Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥13.10
असक्ति-आसक्ति; अनभिष्वङ्गः-लालसा या मोह और ममता रहित; पुत्र-पुत्र; दार-स्त्री; गृह आदिषु – घर गृहस्थी आदि में; नित्यम्-निरंतर; च-भी; सम-चित्तवम्-समभाव; इष्ट – इच्छित; अनिष्ट-अवांछित; उपपत्तिषु-प्राप्त करके;
पुत्र, स्त्री, घर-गृहस्थी और धन- संपत्ति आदि में आसक्ति और ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में अर्थात जीवन में वांछित और अवांछित घटनाओं या अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना अर्थात एक समान रहना – यह ज्ञान कहा गया है।॥13.10॥
असक्तिः – उत्पन्न होने वाली (सांसारिक) वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि में जो प्रियता है उसको सक्ति कहते हैं। उस सक्ति से रहित होने का नाम असक्ति है। सांसारिक वस्तुओं , व्यक्तियों आदि से सुख लेने की इच्छा से , सुख की आशा से और सुख के भोग से ही मनुष्य की उनमें आसक्ति , प्रियता होती है। कारण कि मनुष्य को संयोग के सिवाय सुख नहीं दिखता । इसलिये उसको संयोगजन्य सुख प्रिय लगता है परन्तु वास्तविक सुख संयोग के वियोग से होता है (गीता 6। 23) इसलिये साधक के लिये सांसारिक आसक्ति का त्याग करना बहुत आवश्यक है। उपाय – संयोगजन्य सुख आरम्भ में तो अमृत की तरह दिखता है पर परिणाम में विष की तरह होता है (गीता 18। 38)। संयोगजन्य सुख भोगने वाले को परिणाम में दुःख भोगना ही पड़ता है – यह नियम है। अतः संयोगजन्य सुख के परिणाम पर दृष्टि रखने से उसमें आसक्ति नहीं रहती। ‘अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु’ – पुत्र , स्त्री , घर , धन , जमीन ,पशु आदि के साथ माना हुआ जो घनिष्ठ सम्बन्ध है , गाढ़ मोह है , तादात्म्य है , मानी हुई एकात्मता है जिसके कारण शरीर पर भी असर पड़ता है उसका नाम ‘अभिष्वङ्ग’ है (टिप्पणी प0 683)। जैसे – पुत्र के साथ माता की एकात्मता रहने के कारण जब पुत्र बीमार हो जाता है तब माता का शरीर कमजोर हो जाता है। ऐसे ही पुत्र के , स्त्री के मर जाने पर मनुष्य कहता है कि मैं मर गया। धन के चले जाने पर कहता है कि मैं मारा गया आदि। ऐसी एकात्मता से रहित होने के लिये यहाँ ‘अनभिष्वङ्गः’ पद आया है। उपाय – जिनके साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध दिखे , उनकी सेवा करे , उनको सुख पहुँचाये पर उनसे सुख लेने का उद्देश्य न रखे। उद्देश्य तो उनसे अभिष्वङ्ग (तादात्म्य) दूर करने का ही रखे। अगर उनसे सेवा लेने का उद्देश्य रखेंगे तो उनसे तादात्म्य हो जायगा। हाँ, उनकी प्रसन्नता के लिये कभी उनसे सेवा लेनी भी पड़े तो उसमें राजी न हो क्योंकि राजी होने से ‘अभिष्वङ्ग’ हो जायगा। तात्पर्य है कि किसीके साथ अपनेको लिप्त न करे। इस बात की बहुत सावधानी रखे। ‘नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु’ – इष्ट अर्थात् मन के अनुकूल वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना आदि के प्राप्त होने पर चित्त में राग , हर्ष , सुख आदि विकार न हो और अनिष्ट अर्थात् मन के प्रतिकूल वस्तु , व्यक्ति आदि के प्राप्त होने पर चित्त में द्वेष , शोक , दुःख , उद्वेग आदि विकार न हो। तात्पर्य है कि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के प्राप्त होने पर चित्त में निरन्तर समता रहे , चित्त पर उसका कोई असर न पड़े। इसको भगवान ने ‘सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा’ (2। 48)। पदों से भी कहा है। उपाय – मनुष्य को जो कुछ अनुकूल सामग्री मिली है उसको वह अपने लिये मानकर सुख भोगता है – यह महान बाधक है। कारण कि संसार की सामग्री केवल संसार की सेवा में लगाने के लिये ही मिली है । अपने शरीर-इन्द्रियों को सुख पहुँचाने के लिये नहीं। ऐसे ही मनुष्य को जो कुछ प्रतिकूल सामग्री मिली है वह दुःख भोगने के लिये नहीं मिली है बल्कि संयोगजन्य सुख का त्याग करने के लिये , मनुष्य को सांसारिक राग, आसक्ति , कामना , ममता आदि से छुड़ाने के लिये ही मिली है। तात्पर्य है कि अनुकूल और प्रतिकूल – दोनों परिस्थितियाँ मनुष्य को सुख-दुःख से ऊँचा उठाकर (उन दोनों से अतीत) परमात्मतत्त्व को प्राप्त कराने के लिये ही मिली हैं – ऐसा दृढ़ता से मान लेने से साधक का चित्त इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में स्वतः सम रहेगा – स्वामी रामसुखदास जी