Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

Previous           Menu          Next

 

 

Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

 

 

Bhagawad gita chapter 13य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह।

सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।13.24।।

 

 

यः-जो; एवम्-इस प्रकार; वेत्ति–जानना है; पुरुषम्-जीव; प्रकृतिम्-भौतिक शक्ति; च-तथा; गुणैः-प्रकृति के तीनों गुणों के सह-साथ; सर्वथा-सभी प्रकार; वर्तमान:-स्थित होकर; अपि-यद्यपि; न कभी नहीं; स:-वह; भूयः-फिर से; अभिजायते-जन्म लेता है।

 

 

इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ या सब प्रकार से व्यवहार करता हुआ या रहता हुआ भी फिर कभी जन्म नहीं लेता है अर्थात वे जो परमात्मा, जीवात्मा या पुरुष और प्रकृति के सत्य और तीनों गुणों की अन्तःक्रिया को समझ लेते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। उनकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी भी हो वे मुक्त हो जाते हैं।॥13.24॥

(दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको ‘तत्व से जानना’ है)

 

  य एवं वेत्ति ৷৷. न स भूयोऽभिजायते – पूर्वश्लोक में ‘देहेऽस्मिन् पुरुषः परः’ पदों से पुरुष को देह से पर अर्थात् सम्बन्धरहित कहा है , उसी को यहाँ ‘एवम्’ पद से कहते हैं कि जो साधक इस तरह पुरुष को देह से , प्रकृति से पर अर्थात् सम्बन्धरहित जान लेता है तथा विकार , कार्य , करण , विषय आदि रूप से जो कुछ भी संसार दिखता है वह सब प्रकृति और उसके गुणों का कार्य है – ऐसा यथार्थरूप से जान लेता है वह फिर वर्ण , आश्रम , परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्म को करता हुआ भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। कारण कि जन्म होने में गुणों का सङ्ग ही कारण है (गीता 13। 21)। यहाँ सर्वथा ‘वर्तमानोऽपि’ पदों में निषिद्ध आचरण नहीं लेना चाहिये क्योंकि जो अपने को देह के सम्बन्ध से रहित अनुभव करता है और गुणों के सहित प्रकृति को अपने से अलग अनुभव करता है उसमें असत वस्तुओं की कामना पैदा हो ही नहीं सकती। कामना न होने से उसके द्वारा निषिद्ध आचरण होना असम्भव है क्योंकि निषिद्ध आचरण के होने में कामना ही हेतु है (गीता 3। 37)। भगवान यहाँ साधक को अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिये सावधान करते हैं जिससे वह अच्छी प्रकार जान ले कि स्वरूप में वस्तुतः कोई भी क्रिया नहीं है। अतः वह किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है और कर्ता न होने के कारण वह भोक्ता भी नहीं होता। साधक जब अपने आपको अकर्ता जान लेता है तब उसका कर्तापन का अभिमान स्वतः नष्ट हो जाता है और उसमें क्रिया की फलासक्ति भी नहीं रहती। फिर भी उसके द्वारा शास्त्रविहित क्रियाएँ स्वतः होती रहती हैं। गुणातीत होने के कारण वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। पूर्वश्लोक में भगवान ने  जन्मरहित होने में प्रकृति-पुरुष को यथार्थ जानना कारण बताया। अब यह जिज्ञासा होती है कि क्या जन्म-मरण से रहित होने का और भी कोई उपाय है ? इस पर भगवान आगे के दो श्लोकों में चार साधन बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

      Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!