Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।13.22।।
पुरुषः-जीवात्मा; प्रकृतिस्थ:-भौतिक शक्ति में स्थित होकर; हि-निश्चय ही; भुक्ते-भोग की इच्छा; प्रकृतिजान्- भौतिक प्रकृति से उत्पन्न; गुणान्- प्रकृति के तीन गुणों को; कारणम्-कारण; गुणसङ्ग – प्रकृति के गुणों में आसक्ति; अस्य-जीव की; सत् असत्-अच्छी तथा बुरी; योनि-उत्तम और अधम योनियों में; जन्मसु-जन्म लेना।
प्रकृति में ( प्रकृति का अर्थ है भगवान की त्रिगुणमयी माया ) स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी या शुभ – अशुभ या ऊंची – नीची योनियों में जन्म लेने का कारण है। (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में , रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।) अर्थात पुरुष अर्थात जीव प्रकृति में स्थित हो जाता है, प्रकृति के तीनों गुणों के भोग की इच्छा करता है, उनमें आसक्त हो जाने के कारण उत्तम और अधम योनियों में जन्म लेता है॥13.22॥
‘पुरुषः प्रकृतिस्थो (टिप्पणी प0 697) हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ – वास्तव में पुरुष प्रकृति (शरीर) में स्थित है ही नहीं परन्तु जब वह प्रकृति (शरीर)के साथ तादात्म्य करके शरीर को मैं और मेरा मान लेता है तब वह प्रकृति में स्थित कहा जाता है। ऐसा प्रकृतिस्थ पुरुष ही (गुणों के द्वारा रचित अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को सुखदायी-दुःखदायी मानकर) अनुकूल परिस्थिति के आने पर सुखी होता है और प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर दुःखी होता है। यही पुरुष का प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनना है। जैसे मोटर दुर्घटना में मोटर और चालक – दोनोंका हाथ रहता है। क्रिया के होने में तो केवल मोटर की ही प्रधानता रहती है पर दुर्घटना का फल (दण्ड) मोटर से अपना सम्बन्ध जोड़ने वाले चालक (कर्ता) को ही भोगना पड़ता है। ऐसे ही सांसारिक कार्यों को करने में प्रकृति और पुरुष – दोनों का हाथ रहता है। क्रियाओं के होने में तो केवल शरीर की ही प्रधानता रहती है पर सुख-दुःख रूप फल शरीर से अपना सम्बन्ध जोड़ने वाले पुरुष (कर्ता) को ही भोगना पड़ता है। अगर वह शरीर के साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े और सम्पूर्ण क्रियाओं को प्रकृति के द्वारा ही होती हुई माने (गीता 13। 29) तो वह उन क्रियाओं का फल भोगने वाला नहीं बनेगा। ‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ – जिन योनियों में सुख की बहुलता होती है उनको सत्योनि कहते हैं और जिन योनियों में दुःख की बहुलता होती है उनको असत्योनि कहते हैं। पुरुष का सत्असत् योनियों में जन्म लेने का कारण गुणों का सङ्ग ही है। सत्त्व , रज और तम – ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। इन तीनों गुणों से ही सम्पूर्ण पदार्थों और क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। प्रकृतिस्थ पुरुष जब इन गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब ये उसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेनेका कारण बन जाते हैं।प्रकृति में स्थित होने से ही पुरुष प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है और यह गुणों का सङ्ग, आसक्ति , प्रियता ही पुरुष को ऊँच-नीच योनियों में ले जानेका कारण बनती है। अगर यह प्रकृतिस्थ न हो , प्रकृति (शरीर) में अहंता-ममता न करे , अपने स्वरूप में स्थित रहे तो यह पुरुष सुख-दुःख का भोक्ता कभी नहीं बनता बल्कि सुख-दुःख में सम हो जाता है , स्वस्थ हो जाता है (गीता 14। 24)। अतः यह प्रकृति में भी स्थित हो सकता है और अपने स्वरूपमें भी। अन्तर इतना ही है कि प्रकृतिमें स्थित होनेमें तो यह परतन्त्र है और स्वरूप में स्थित होने में यह स्वाभाविक स्वतन्त्र है। बन्धन में पड़ना इसका अस्वाभाविक है और मुक्त होना इसका स्वाभाविक है। इसलिये बन्धन इसको सुहाता नहीं है और मुक्त होना इसको सुहाता है। जहाँ प्रकृति और पुरुष – दोनों का भेद (विवेक) है वहाँ ही प्रकृति के साथ तादात्म्य करने का सम्बन्ध जोड़ने का अज्ञान है। इस अज्ञान से ही यह पुरुष स्वयं प्रकृति के साथ तादात्म्य कर लेता है। तादात्म्य कर लेने से यह पुरुष अपने को प्रकृतिस्थ अर्थात् प्रकृति (शरीर) में स्थित मान लेता है। प्रकृतिस्थ होने से शरीर में मैं और मेरापन हो जाता है। यही गुणों का सङ्ग है। इस गुणसङ्ग से पुरुष बँध जाता है (गीता 14। 5)। गुणों के द्वारा बँध जाने से ही पुरुष की गुणों के अनुसार गति होती है (गीता 14। 18)। 19वें , 20वें और 21वें श्लोक में प्रकृति और पुरुष का वर्णन हुआ। अब आगे के श्लोक में पुरुष का विशेषता से वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी