Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

09 – 14  संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन

 

 

Bhagavad Gita Chapter 11अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌ ।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌ ॥11.10।।

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌ ।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ ॥11.11।।

 

अनेक-असंख्य; वक्त्र-मुख; नयनम्ने-त्र; अनेक-अनेक; अद्भुत-विचित्र; दर्शनम्-देखना; अनेक-कई; दिव्य-अलौकिक; आभरणम्-आभूषण; दिव्य-दैवीय; अनेक-कई; उद्यत-उठाये हुए; आयुधम्-शस्त्र; दिव्य-दिव्य; माल्य-मालाएँ; अम्बर-वस्त्र; धरम्-धारण करना; दिव्य-दिव्य; गन्ध-सुगन्धियाँ; अनुलेपनम्-लगी थीं; सर्व-समस्त; आश्चर्यमयम्-अद्भुत; देवम्-भगवान; अनंतम्-असीम; विश्वतः – सभी ओर; मुखम्-मुख।

 

अर्जुन ने भगवान के दिव्य विराट रूप में असंख्य मुख और आंखों को देखा। उनका रूप अनेक दैवीय आभूषणों से अलंकृत था और कई प्रकार के दिव्य शस्त्रों को धारण किये हुए था। उन्होंने उस शरीर पर अनेक दिव्य मालाएँ और दिव्य वस्त्र धारण किए हुए थे जिस पर कई प्रकार की दिव्य मधुर सुगंधियाँ लगी थीं अर्थात अर्थात दिव्य चन्दन, कुंकुम और गंध का लेप लगा था। ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्त रूप वाले तथा चारों तरफ मुख वाले अपने दिव्य विश्वतोमुख अर्थात विराट् स्वरूप को भगवान् ने दिखाया॥11.10-11.11॥

 

( ‘अनेकवक्त्रनयनम्’ – विराट रूप से प्रकट हुए भगवान के जितने मुख और नेत्र दिख रहे हैं वे सब के सब दिव्य हैं। विराट रूप में जितने प्राणी दिख रहे हैं उनके मुख , नेत्र , हाथ , पैर आदि सब के सब अङ्ग विराट रूप भगवान के हैं। कारण कि भगवान स्वयं ही विराट रूप से प्रकट हुए हैं। ‘अनेकाद्भुतदर्शनम्’ – भगवान के विराट रूप में जितने रूप दिखते हैं , जितनी आकृतियाँ दिखती हैं , जितने रंग दिखते हैं , जितनी उनकी विचित्र रूप से बनावट दिखती है वह सब की सब अद्भुत दिख रही है। ‘अनेकदिव्याभरणम्’ – विराट रूप में दिखने वाले अनेक रूपों के हाथों में , पैरों में , कानों में , नाकों में और गलों में जितने गहने हैं , आभूषण हैं वे सब के सब दिव्य हैं। कारण कि भगवान स्वयं ही गहनों के रूप में प्रकट हुए हैं। ‘दिव्यानेकोद्यतायुधम्’ – विराट रूप भगवान ने अपने हाथों में चक्र , गदा , धनुष , बाण , परिघ आदि अनेक प्रकार के जो आयुध (अस्त्र-शस्त्र) उठा रखे हैं वे सब के सब दिव्य हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

(‘दिव्यमाल्याम्बरधरम्’ – विराट रूप भगवान ने गले में फूलों की , सोने की , चाँदी की , मोतियों की , रत्नों की , गुञ्जाओं आदि की अनेक प्रकार की मालाएँ धारण कर रखी हैं। वे सभी दिव्य हैं। उन्होंने अपने शरीरों पर लाल , पीले , हरे , सफेद , कपिश आदि अनेक रंगों के वस्त्र पहन रखे हैं जो सभी दिव्य हैं। ‘दिव्यगन्धानुलेपनम्’ – विराट रूप भगवान ने ललाट पर कस्तूरी , चन्दन , कुंकुम आदि गन्ध के जितने तिलक किये हैं तथा शरीर पर जितने लेप किये हैं वे सब के सब दिव्य हैं। ‘सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्’ – इस प्रकार देखते ही चकित कर देने वाले अनन्त रूप वाले तथा चारों तरफ मुख ही मुख वाले अपने परम ऐश्वर्यमय रूप को भगवान ने अर्जुन को दिखाया। जैसे कोई व्यक्ति दूर बैठे ही अपने मन से चिन्तन करता है कि मैं हरिद्वार में हूँ तथा गङ्गाजी में स्नान कर रहा हूँ तो उस समय उसको गङ्गाजी , पुल , घाट पर खड़े स्त्री-पुरुष आदि दिखने लगते हैं तथा मैं गङ्गाजी में स्नान कर रहा हूँ – ऐसा भी दिखने लगता है। वास्तव में वहाँ न हरिद्वार है और न गङ्गाजी हैं परन्तु उसका मन ही उन सब रूपों में बना हुआ उसको दिखता है। ऐसे ही एक भगवान ही अनेक रूपों में , उन रूपों में पहने हुए गहनों के रूप में , अनेक प्रकार के आयुधों के रूप में , अनेक प्रकार की मालाओं के रूप में , अनेक प्रकार के वस्त्रों के रूप में प्रकट हुए हैं। इसलिये भगवान के विराट रूप में सब कुछ दिव्य है। श्रीमद्भागवत में आता है कि जब ब्रह्माजी बछड़ों और ग्वालबालों को चुराकर ले गये तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं बल्कि उनके बेंत , सींग , बाँसुरी , वस्त्र , आभूषण आदि भी भगवान स्वयं ही बन गये (श्रीमद्भा0 10। 13। 19)। अब सञ्जय विश्वरूप के प्रकाश का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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