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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥11.21।।
अमी-ये सब; हि-वास्तव में; त्वाम्-आपको; सुरसङ्घा- देवताओं का समूह; विशन्ति-प्रवेश कर रहे हैं; केचित्-कुछ; भीताः-भयवश; प्राञ्जलयः-हाथ जोड़े; गृणनित–प्रशंसा कर रहे हैं; स्वस्ति-पवित्र हो; इति – इस प्रकार; उक्त्वा -कहकर; महा ऋषि-महर्षिगण; सिद्धसड्घा:-सिद्ध लोग; स्तुवन्ति-स्तुति कर रहे हैं; त्वाम्-आपकी; स्तुतिभिः-प्रार्थनाओं के साथ; पुष्पकलाभिः-स्रोतों से।
ये समस्त देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं अर्थात स्वर्ग के सभी देवता आप में प्रवेश होकर आपकी शरण ग्रहण कर रहे हैं और कुछ भय से हाथ जोड़कर आपकी स्तुति तथा आपके नामों और गुणों का कीर्तन कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्ध जनों के समुदाय ‘कल्याण हो ! मङ्गल हो !’ ऐसा कहकर अर्थात स्वस्तिवाचन करते हुए पवित्र और उत्तम स्रोतों का पाठ कर तथा अनेक प्रार्थनाओं के साथ आपकी स्तुति कर रहे हैं।
(‘अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति’ – जब अर्जुन स्वर्ग में गये थे उस समय उनका जिन देवताओं से परिचय हुआ था उन्हीं देवताओं के लिये यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि वे ही देवतालोग आपके स्वरूप में प्रविष्ट होते हुए दिख रहे हैं। ये सभी देवता आपसे ही उत्पन्न होते हैं , आप में ही स्थित रहते हैं और आप में ही प्रविष्ट होते हैं। ‘केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ‘ – परन्तु उन देवताओं में से जिनकी आयु अभी ज्यादा शेष है – ऐसे आजान देवता (विराट रूप के अन्तर्गत) नृसिंह आदि भयानक रूपों को देखकर भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम , रूप , लीला , गुण आदि का गान कर रहे हैं। यद्यपि देवतालोग नृसिंह आदि अवतारों को देखकर और कालरूप मृत्यु से भयभीत होकर ही भगवान का गुणगान कर रहे हैं (जो सभी विराट रूप के ही अङ्ग हैं) परन्तु अर्जुन को ऐसा लग रहा है कि वे विराट रूप भगवान को देखकर ही भयभीत होकर स्तुति कर रहे हैं। ‘स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः’ – सप्तर्षियों , देवर्षियों , महर्षियों , सनकादिकों और देवताओं के द्वारा स्वस्तिवाचन (कल्याण हो , मङ्गल हो ) हो रहा है और बड़े उत्तम-उत्तम स्तोत्रों के द्वारा आपकी स्तुतियाँ हो रही हैं – स्वामी रामसुखदास जी )