Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय

 

 

Bhagavad Geeta chapter 13अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ ।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ 13.12

 

 

अध्यात्म – आत्मा सम्बन्धी; ज्ञान-ज्ञान ; नित्यत्वम्-निरंतर; तत्त्वज्ञानं-आध्यात्मिक सिद्वान्तों का ज्ञान; अर्थ – हेतु; दर्शनम् – दर्शनशास्त्र; एतत्-यह सारा; ज्ञानम्-ज्ञान; इति-इस प्रकार; प्रोक्तम्-घोषित; अज्ञानम्-अज्ञान; यत्-जो; अत:-इससे; अन्यथा-विपरीत।

 

 

अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति या स्थिरता और परम सत्य की तात्त्विक खोज और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही सर्वत्र देखना- इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और जो भी इसके प्रतिकूल हैं उसे मैं अज्ञान कहूँगा 13.12॥

(जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम ‘अध्यात्म ज्ञान’ है। इस अध्याय के श्लोक 7 से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं, वे सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से ‘ज्ञान’ नाम से कहे गए हैं। ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत तो मान, दम्भ, हिंसा आदि हैं, वे अज्ञान की वृद्धि में हेतु होने से ‘अज्ञान’ नाम से कहे गए हैं। ) 

 

 

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् – सम्पूर्ण शास्त्रों का तात्पर्य मनुष्य को परमात्मा की तरफ लगाने में परमात्मप्राप्ति कराने में है – ऐसा निश्चय करने के बाद परमात्मतत्त्व जितना समझ में आया है उसका मनन करे। युक्ति-प्रयुक्ति से देखा जाय तो परमात्मतत्त्व भावरूप से पहले भी था , अभी भी है और आगे भी रहेगा परन्तु संसार पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं रहेगा तथा अभी भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है। संसार की तो उत्पत्ति और विनाश होता है पर उसका जो आधार है , प्रकाशक है वह परमात्मतत्त्व नित्य-निरन्तर रहता है। उस परमात्मतत्त्व के सिवाय संसार की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। परमात्मा की सत्ता से ही संसार सत्ता वाला दिखता है। इस प्रकार संसार की स्वतन्त्र सत्ता के अभाव का और परमात्मा की सत्ता का नित्य-निरन्तर मनन करते रहना ‘अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम्’ है। उपाय – आध्यात्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन तत्त्वज्ञ महापुरुषों से तत्त्वज्ञानविषयक श्रवण और प्रश्नोत्तर करना।तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् — तत्त्वज्ञानका अर्थ है — परमात्मा। उस परमात्माका ही सब जगह दर्शन करना? उसका ही सब जगह अनुभव करना ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ है। वह परमात्मा सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि में ज्यों का त्यों परिपूर्ण है। एकान्त में अथवा व्यवहार में सब समय साधक की दृष्टि उसका लक्ष्य केवल उस परमात्मा पर ही रहे। एक परमात्मा के सिवाय उसको दूसरी कोई सत्ता दिखे ही नहीं। सब जगह , सब समय समभाव से परिपूर्ण परमात्मा को ही देखने का उसका स्वभाव बन जाय – यही तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् है। इसके सिद्ध होने पर साधक को परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। ‘एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा’ – ‘अमानित्वम्’ से लेकर ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ तक ये जो बीस साधन कहे गये हैं। ये सभी साधन देहाभिमान मिटाने वाले होने से और परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में सहायक होने से ज्ञान नाम से कहे गये हैं। इन साधनों से विपरीत मानित्व , दम्भित्व , हिंसा आदि जितने भी दोष हैं , वे सभी देहाभिमान बढ़ाने वाले होने से और परमात्मतत्त्व से विमुख करने वाले होने से अज्ञान नाम से कहे गये हैं। विशेष बात- यदि साधक  में इतना तीव्र विवेक जाग्रत् हो जाय कि वह शरीर से माने हुए सम्बन्ध का त्याग कर सके तो उसमें यह साधन-समुदाय स्वतः प्रकट हो जाता है। फिर उसको इन साधनों का अलग-अलग अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। विनाशी शरीर को अपने अविनाशी स्वरूप से अलग देखना मूल साधन है। अतः सभी साधकों को चाहिये कि वे शरीर को अपने से अलग अनुभव करें जो कि वास्तव में अलग ही है । पूर्वोक्त किसी भी साधन का अनुष्ठान करने के लिये मुख्यतः दो बातों की आवश्यकता है – (1) साधक का उद्देश्य केवल परमात्मा को प्राप्त करना हो और (2) शास्त्रों को पढ़ते-सुनते समय यदि विवेक द्वारा शरीर को अपने से अलग समझ ले तो फिर दूसरे समय में भी उसी विवेक पर स्थिर रहे। इन दो बातों के दृढ़ होने से साधन-समुदाय के सभी साधन सुगम हो जाते हैं। शरीर तो बदल गया पर मैं वही हूँ जो कि बचपन में था – यह सबके अनुभव की बात है। अतः शरीर के साथ अपना सम्बन्ध वास्तविक न होकर केवल माना हुआ है – ऐसा निश्चय होने पर ही वास्तविक साधन आरम्भ होता है। साधक की बुद्धि जितने अंश में परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य को धारण करती है उतने ही अंश में उसमें विवेक की जागृति तथा संसार से वैराग्य हो जाता है। भगवान ने विवेक और वैराग्य को पुष्ट करने के लिये ज्ञान के आवश्यक साधनों का वर्णन किया है। जब मनुष्य का उद्देश्य परमात्मप्राप्ति करना ही हो जाता है तब दुर्गुणों एवं दुराचारों की जड़ कट जाती है चाहे साधक को इसका अनुभव हो या न हो जैसे वृक्ष की जड़ कटने पर भी बड़ी टहनी पर लगे हुए पत्ते कुछ दिन तक हरे दिखते हैं किन्तु वास्तव में उन पत्तों के हरेपन की भी जड़ कट चुकी है। इसलिये कुछ दिनों के बाद कटी हुई टहनी के पत्तों का हरापन मिट जाता है। ऐसे ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का दृढ़ उद्देश्य होते ही दुर्गुण-दुराचार मिट जाते हैं। यद्यपि साधक को आरम्भ में ऐसा अनुभव नहीं होता और उसको अपने में अवगुण दिखते हैं तथापि कुछ समय के बाद उनका सर्वथा अभाव दिखने लग जाता है। साधन करते समय कभी-कभी साधक को अपने में दुर्गुण दिखायी दे सकते हैं परन्तु वास्तव में साधन में लगने से पहले उसमें जो दुर्गुण रहे थे वे ही जाते हुए दिखायी देते हैं। यह नियम है कि दरवाजे से आने वाले और जाने वाले – दोनों ही दिखायी देते हैं। यदि साधन करते समय अपने में दुर्गुण बढ़ते हुए दिखते हों तो समझना चाहिये कि दुर्गुण आ रहे हैं परन्तु यदि अपने में दुर्गुण कम होते हुए दिखते हों तो समझना चाहिये कि दुर्गुण जा रहे हैं। ऐसी अवस्था में साधक को निराश नहीं होना चाहिये बल्कि अपने उद्देश्य पर दृढ़ रहकर तत्परतापूर्वक साधन में लगे रहना चाहिये। इस प्रकार साधन में लगे रहने से दुर्गुण-दुराचारों का सर्वथा अभाव हो जाता है। पूर्वोक्त ज्ञान (साधनसमुदाय) के द्वारा जिसको जाना जाता है उस साध्यतत्त्व का अब ज्ञेय नाम से वर्णन आरम्भ करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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