों वाला है? इस कर्म क्षेत्र का ज्ञाता या क्षेत्रज्ञ कौन है ? उसकी शक्तियाँ क्या हैं? वह किस प्रभाव वाला है ?वह सब संक्षेप में मुझसे सुन৷৷13.4৷৷
तत्क्षेत्रम् – ‘तत्’ शब्द ‘दो’ का वाचक होता है – पहले कहे हुए विषय का और दूरी का। इसी अध्याय के पहले श्लोक में जिसको ‘इदम्’ पद से कहा गया है उसी को यहाँ ‘तत् ‘ पद से कहा है। क्षेत्र सब देश में नहीं है , सब काल में नहीं है और अभी भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है – यह क्षेत्र की (स्वयं से) दूरी है। यच्च – उस क्षेत्र का जो स्वरूप है जिसका वर्णन इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक में हुआ है। यादृक् च – उस क्षेत्र का जैसा स्वभाव है जिसका वर्णन इसी अध्याय के 26वें-27वें श्लोकों में उसे उत्पन्न और नष्ट होने वाला बताकर किया गया है।यद्विकारि – यद्यपि प्रकृति का कार्य होने से इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक में आये तेईस तत्त्वों को भी विकार कहा गया है तथापि यहाँ उपर्युक्त पद से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के माने हुए सम्बन्ध के कारण क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले इच्छा-द्वेषादि विकारों को ही विकार कहा गया है , जिनका वर्णन छठे श्लोक में हुआ है। यतश्च यत् – यह क्षेत्र जिससे पैदा होता है अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सात विकार और तीन गुण , जिनका वर्णन इसी अध्याय के 19वें श्लोक के उत्तरार्ध में हुआ है। स च – पहले श्लोक के उत्तरार्ध में जिस क्षेत्रज्ञ का वर्णन हुआ है उसी क्षेत्रज्ञ का वाचक यहाँ ‘सः’ पद है और उसी के विषयमें यहाँ सुनने के लिये कहा जा रहा है। यः – इस क्षेत्रज्ञ का जो स्वरूप है जिसका वर्णन इसी अध्याय के 20वें श्लोक के उत्तरार्ध में और 22वें श्लोक में किया गया है। यत्प्रभावश्च – वह क्षेत्रज्ञ जिस प्रभाव वाला है जिसका वर्णन इसी अध्याय के 31वें से 33वें श्लोक तक किया गया है। तत्समासेन मे श्रृणु – यहाँ ‘तत्’ पद के अन्तर्गत क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ – दोनों को लेना चाहिये। तात्पर्य है कि वह क्षेत्र जो है , जैसा है , जिन विकारों वाला और जिससे पैदा हुआ है – इस तरह क्षेत्र के विषय में चार बातें और वह क्षेत्रज्ञ जो है और जिस प्रभाव वाला है – इस तरह क्षेत्रज्ञ के विषय में दो बातें तू मेरे से संक्षेप में सुन। यद्यपि इस अध्याय के आरम्भ में पहले दो श्लोकों में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का सूत्ररूप से वर्णन हुआ है जिसको भगवान ने ज्ञान भी कहा है तथापि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग का स्पष्ट-रूप से विवेचन (विकार सहित क्षेत्र और निर्विकार क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का प्रभाव सहित विवेचन) इस तीसरे श्लोक से आरम्भ किया गया है। इसलिये भगवान इसको सावधान होकर सुनने की आज्ञा देते हैं। इस श्लोक में भगवान ने क्षेत्र के विषय में तो चार बातें सुनने की आज्ञा दी है पर क्षेत्रज्ञ के विषय में केवल दो बातें – स्वरूप और प्रभाव ही सुनने की आज्ञा दी है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्षेत्र का प्रभाव भी क्यों नहीं कहा गया और साथ ही क्षेत्रज्ञ के स्वभाव , विकार और जिससे जो पैदा हुआ – इन विषयों पर भी क्यों नहीं कहा गया ? इसका समाधान यह है कि एक क्षण भी एक रूप में स्थिर न रहने वाले क्षेत्र का प्रभाव हो ही क्या सकता है ? प्रकृतिस्थ (संसारी) पुरुष के अन्तःकरण में धनादि जड पदार्थों का महत्त्व रहता है इसीलिये उसको संसार में क्षेत्र का (धनादि जड पदार्थों का) प्रभाव दिखता है। वास्तव में स्वतन्त्र रूप से क्षेत्र का कुछ भी प्रभाव नहीं है। अतः उसके प्रभाव का कोई वर्णन नहीं किया गया। क्षेत्रज्ञ का स्वरूप उत्पत्तिविनाशरहित है इसलिये उसका स्वभाव भी उत्पत्तिविनाशरहित है। अतः भगवान ने उसके स्वभाव का अलग से वर्णन न करके स्वरूप के अन्तर्गत ही कर दिया। क्षेत्र के साथ अपना सम्बन्ध मानने के कारण ही क्षेत्रज्ञ में इच्छा-द्वेषादि विकारों की प्रतीति होती है अन्यथा क्षेत्रज्ञ (स्वरूपतः) सर्वथा निर्विकार ही है। अतः निर्विकार क्षेत्रज्ञ के विकारों का वर्णन सम्भव ही नहीं। क्षेत्रज्ञ अद्वितीय , अनादि और नित्य है। अतः इसके विषय में कौन किससे पैदा हुआ ? यह प्रश्न ही नहीं बनता। पूर्वश्लोक में जिसको संक्षेप से सुनने के लिये कहा गया है उसका विस्तार से वर्णन कहाँ हुआ है – इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी