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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥11.23।।
रुपम्-रूप; महत्-विराट; ते-आपका; बहु-अनेक; वक्त्र–मुख; नेत्रम्-आँखें; महाबाहो-बलिष्ठ भुजाओं वाला, अर्जुन; बहु-अनेक; बाहु-भुजाएँ; ऊरु-जाँघे; पादम्-पाँव; बहुउदरम्-अनेक पेट; बहुदंष्ट्रा-अनेक दाँत; करालम्-भयानक; दृष्टवा-देखकर; लोकाः-सारे लोक; प्रव्यथिताः-भय से त्रस्त; तथा – उसी प्रकार; अहम् – मैं।
हे सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपके बहुत से मुखों और नेत्रोंवाले, बहुत से भुजाओं, जंघाओं और चरणों वाले, बहुत से उदरों वाले और बहुत विकराल दाढ़ों वाले महान् विराट रूप को देख कर सब प्राणी व्यथित हो रहे हैं और उसी प्रकार मैं भी अत्यंत व्याकुल हो रहा हूँ॥11.23॥
[ 15वें से 18वें श्लोक तक विश्वरूप में देवरूप का 19वें से 22वें श्लोक तक उग्ररूप का और 23वें से 30वें श्लोक तक अत्यन्त उग्ररूप का वर्णन हुआ है।] ‘बहुवक्त्रनेत्रम्’ – आपके मुख एक दूसरे से नहीं मिलते। कई मुख सौम्य हैं और कई विकराल हैं। कई मुख छोटे हैं और कई मुख बड़े हैं। ऐसे ही आपके जो नेत्र हैं वे भी सभी एक समान नहीं दिख रहे हैं। कई नेत्र सौम्य हैं और कई विकराल हैं। कई नेत्र छोटे हैं , कई बड़े हैं , कई लम्बे हैं , कई चौड़े हैं , कई गोल हैं , कई टेढ़े हैं आदि आदि। ‘बहुबाहूरुपादम् ‘ – हाथों की बनावट , वर्ण , आकृति और उनके कार्य विलक्षण-विलक्षण हैं। जंघाएँ विचित्र-विचित्र हैं और चरण भी तरह-तरह के हैं। ‘बहूदरम् ‘ – पेट भी एक समान नहीं हैं। कोई बड़ा , कोई छोटा , कोई भयंकर आदि कई तरह के पेट हैं। ‘बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ‘- मुखों में बहुत प्रकार की विकराल दाढ़ें हैं। ऐसे महान , भयंकर , विकराल रूप को देखकर सब प्राणी व्याकुल हो रहे हैं और मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। इस श्लोक से पहले कहे हुए श्लोकों में भी अनेक मुखों , नेत्रों आदि की और सब लोगों के भयभीत होने की बात आयी है। अतः अर्जुन एक ही बात बार-बार क्यों कह रहे हैं ? इसका कारण है कि – (1) विराट रूप में अर्जुन की दृष्टि के सामने जो-जो रूप आता है उस-उस में उनको नयी-नयी विलक्षणता और दिव्यता दिख रही है। (2) विराट रूप को देखकर अर्जुन इतने घबरा गये , चकित हो गये , चकरा गये , व्यथित हो गये कि उनको यह खयाल ही नहीं रहा कि मैंने क्या कहा है और मैं क्या कह रहा हूँ ? (3) पहले तो अर्जुन ने तीनों लोकों के व्यथित होने की बात कही थी पर यहाँ सब प्राणियों के साथ-साथ स्वयं के भी व्यथित होने की बात कहते हैं। (4) एक बात को बार-बार कहना अर्जुन के भयभीत और आश्चर्यचकित होने का चिह्न है। संसार में देखा भी जाता है कि जिसको भय , हर्ष , शोक , आश्चर्य आदि होते हैं उसके मुख से स्वाभाविक ही किसी शब्द या वाक्य का बार-बार उच्चारण हो जाता है जैसे – कोई साँप को देखकर भयभीत होता है तो वह बार-बार साँप , साँप , साँप ऐसा कहता है। कोई सज्जन पुरुष आता है तो हर्ष में भरकर कहते हैं – आइये , आइये , आइये कोई प्रिय व्यक्ति मर जाता है तो शोकाकुल होकर कहते हैं – मैं मारा गया , मारा गया घर में अँधेरा हो गया , अँधेरा हो गया अचानक कोई आफत आ जाती है तो मुखसे निकलता है – मैं मरा , मरा , मरा ऐसे ही यहाँ विश्वरूपदर्शन में अर्जुन के द्वारा भय और हर्ष के कारण कुछ शब्दों और वाक्यों का बार-बार उच्चारण हुआ है। अर्जुन ने भय और हर्ष को स्वीकार भी किया है – ‘अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ‘ (11। 45)। तात्पर्य है कि भय , हर्ष , शोक आदि में एक बात को बार-बार कहना पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता – स्वामी रामसुखदास जी )