Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ 13.11
मयि-मुझ में; च-भी; अनन्ययोगेन-अनन्य रूप से एकीकृत; भक्ति:-भक्ति; अव्यभिचारिणी- अचल , अविचल , दृढ , अनन्य , अविरल ; विविक्त-एकान्त; देश-स्थानों की; सेवित्वम्-इच्छा करते हुए; अरति:-विरक्त भाव से; जनसंसदि-लौकिक समुदाय के लिए;
मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी अर्थात अविचल और अनन्य भक्ति तथा एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और लौकिक समुदाय या विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में अरुचि , विमुखता और प्रेम का न होना अर्थात मनुष्यों के समुदाय के व्यर्थ कोलाहल से दूर रहकर शांति में चित्त की रुचि होना – यह ज्ञान कहा गया है ॥13.11॥
(केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना ‘अव्यभिचारिणी’ भक्ति है। सनातन परमेश्वर के प्रति हृदय की गहरी और सदा बनी रहने वाली उपासना )
‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी’ – संसार का आश्रय लेने के कारण साधक का देहाभिमान बना रहता है। यह देहाभिमान अव्यक्त के ज्ञान में प्रधान बाधा है। इसको दूर करने के लिये भगवान यहाँ तत्त्वज्ञान का उद्देश्य रखकर अनन्ययोग द्वारा अपनी अव्यभिचारिणी भक्ति करने का साधन बता रहे हैं। तात्पर्य है कि भक्तिरूप साधन से भी देहाभिमान सुगमतापूर्वक दूर हो सकता है।भगवान के सिवाय और किसी से कुछ भी पाने की इच्छा न हो अर्थात् भगवान के सिवाय मनुष्य , गुरु , देवता , शास्त्र आदि मेरे को उस तत्त्व का अनुभव करा सकते हैं तथा अपने बल , बुद्धि , योग्यता से मैं उस तत्त्व को प्राप्त कर लूँगा – इस प्रकार किसी भी वस्तु व्यक्ति आदि का सहारा न हो और भगवान की कृपा से ही मेरे को उस तत्त्व का अनुभव होगा – इस प्रकार केवल भगवान का ही सहारा हो — यह भगवान में अनन्ययोग होना है। अपना सम्बन्ध केवल भगवान के साथ ही हो , दूसरे किसी के साथ किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न हो – यह भगवान में अव्यभिचारिणी भक्ति होना है। तात्पर्य है कि तत्त्वप्राप्ति का साधन (उपाय) भी भगवान ही हों और साध्य (उपेय) भी भगवान ही हों — यही अनन्ययोगके द्वारा भगवान्में अव्यभिचारिणी भक्तिका होना है। जिस साधक में ज्ञान के साथ-साथ भक्ति के भी संस्कार हों उसके लिये यह साधन बहुत उपयोगी है। भक्तिपरायण साधक अगर तत्त्वज्ञान का उद्देश्य रखकर एकमात्र भगवान का ही आश्रय ग्रहण करता है तो केवल इसी साधन से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। गुणातीत होने के उपायों में भी भगवान ने अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही है (गीता 14। 26)। शङ्का – यहाँ तो भक्ति से तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति बतायी गयी है और 18वें अध्याय के 54वें-55वें श्लोकों में ज्ञान से भक्ति की प्राप्ति कही गयी है – ऐसा क्यों ? समाधान – जैसे भक्ति दो प्रकार की होती है – साधनभक्ति और साध्यभक्ति – ऐसे ही ज्ञान भी दो प्रकार का होता है – साधनज्ञान और साध्यज्ञान। साध्यभक्ति और साध्यज्ञान – दोनों तत्त्वतः एक ही हैं। साधनभक्ति और साधनज्ञान — ये दोनों साध्यभक्ति अथवा साध्यज्ञान की प्राप्ति के साधन हैं। अतः जहाँ भक्ति से तत्त्वज्ञान (साध्यज्ञान) की प्राप्ति की बात कही है वह भी ठीक है और जहाँ ज्ञान से पराभक्ति (साध्यभक्ति ) की प्राप्ति की बात कही है , वह भी ठीक है। अतः साधक को चाहिये कि उसमें कर्म, ज्ञान अथवा भक्ति – जिस संस्कार की प्रधानता हो, उसी के अनुरूप साधन में लग जाय। सावधानी केवल इतनी रखे कि उद्देश्य केवल परमात्मा का ही हो , प्रकृति अथवा उसके कार्य का नहीं। ऐसा उद्देश्य होने पर वह उसी साधन से परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। शङ्का – भगवान ने ज्ञान के साधनों में अपनी भक्ति को किसलिये बताया ? क्या ज्ञानयोग का साधक भगवान की भक्ति भी करता है ? समाधान – ज्ञानयोग के साधक (जिज्ञासु) दो प्रकार के होते हैं – भावप्रधान (भक्तिप्रधान) और विवेकप्रधान (ज्ञानप्रधान)। (1) भावप्रधान जिज्ञासु वह है जो भगवान का आश्रय लेकर तत्त्व को जानना चाहता है (गीता 7। 16 13। 18)। इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘माम्’ , ‘मम्’ तीसरे श्लोक में इस (दसवें) श्लोक में ‘मयि’ और 18वें श्लोक में ‘मद्भक्तः’ तथा ‘मद्भावाय’ पदों के आने से सिद्ध होता है कि 18वें श्लोक तक भावप्रधान जिज्ञासु का प्रकरण है परन्तु 19वें से 34वें श्लोक तक एक बार भी अस्मद् (मैं वाचक) पद का प्रयोग नहीं हुआ है इसलिये वहाँ विवेकप्रधान जिज्ञासु का प्रकरण है। अतः यहाँ भावप्रधान जिज्ञासु का प्रसङ्ग होने से ज्ञान के साधनों के अन्तर्गत भक्तिरूप साधन का वर्णन किया गया है। दूसरी बात – जैसे सात्त्विक भोजन में पुष्टि के लिये घी या दूध की आवश्यकता होती है तो वहाँ घी और दूध सात्त्विक भोजन के साथ मिलकर भी पुष्टि करते हैं और अकेले-अकेले भी पुष्टि करते हैं। ऐसे ही भगवान की भक्ति ज्ञान के साधनों में मिलकर भी परमात्मप्राप्ति में सहायक होती है और अकेली भी गुणातीत बना देती है (गीता 14। 26)। पातञ्जलयोगदर्शन में भी परमात्मप्राप्ति के लिये अष्टाङ्गयोग के साधनों में सहायक रूप से ईश्वरप्रणिधान अर्थात् भक्तिरूप नियम कहा है (टिप्पणी प0 684.1) और उसी भक्ति को स्वतन्त्ररूप से भी कहा है (टिप्पणी प0 684.2)। इससे सिद्ध होता है कि भक्तिरूप साधन अपनी एक अलग विशेषता रखता है। इस विशेषता के कारण भी ज्ञान के साधनों में भक्ति का वर्णन किया गया है। (2) विवेकप्रधान जिज्ञासु वह है जो सत – असत विचार करते हुए तीव्र विवेक-वैराग्य से युक्त होकर तत्त्व को जानना चाहता है (गीता 13। 19 — 34)। विचार करके देखा जाय तो आजकल आध्यात्मिक जिज्ञासा की कमी और भोगासक्ति की बहुलता के कारण विवेकप्रधान जिज्ञासु बहुत कम देखने में आते हैं। ऐसे साधकों के लिये भक्तिरूप साधन बहुत उपयोगी है। अतः यहाँ भक्ति का वर्णन करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। उपाय – केवल भगवान को ही अपना मानना और भगवान का ही आश्रय लेकर श्रद्धाविश्वासपूर्वक भगवन्नाम का जप , कीर्तन , चिन्तन , स्मरण आदि करना ही भक्ति का सुगम उपाय है। ‘विविक्तदेशसेवित्वम् ‘ – मैं एकान्त में रहकर परमात्मतत्त्व का चिन्तन करूँ , भजन-स्मरण करूँ , सत्शास्त्रों का स्वाध्याय करूँ उस तत्त्व को गहरा उतरकर समझूँ । मेरी वृत्तियों में और मेरे साधन में कोई भी विघ्नबाधा न पड़े? मेरे साथ कोई न रहे और मैं किसीके साथ न रहूँ — साधककी ऐसी स्वाभाविक अभिलाषाका नाम,विविक्तदेशसेवित्व है। तात्पर्य यह हुआ कि साधककी रुचि तो एकान्तमें रहनेकी ही होनी चाहिये? पर ऐसा एकान्त न मिले तो मनमें किञ्चिन्मात्र भी विकार नहीं होना चाहिये। उसके मनमें यही विचार होना चाहिये कि संसारके सङ्गका? संयोगका तो स्वतः ही वियोग हो रहा है और स्वरूप में असङ्गता स्वतःसिद्ध है। इस स्वतःसिद्ध असङ्गता में संसार का सङ्ग , संयोग , सम्बन्ध कभी हो ही नहीं सकता। अतः संसार का सङ्ग कभी बाधक हो ही नहीं सकता। केवल निर्जन वन आदि में जाकर और अकेले पड़े रहकर यह मान लेना कि मैं एकान्त स्थान में हूँ वास्तव में भूल ही है क्योंकि सम्पूर्ण संसार का बीज यह शरीर तो साथ में है ही। जब तक इस शरीर के साथ सम्बन्ध है तब तक सम्पूर्ण संसार के साथ सम्बन्ध बना ही हुआ है। अतः एकान्त स्थान में जाने का लाभ तभी है जब देहाभिमान के नाश का उद्देश्य मुख्य हो। वास्तविक एकान्त वह है जिसमें एक तत्त्व के सिवाय दूसरी कोई चीज न उत्पन्न हुई , न है और न होगी। जिसमें न इन्द्रियाँ हैं , न प्राण हैं , न मन है और न अन्तःकरण है। जिसमें न स्थूलशरीर है , न सूक्ष्मशरीर है और न कारण शरीर है। जिसमें न व्यष्टि शरीर है और न समष्टि संसार है। जिसमें केवल एक तत्त्व ही तत्त्व है अर्थात् एक तत्त्व के सिवाय और कुछ है ही नहीं। कारण कि एक परमात्मतत्त्व के सिवाय पहले भी कुछ नहीं था और अन्त में भी कुछ नहीं रहेगा। बीच में जो कुछ प्रतीत हो रहा है वह भी प्रतीतिके द्वारा ही प्रतीत हो रहा है अर्थात् जिनसे संसार प्रतीत हो रहा है? वे इन्द्रियाँ अन्तःकरण आदि भी स्वयं प्रतीति ही हैं। अतः प्रतीतिके द्वारा ही प्रतीति हो रही है। हमारा (स्वरूपका) सम्बन्ध शरीर और अन्तःकरणके साथ कभी हुआ ही नहीं क्योंकि शरीर और अन्तःकरण प्रकृतिका कार्य है और स्वरूप सदा ही प्रकृतिसे अतीत है। इस प्रकार अनुभव करना ही वास्तवमें विविक्तदेशसेवित्व है। ‘अरतिर्जनसंसदि’ – साधारण मनुष्य-समुदाय में प्रीति , रुचि न हो अर्थात् कहाँ क्या हो रहा है? कब क्या होगा? कैसे होगा ? आदि आदि सांसारिक बातों को सुनने की कोई भी इच्छा न हो तथा समाचार सुनाने वाले लोगों से मिलें कुछ समाचार प्राप्त करें – ऐसी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा प्रीति न हो परन्तु हमारे से कोई तत्त्व की बात पूछना चाहता है , साधन के विषय में चर्चा करना चाहता है उससे मिलनेके लिये मन में जो इच्छा होती है वह ‘अरतिर्जनसंसदि’ नहीं है। ऐसे ही जहाँ तत्त्व की बात होती हो आपस में तत्त्व का विचार होता हो अथवा हमारी दृष्टि में कोई परमात्मतत्त्व को जानने वाला हो – ऐसे पुरुषों के सङ्ग की जो रुचि होती है वह जनसमुदाय में रुचि नहीं कहलाती बल्कि वह तो आवश्यक है। कहा भी गया है – ‘सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्युक्तं न शक्यते। स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम्।।’ अर्थात् आसक्तिपूर्वक किसी का भी सङ्ग नहीं करना चाहिये परन्तु अगर ऐसी असङ्गता न होती हो तो श्रेष्ठ पुरुषों का सङ्ग करना चाहिये। कारण कि श्रेष्ठ पुरुषों का सङ्ग असङ्गता प्राप्त करने की औषध है – स्वामी रामसुखदास जी