Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
श्रीभगवानुवाच
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥13.3
क्षेत्रज्ञम्-क्षेत्र का ज्ञाता; च-भी; अपि-निश्चय ही; माम्-मुझको; विद्धि-जानो; सर्व-समस्त; क्षेत्रेषु – शरीर के कर्मों का क्षेत्र; भारत-भरतवंशी; क्षेत्र-कर्मक्षेत्र; क्षेत्रज्ञयो:-क्षेत्र का ज्ञाता; ज्ञानम्-जानना; यत्-जो; तत्-वह; ज्ञानम्-ज्ञान; मतम्-मत; मम–मेरा।
हे अर्जुन! तू समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ ( जीवात्मा ) भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है ( कि मैं वासुदेव ही समस्त शरीरों के कर्म क्षेत्रों का ज्ञाता हूँ अर्थात कर्म क्षेत्र के रूप में शरीर, आत्मा तथा भगवान को इस शरीर के ज्ञाता के रूप में जान लेना ही ) मेरे मतानुसार सच्चा ज्ञान है ৷৷13.3৷৷
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत – सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीरों ) में मैं हूँ – ऐसा जो अहंभाव है उसमें ‘मैं ‘ तो क्षेत्र है (जिसको पूर्वश्लोक में ‘एतत् ‘ कहा है ) और ‘हूँ ‘ मैंपन का ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है (जिसको पूर्वश्लोक में ‘वेत्ति’ पद से जानने वाला कहा है )। ‘मैं ‘ का सम्बन्ध होने से ही ‘हूँ ‘ है। अगर ‘मैं ‘ का सम्बन्ध न रहे तो ‘हूँ ‘ नहीं रहेगा बल्कि ‘है ‘ रहेगा। कारण कि है ही ‘मैं ‘ के साथ सम्बन्ध होने से ‘हूँ ‘ कहा जाता है। अतः वास्तव में क्षेत्रज्ञ (हूँ ) की परमात्मा (है) के साथ एकता है। इसी बात को भगवान यहाँ कह रहे हैं कि सम्पूर्ण क्षेत्रों में मेरे को ही क्षेत्रज्ञ समझो। मनुष्य किसी विषय को जानता है तो वह जानने में आने वाला विषय ज्ञेय कहलाता है। उस ज्ञेय को वह किसी करण के द्वारा ही जानता है। करण दो तरह का होता है – बहिःकरण और अन्तःकरण। मनुष्य विषयों को बहिःकरण (श्रोत्र , नेत्र आदि ) से जानता है और बहिःकरण को अन्तःकरण (मन , बुद्धि आदि ) से जानता है। उस अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ हैं – मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार। इन चारों में भी अहंकार सबसे सूक्ष्म है जो कि एकदेशीय है। यह अहंकार भी जिससे देखा जाता है , जाना जाता है वह जानने वाला प्रकाशस्वरूप क्षेत्रज्ञ है। उस अहंभाव के भी ज्ञाता क्षेत्रज्ञ को साक्षात् मेरा स्वरूप समझो। यहाँ ‘विद्धि’ पद कहने का तात्पर्य है कि हे अर्जुन ! जैसे तू अपने को शरीर में मानता है और शरीर को अपना मानता है – ऐसे ही तू अपने को मेरे में जान (मान ) और मेरे को अपना मान । कारण कि तुमने शरीर के साथ जो एकता मान रखी है उसको छोड़ने के लिये मेरे साथ एकता माननी बहुत आवश्यक है। जैसे यहाँ भगवान ने ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि ‘पदों से क्षेत्रज्ञ की अपने साथ एकता बतायी है – ऐसे ही गीता में अन्य जगह भी एकता बतायी है जैसे – दूसरे अध्याय के 17वें श्लोक में भगवान ने शरीरी (क्षेत्रज्ञ )के लिये कहा कि जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है उसको तुम अविनाशी समझो – ‘अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ‘ और नवें अध्याय के चौथे श्लोक में अपने लिये कहा कि मेरे से यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है – ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।’ यहाँ तो भगवान ने क्षेत्रज्ञ (अंश) की अपने (अंशी के) साथ एकता बतायी है और आगे इसी अध्याय के 34वें श्लोक में शरीर-संसार (कार्य ) की प्रकृति (कारण ) के साथ एकता बतायेंगे। तात्पर्य है कि शरीर तो प्रकृति का अंश है । इसलिये तुम इससे सर्वथा विमुख हो जाओ और तुम मेरे अंश हो इसलिये तुम मेरे सम्मुख हो जाओ। शरीर की संसार के साथ स्वाभाविक एकता है परन्तु यह जीव शरीर को संसार से अलग मानकर उसके साथ ही अपनी एकता मान लेता है। परमात्मा के साथ क्षेत्रज्ञ की स्वाभाविक एकता होते हुए भी शरीर के साथ मानने से यह अपने को परमात्मा से अलग मानता है। शरीर को संसार से अलग मानना और अपने को परमात्मा से अलग मानना – ये दोनों ही गलत मान्यताएँ हैं। अतः भगवान यहाँ विद्धि पद से आज्ञा देते हैं कि क्षेत्रज्ञ मेरे साथ एक है – ऐसा समझो। तात्पर्य है कि तुमने जहाँ शरीर के साथ अपनी एकता मान रखी है वहीं मेरे साथ अपनी एकता मान लो जो कि वास्तव में है। शास्त्रों में प्रकृति , जीव और परमात्मा – इन तीनों का अलग-अलग वर्णन आता है परन्तु यहाँ ‘अपि’ पदसे भगवान् एक विलक्षण भावकी ओर लक्ष्य कराते हैं कि शास्त्रोंमें परमात्माके जिस सर्वव्यापक स्वरूप का वर्णन हुआ है , वो तो मैं हूँ ही – इसके साथ ही सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ रूप से पृथक – पृथक दिखने वाला भी मैं ही हूँ। अतः प्रस्तुत पदों का यही भाव है कि क्षेत्रज्ञ रूप से परमात्मा ही है – ऐसा जानकर साधक मेरे साथ अभिन्नता का अनुभव करे। स्वयं संसार से भिन्न और परमात्मा से अभिन्न है। इसलिये यह नियम है कि संसार का ज्ञान तभी होता है जब उससे सर्वथा भिन्नता का अनुभव किया जाय। तात्पर्य है कि संसार से रागरहित होकर ही संसार के वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है परन्तु परमात्मा का ज्ञान उनसे अभिन्न होने से ही होता है। इसलिये परमात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराने के लिये भगवान क्षेत्रज्ञ के साथ अपनी अभिन्नता बता रहे हैं। इस अभिन्नता को यथार्थ रूप से जानने पर परमात्मा का वास्तविक ज्ञान हो जाता है। ‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ‘ – क्षेत्र (शरीर) की सम्पूर्ण संसारके साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ(जीवात्मा) की मेरे साथ एकता है – ऐसा जो क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है – वही मेरे मत में यथार्थ ज्ञान है। ‘मतं मम ‘ कहने का तात्पर्य है कि संसार में अनेक विद्याओं का , अनेक भाषाओं का , अनेक लिपियों का , अनेक कलाओं का , तीनों लोक और चौदह भुवनों का जो ज्ञान है – वह वास्तविक ज्ञान नहीं है। कारण कि वह ज्ञान सांसारिक व्यवहार में काम में आने वाला होते हुए भी संसार में फँसाने वाला होने से अज्ञान ही है। वास्तविक ज्ञान तो वही है जिससे स्वयं का शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय और फिर संसार में जन्म न हो , संसार की परतन्त्रता न हो। यही ज्ञान भगवान के मत में यथार्थ ज्ञान है। पूर्वश्लोक में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को ही अपने मत में ज्ञान बताकर अब भगवान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को सुनने की आज्ञा देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी