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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥11.24।।
नभःस्पृशम्-आकाश को स्पर्श करता हुआ; दीप्तम्-प्रकाशित; अनेक-कई; वर्णम्-रंग; व्यात्त-खुले हुए; अननम्-मुख; दीप्त-प्रदीप्त; विशाल-बड़े; नेत्रम्-आँखें; दृष्टवा-देखकर; हि-निश्चय ही; त्वाम्-आपको; प्रव्यथित: अन्तः आत्मा – मेरा हृदय थर-थर कांप रहा है; धृतिम्-दृढ़ता से; न-नहीं; विन्दामि-पाता हूँ; शमम्-मानसिक शान्ति को; च-भी; विष्णो-भगवान विष्णु।
क्योंकि हे विष्णो! आपके इस आकाश को स्पर्श करते हुए , देदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त तथा खुले हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त रूप को देखकर भयभीत अन्तःकरण वाला मैं धीरज और शान्ति को प्राप्त नहीं हो रहा हूँ। आपके इस रूप को देखकर मेरा हृदय भय से थर – थर कांप रहा है और मैंने अपना सारा धैर्य और मानसिक संतुलन खो दिया है॥11.24॥
[ 20वें श्लोक में तो अर्जुन ने विराट रूप की लम्बाई-चौड़ाई का वर्णन किया अब यहाँ केवल लम्बाई का वर्णन करते हैं।] विष्णो – आप साक्षात् सर्वव्यापक विष्णु हैं जिन्होंने पृथ्वी का भार दूर करने के लिये कृष्णरूप से अवतार लिया है। ‘दीप्तमनेकवर्णम्’ – आपके काले , पीले , श्याम , गौर आदि अनेक वर्ण हैं जो बड़े ही देदीप्यमान हैं। ‘नभः स्पृशम् ‘ – आपका स्वरूप इतना लम्बा है कि वह आकाश को स्पर्श कर रहा है। वायु का गुण होने से स्पर्श वायु का ही होता है , आकाश का नहीं। फिर यहाँ आकाश को स्पर्श करने का तात्पर्य क्या है ? मनुष्य की दृष्टि जहाँ तक जाती है वहाँ तक तो उसको आकाश दिखता है पर उसके आगे कालापन दिखायी देता है। कारण कि जब दृष्टि आगे नहीं जाती , थक जाती है तब वह वहाँ से लौटती है जिससे आगे कालापन दिखता है। यही दृष्टि का आकाश को स्पर्श करना है। ऐसे ही अर्जुन की दृष्टि जहाँ तक जाती है वहाँ तक उनको भगवान का विराट रूप दिखायी देता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान का विराट रूप असीम है जिसके सामने दिव्यदृष्टि भी सीमित ही है। ‘व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ‘ – जैसे कोई भयानक जन्तु किसी जन्तु को खाने के लिये अपना मुख फैलाता है – ऐसे ही मात्र विश्व को चट करने के लिये आपका मुख फैला हुआ दिख रहा है।आपके नेत्र बड़े ही देदीप्यमान और विशाल दिख रहे हैं। ‘दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ‘ – इस तरह आपको देखकर मैं भीतर से बहुत व्यथित हो रहा हूँ। मेरे को कहीं से भी धैर्य नहीं मिल रहा है और शान्ति भी नहीं मिल रही है। यहाँ एक शङ्का होती है कि अर्जुन में एक तो खुद की सामर्थ्य है और दूसरी भगवत्प्रदत्त सामर्थ्य (दिव्यदृष्टि ) है। फिर भी अर्जुन तो विश्वरूप को देख कर डर गये पर सञ्जय नहीं डरे। इसमें क्या कारण है सन्तों से ऐसा सुना है कि भीष्म , विदुर , संजय और कुन्ती – ये चारों भगवान श्रीकृष्ण के तत्त्व को विशेषता से जानने वाले थे। इसलिये सञ्जय पहले से ही भगवान के तत्त्व को उनके प्रभाव को जानते थे जब कि अर्जुन भगवान के तत्त्व को उतना नहीं जानते थे। अर्जुन का विमूढ़भाव (भाव ) अभी सर्वथा दूर नहीं हुआ था (गीता 11। 49)। इस विमूढ़भाव के कारण अर्जुन भयभीत हुए परन्तु सञ्जय भगवान के तत्त्व को जानते थे अर्थात् उनमें विमूढ़भाव नहीं था अतः वे भयभीत नहीं हुए।उपर्युक्त विवेचन से एक बात सिद्ध होती है कि भगवान और महापुरुषों की कृपा विशेषरूप से अयोग्य मनुष्यों पर होती है पर उस कृपा को विशेषरूप से योग्य मनुष्य ही जानते हैं। जैसे छोटे बच्चे पर माँ का अधिक स्नेह होता है पर बड़ा लड़का माँ को जितना जानता है उतना छोटा बच्चा नहीं जानता। ऐसे ही भोले-भाले , सीधे-सादे व्रजवासी , ग्वाल-बाल , गोप-गोपी और गाय – इन पर भगवान जितना अधिक स्नेह करते हैं उतना स्नेह जीवन्मुक्त महापुरुषों पर नहीं करते परन्तु जीवन्मुक्त महापुरुष ग्वालबाल आदि की अपेक्षा भगवान को विशेष रूप से जानते हैं। सञ्जय ने विश्वरूप के लिये प्रार्थना भी नहीं की और विश्वरूप को देख लिया परन्तु विश्वरूप देखने के लिये अर्जुन को स्वयं भगवान ने ही उत्कण्ठित किया और अपना विश्वरूप भी दिखाया क्योंकि सञ्जय की अपेक्षा भगवान के तत्त्व को जानने में अर्जुन छोटे थे और भगवान के साथ सखाभाव रखते थे। इसलिये अर्जुन पर भगवान की कृपा अधिक थी। इस कृपा के कारण अन्त में अर्जुन का मोह नष्ट हो गया – ‘नष्टो मोहः ৷৷. त्वत्प्रसादात् ‘ (गीता 18। 73)। इससे सिद्ध होता है कि कृपापात्र का मोह अन्त में नष्ट हो ही जाता है – स्वामी रामसुखदास जी )