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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥11.19।।
अनादि मध्य अन्तम्-आदि, मध्य और अंत रहित; अनन्त-असीमित, मध्य और अंत रहित; वीर्यम्-शक्ति; अनंत-असीमित; बाहुम्-भुजाएँ; शशि-चन्द्रमा; सूर्य-सूर्य; नेत्रम्-आँखें; पश्यामि-देखता हूँ; त्वामम्-आपको; दीप्त-प्रज्ज्वलित; हुताश वक्त्रम्-मुख से निकलती अग्नि को; स्वतेजसा-आपके तेज से; विश्वम् – ब्रह्माण्ड को; इदम् – इस; तपन्तम्-जलते हुए।
आप आदि, मध्य और अंत से रहित हैं और आपकी शक्तियों का कोई अंत नहीं है। आप अनंत भुजाओं वाले , अनंत प्रभावशाली हैं । आप चन्द्र-सूर्य रूप नेत्रों वाले अर्थात सूर्य और चन्द्रमा आप के नेत्र हैं और अग्नि आपके मुख के तेज के समान है और मैं आपके तेज से समस्त ब्रह्माण्ड को जलते देख रहा हूँ॥11.19॥
(‘अनादिमध्यान्तम् ‘ – आप आदि , मध्य और अन्त से रहित हैं अर्थात् आपकी कोई सीमा नहीं है। 16वें श्लोक में भी अर्जुन ने कहा है कि मैं आपके आदि , मध्य और अन्त को नहीं देखता हूँ। वहाँ तो देशकृत अनन्तता का वर्णन हुआ है और यहाँ कालकृत अनन्तता का वर्णन हुआ है। तात्पर्य है कि देशकृत , कालकृत , वस्तुकृत आदि किसी तरह से भी आपकी सीमा नहीं है। सम्पूर्ण देश , काल आदि आपके अन्तर्गत हैं फिर आप देश , काल आदि के अन्तर्गत कैसे आ सकते हैं ? अर्थात् देश , काल आदि किसी के भी आधार पर आपको मापा नहीं जा सकता। ‘अनन्तवीर्यम्’ – आपमें अपार पराक्रम , सामर्थ्य , बल और तेज है। आप अनन्त , असीम , शक्तिशाली हैं। ‘अनन्तबाहुम् ‘ (टिप्पणी प0 586.1) – आपकी कितनी भुजाएँ हैं? इसकी कोई गिनती नहीं हो सकती। आप अनन्त भुजाओं वाले हैं। ‘शशिसूर्यनेत्रम् ‘ – संसारमात्र को प्रकाशित करने वाले जो चन्द्र और सूर्य हैं वे आपके नेत्र हैं। इसलिये संसारमात्र को आपसे ही प्रकाश मिलता है। ‘दीप्तहुताशवक्त्रम् ‘ – यज्ञ , होम आदि में जो कुछ अग्निमें हवन किया जाता है उन सबको ग्रहण करने वाले देदीप्यमान अग्निरूप मुखवाले आप ही हैं। ‘स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ‘ – अपने तेज से सम्पूर्ण विश्व को तपाने वाले आप ही हैं। तात्पर्य यह है कि जिन-जिन व्यक्तियों , वस्तुओं , परिस्थितियों आदि से प्रतिकूलता मिल रही है उन-उन से ही सम्पूर्ण प्राणी संतप्त हो रहे हैं। संतप्त करने वाले और संतप्त होने वाले – दोनों एक ही विराट रूप के अङ्ग हैं – स्वामी रामसुखदास जी )