Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ 13.14
सर्वतः-सर्वत्र; पाणि-हाथ; पादम्-पैर; तत्-वह; सर्वतः-सर्वत्र; अक्षि-आँखें; शिरः-सिर; मुखम्-मुँह; सर्वतः-सर्वत्र; श्रुतिमत्-कानों से युक्त; लोके-संसार में; सर्वम्-हर वस्तु; आवृत्य-व्याप्त; तिष्ठति–अवस्थित है।
वह ( परमात्मा ) सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) ॥13.14॥
सर्वतः पाणिपादं तत् – जैसे स्याही में सब जगह सब तरह की लिपियाँ विद्यमान हैं । अतः लेखक स्याही से सब तरह की लिपियाँ लिख सकता है। सोने में सब जगह सब तरह के गहने विद्यमान हैं । अतः सुनार सोने में किसी भी जगह से जो गहना बनाना चाहे बना सकता है। ऐसे ही भगवान के सब जगह ही हाथ और पैर हैं । अतः भक्त भक्ति से जहाँ कहीं जो कुछ भी भगवान के हाथों में देना चाहता है ,अर्पण करना चाहता है , उसको ग्रहण करने के लिये उसी जगह भगवान के हाथ मौजूद हैं। भक्त बाहर से अर्पण करना चाहे अथवा मन से , पूर्व में देना चाहे अथवा पश्चिम में उत्तर में देना चाहे अथवा दक्षिण में उसे ग्रहण करनेके लिये वहीं भगवान के हाथ मौजूद हैं। ऐसे ही भक्त जल में , स्थल में , अग्नि में , जहाँ कहीं , जिस किसी भी संकट में पड़ने पर भगवान को पुकारता है , उसकी रक्षा करने के लिये वहाँ ही भगवान के हाथ तैयार हैं अर्थात् भगवान वहाँ ही अपने हाथों से उसकी रक्षा करते हैं।भक्त जहाँ कहीं भगवान के चरणों में चन्दन लगाना चाहता है , पुष्प चढ़ाना चाहता है , नमस्कार करना चाहता है , उसी जगह भगवान के चरण मौजूद हैं। हजारों लाखों भक्त एक ही समय में भगवान के चरणों की अलग-अलग पूजा करना चाहें तो उनके भाव के अनुसार वहाँ ही भगवान के चरण मौजूद हैं। ‘सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्’ – भक्त भगवान को जहाँ दीपक दिखाता है , आरती करता है , वहाँ ही भगवान के नेत्र हैं। भक्त जहाँ शरीर से अथवा मन से नृत्य करता है वहाँ ही भगवान उसके नृत्यको देख लेते हैं। तात्पर्य है कि जो भगवान को सब जगह देखता है भगवान भी उसकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होते (गीता 6। 30)। भक्त जहाँ भगवान के मस्तक पर चन्दन लगाना चाहे , पुष्प चढ़ाने चाहे , वहाँ ही भगवान का मस्तक है। भक्त जहाँ भगवान को भोग लगाना चाहे वहाँ ही भगवान का मुख है अर्थात् भक्त द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए पदार्थ को भगवान वहाँ ही खा लेते हैं (गीता 9। 26)। ‘सर्वतःश्रुतिमत्’ – भक्त जहाँ कहीं जोर से बोलकर प्रार्थना करे , धीरे से बोलकर प्रार्थना करे अथवा मन से प्रार्थना करे वहाँ ही भगवान अपने कानों से सुन लेते हैं। मनुष्यों के सब अवयव (अङ्ग) सब जगह नहीं होते अर्थात् जहाँ नेत्र हैं वहाँ कान नहीं होते और जहाँ कान हैं वहाँ नेत्र नहीं होते , जहाँ हाथ हैं वहाँ पैर नहीं होते और जहाँ पैर हैं वहाँ हाथ नहीं होते इत्यादि परन्तु भगवान की इन्द्रियाँ , उनके अवयव सब जगह हैं। अतः भगवान नेत्रों से सुन भी सकते हैं , बोल भी सकते हैं , ग्रहण भी कर सकते हैं इत्यादि। तात्पर्य है कि वे सभी अवयवों से सभी क्रियाएँ कर सकते हैं क्योंकि उनके सभी अवयवों में सभी अवयव मौजूद हैं। उनके छोटे से छोटे अंश में भी सब की सब इन्द्रियाँ हैं। भगवान के सब जगह हाथ , पैर , नेत्र , सिर , मुख और कान कहने का तात्पर्य है कि भगवान किसी भी प्राणी से दूर नहीं हैं। कारण कि भगवान सम्पूर्ण देश , काल, वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि में परिपूर्ण रूप से विद्यमान हैं। संतों ने कहा है — चहुँ दिसि आरति चहुँ दिसि पूजा। चहुँ दिसि राम और नहिं दूजा।। संसारी आदमी को जैसे बाहर-भीतर , ऊपर-नीचे सब जगह संसार ही संसार दिखता है , संसार के सिवाय दूसरा कुछ दिखता ही नहीं । ऐसे ही परमात्मा को तत्त्व से जानने वाले पुरुष को सब जगह परमात्मा ही परमात्मा दिखते हैं। लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति – अनन्त सृष्टियाँ हैं , अनन्त ब्रह्माण्ड हैं , अनन्त ऐश्वर्य हैं और उन सबमें देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि भी अनन्त हैं। वे सभी परमात्माके अन्तर्गत हैं। परमात्मा उन सबको व्याप्त करके स्थित हैं। दसवें अध्याय के 42वें श्लोक में भी भगवान ने कहा है कि मैं सारे संसार को एक अंश से व्याप्त करके स्थित हूँ। पूर्वश्लोक में सगुण निराकार का वर्णन करके अब आगे के तीन श्लोकों में उसकी विलक्षणता , सर्वव्यापकता और सर्वसमर्थता का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी