Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

15 – 31  अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना

 

 

Bhagwad Gita in hindi chapter 11pद्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।

दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्‌ ॥11.20।।

 

द्यौ आ पृथिव्योः -स्वर्ग से पृथ्वी तक; इदम्-इस; अन्तरम्-मध्य में; हि-वास्तव में; व्याप्तम्-व्याप्त; त्वया – आपके द्वारा; एकेन-अकेला; दिश:-दिशाएँ ; च-तथा; सर्वाः-सभी; दृष्टा-देखकर; अद्भुतम्-अद्भुत; रुपम्-रूप को; उग्रम्-भयानक; तव-आपके; इदम्-इस; लोक-लोक; त्रयम्-तीन; प्रव्यथितम्-कम्पन्न; महा आत्मन्-परमात्मा।

 

हे महात्मन्‌! स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का स्थान यह सम्पूर्ण आकाश और सभी दिशाओं के बीच आप अकेले ही व्याप्त हैं अर्थात यह सब आपसे ही परिपूर्ण है। मैंने देखा है कि आपके अद्भुत और भयानक रूप को देखकर तीनों लोक भय से काँप रहे हैं॥11.20॥

 

(महात्मन् – इस सम्बोधन का तात्पर्य है कि आपके स्वरूप के समान किसी का स्वरूप हुआ नहीं , है नहीं , होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये आप महात्मा अर्थात् महान् स्वरूप वाले हैं। ‘द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः’ – स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जितना अवकाश है , पोलाहट है वह सब पोलाहट आपसे परिपूर्ण हो रही है। पूर्व , पश्चिम , उत्तर और दक्षिण पूर्व-उत्तर के बीच में ईशान , उत्तर-पश्चिम के बीच में वायव्य , पश्चिम-दक्षिण के बीच में नैऋत्य और दक्षिण-पूर्व के बीच में आग्नेय तथा ऊपर और नीचे – ये दसों दिशाएँ आपसे व्याप्त हैं अर्थात् इन सब में आप ही आप विराजमान हैं।’ दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितम्’ – [ 19वें श्लोक में तथा 20वें श्लोक के पूर्वार्ध में उग्ररूप का वर्णन करके अब 20वें श्लोक के उत्तरार्ध से 22वें श्लोक तक अर्जुन उग्ररूप के परिणाम का वर्णन करते हैं । ] आपके इस अद्भुत , विलक्षण , अलौकिक , आश्चर्यजनक , महान , देदीप्यमान और भयंकर उग्ररूप को देखकर स्वर्ग , मृत्यु और पाताल लोक में रहने वाले सभी प्राणी व्यथित हो रहे हैं , भयभीत हो रहे हैं। यद्यपि इस श्लोक में स्वर्ग और पृथ्वी की ही बात आयी है (द्यावापृथिव्योः) तथापि अर्जुन द्वारा ‘लोकत्रयम्’ कहने के अनुसार यहाँ पाताल भी ले सकते हैं। कारण कि अर्जुन की दृष्टि भगवान के शरीर के किसी एक देश में जा रही है और वहाँ अर्जुन को जो दिख रहा है वह दृश्य कभी पाताल का है , कभी मृत्युलोक का है और कभी स्वर्ग का है। इस तरह अर्जुन की दृष्टि के सामने सब दृश्य बिना क्रम के आ रहे हैं (टिप्पणी प0 586.2)। यहाँ पर एक शङ्का होती है कि अगर विराट रूप को देखकर त्रिलोकी व्यथित हो रही है तो दिव्यदृष्टि के बिना त्रिलोकी ने विराट रूप को कैसे देखा ? भगवान ने तो केवल अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी थी। त्रिलोकी को विराट रूप देखने के लिये दिव्यदृष्टि किसने दी ? कारण कि प्राकृत चर्मचक्षुओं से यह विराट रूप नहीं देखा जा सकता जबकि ‘विश्वमिदं तपन्तम् ‘ (11। 19) और ‘लोकत्रयं प्रव्यथितम् ‘ पदों से विराट रूप को देखकर त्रिलोकी के संतप्त और व्यथित होने की बात अर्जुन ने कही है। इसका समाधान यह है कि संतप्त और व्यथित होने वाली त्रिलोकी भी उस विराट रूप के अन्तर्गत ही है अर्थात् विराट रूप का ही अङ्ग है। सञ्जय ने और भगवान ने विराट रूप को एक देश में देखने की बात (एकस्थम् ) कही पर अर्जुन ने एक देश में देखने की बात नहीं कही। कारण कि विराट रूप देखते हुए भगवान के  शरीर की तरफ अर्जुन का खयाल ही नहीं गया। उनकी दृष्टि केवल विराट रूप की तरफ ही बह गयी। जब सारथिरूप भगवान के शरीर की तरफ भी अर्जुन की दृष्टि नहीं गयी तब संतप्त और व्यथित होने वाले इस लौकिक संसार की तरफ अर्जुन की दृष्टि कैसे जा सकती है ? इससे सिद्ध होता है कि संतप्त होने वाला और संतप्त करने वाला तथा व्यथित होने वाला और व्यथित करने वाला – ये चारों उस विराट रूप के ही अङ्ग हैं। अर्जुन को ऐसा दिख रहा है कि त्रिलोकी विराट रूप को देखकर व्यथित , भयभीत हो रही है पर वास्तव में (विराट रूप के अन्तर्गत ) भयानक सिंह , व्याघ्र , साँप आदि जन्तुओं को और मृत्यु को देखकर त्रिलोकी भयभीत हो रही है। मार्मिक बात – देखने , सुनने और समझने में आने वाला सम्पूर्ण संसार भगवान के दिव्य विराट रूप का ही एक छोटा सा अङ्ग है। संसार में जो जडता , परिवर्तनशीलता , अदिव्यता दिखती है वह वस्तुतः दिव्य विराट रूप की ही एक झलक है , एक लीला है। विराट की की जो दिव्यता है उसकी तो स्वतन्त्र सत्ता है पर संसार की जो अदिव्यता है उसकी स्ववतन्त्र सत्ता नहीं है। अर्जुन को तो दिव्यदृष्टि से भगवान का विराट रूप दिखा पर भक्तों को भाव-दृष्टि से यह संसार भगवत्स्वरूप दिखता है – ‘वासुदेवः सर्वम्’। तात्पर्य है कि जैसे बचपन में बालक का , कंकड़-पत्थरों में जो भाव रहता है , वैसा भाव बड़े होने पर नहीं रहता , बड़े होने पर कंकड़-पत्थर उसे आकृष्ट नहीं करते । ऐसे ही भोगदृष्टि रहने पर संसार में जो भाव रहता है वह भाव भोगदृष्टि के मिटने पर नहीं रहता। जिनकी भोगदृष्टि होती है उनको तो संसार सत्य दिखता है पर जिनकी भोगदृष्टि नहीं है । ऐसे महापुरुषों को संसार भगवत्स्वरूप ही दिखता है। जैसे एक ही स्त्री बालक को माँ के रूप में , पिता को पुत्री के रूप में , पति को पत्नी के रूप में और सिंह को भोजन के रूप में दिखती है । ऐसे ही यह संसार चर्मदृष्टि से सच्चा  विवेकदृष्टि से परिवर्तनशील भावदृष्टि से भगवत्स्वरूप और दिव्यदृष्टि से विराट रूप का ही एक छोटा सा अङ्ग दिखता है। अब अर्जुन की दृष्टि के सामने (विराट रूप में) स्वर्गादि लोकों का दृश्य आता है और वे उसका वर्णन आगे के दो श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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