Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.31।।
यदा-जब; भूत-जीव; पृथक् भावम् – विभिन्न जीवन रूप, विविध प्रकार के भाव ; एकस्थम्-एक स्थान पर; अनुपश्यति-देखता है; तत:-तत्पश्चात; एव-वास्तव में; च-और; विस्तारम्-जन्म से; ब्रह्म-ब्रह्म; सम्पद्यते-वे प्राप्त करते हैं; तदा-उस समय।
जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥13.31॥
[प्रकृति के दो रूप हैं – क्रिया और पदार्थ। क्रिया से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये 29वाँ श्लोक कहा अब पदार्थ से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये यह 30वाँ श्लोक कहते हैं।] ‘यदा भूतपृथग्भावं ৷৷. ब्रह्म सम्पद्यते तदा’ – जिस काल में साधक सम्पूर्ण प्राणियों के अलग-अलग भावों को अर्थात् त्रिलोकी में जितने जरायुज , अण्डज , उद्भिज्ज और स्वेदज प्राणी पैदा होते हैं उन प्राणियों के स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीरों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। त्रिलोकी के स्थावर-जङ्गम प्राणियों के शरीर , नाम, रूप , आकृति , मनोवृत्ति , गुण , विकार , उत्पत्ति , स्थिति , प्रलय आदि सब एक प्रकृति से ही उत्पन्न हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं , प्रकृति में ही स्थित रहते हैं और प्रकृति में ही लीन होते हैं। इस प्रकार देखने वाला ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है अर्थात् प्रकृति से अतीत स्वतःसिद्ध अपने स्वरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। वास्तव में वह पहले से ही प्राप्त था? केवल प्रकृतिजन्य पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही उसको अपने स्वरूप का अनुभव नहीं होता था परन्तु जब वह सबको प्रकृति में ही स्थित और प्रकृति से ही उत्पन्न देखता है तब उसको अपने स्वतःसिद्ध स्वरूप का अनुभव हो जाता है। जैसे पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले स्थावर-जङ्गम जितने भी शरीर हैं तथा उन शरीरों में जो कुछ भी परिवर्तन होता है , रूपान्तर होता है (टिप्पणी प0 705.1) , क्रियाएँ होती हैं (टिप्पणी प0 705.2) वे सब पृथ्वी पर ही होती हैं। ऐसे ही प्रकृति से उत्पन्न होने वाले जितने गुण , विकार हैं तथा उनमें जो कुछ परिवर्तन होता है , घट-बढ़ होती है , वह सब की सब प्रकृति में ही होती है। तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वी से पैदा होने वाले पदार्थ पृथ्वी में ही स्थित रहने से और पृथ्वी में लीन होने से पृथ्वीरूप ही हैं । ऐसे ही प्रकृति से पैदा होने वाला सब संसार प्रकृति में ही स्थित रहने से और प्रकृति में ही लीन होने से प्रकृतिरूप ही है। इसी प्रकार स्थावर-जङ्गम प्राणियों के रूप में जो चेतनतत्त्व है वह निरन्तर परमात्मा में ही स्थित रहता है। प्रकृति के सङ्ग से उसमें कितने ही विकार क्यों न दिखें पर वह सदा असङ्ग ही रहता है। ऐसा स्पष्ट अनुभव हो जाने पर साधक ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। यह नियम है कि प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मानने के कारण स्वार्थबुद्धि , भोगबुद्धि , सुखबुद्धि आदि से प्राणियों को अलग-अलग भाव से देखने पर राग-द्वेष पैदा हो जाते हैं। राग होने पर उनमें गुण दिखायी देते हैं और द्वेष होने पर दोष दिखायी देते हैं। इस प्रकार दृष्टि के आगे राग-द्वेषरूप परदा आ जाने से वास्तविकता का अनुभव नहीं होता परन्तु जब साधक अपने कहलाने वाले स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर सहित सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति , स्थिति और विनाश को प्रकृति में ही देखता है तथा अपने में उनका अभाव देखता है तब उसकी दृष्टि के आगे से राग-द्वेष रूप परदा हट जाता है और उसको स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। 22वें श्लोक में जिसको देह से पर बताया है और पीछे के (30वें) श्लोक में जिसका ब्रह्म को प्राप्त होना बताया है उस पुरुष (चेतन ) के वास्तविक स्वरूप का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी