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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
09 – 14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥11.9।।
संजय उवाच-संजय ने कहा; एवम्-इस प्रकार से; उक्त्वा -कहकर; ततः-तत्पश्चात; राजन् – राजा; महयोगेश्वरः – परम योग के स्वामी भगवान; हरिः- सब पापों को नाश करने वाले भगवान, श्रीकृष्ण; दर्शयामास -दिखाया; पार्थाय-अर्जुन को; परमम्-दिव्य; रूपमैश्वरं -वैभव।
संजय ने कहा-हे राजन! इस प्रकार से कहकर परम योग के स्वामी महा योगेश्वर और सब पापों के नाश करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना दिव्य परम ऐश्वर्ययुक्त विश्वरूप दिखाया।।11.9।।
(‘एवमुक्त्वा ततो ৷৷. परमं रूपमैश्वरम्’ – पूर्वश्लोक में भगवान ने जो यह कहा था कि तू अपने चर्मचक्षुओं से मुझे नहीं देख सकता इसलिये मैं तेरे को दिव्यचक्षु देता हूँ जिससे तू मेरे ईश्वरसम्बन्धी योग को देख । उसी का संकेत यहाँ सञ्जय ने ‘एवमुक्त्वा ‘ पद से किया है।चौथे श्लोक में अर्जुन ने भगवान को ‘योगेश्वर’ कहा और यहाँ सञ्जय भगवान को ‘महायोगेश्वर’ कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान ने अर्जुन की प्रार्थना से बहुत अधिक अपना विश्वरूप दिखाया। भक्त की थोड़ी सी भी वास्तविक रुचि भगवान की तरफ होने पर भगवान अपनी अपार शक्ति से उसकी पूर्ति कर देते हैं। तीसरे श्लोक में अर्जुन ने जिस रूप के लिये ‘रूपमैश्वरम्’ कहा उसी रूप के लिये यहाँ सञ्जय ‘परमं रूपमैश्वरम्’ कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान का विश्वरूप बहुत ही विलक्षण है। सम्पूर्ण योगों के महान ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा विलक्षण , अलौकिक , अद्भुत विश्वरूप दिखाया जिसको धैर्यशाली , जितेन्द्रिय , शूरवीर और भगवान से प्राप्त दिव्यदृष्टि वाले अर्जुन को भी दुर्निरीक्ष्य कहना पड़ा (11। 17) और भयभीत होना पड़ा (11। 45) तथा भगवान को भी ‘व्यपेतभीः’ कहकर अर्जुन को आश्वासन देना पड़ा (11। 49)। अब सञ्जय भगवान के उस परम ऐश्वर्य ईश्वरीय रूप का वर्णन आगे के दो श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )