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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥11.31।।
आख्याहि-बताना; मे-मुझे ; कः-कौन; भवान्-आप; उग्ररूपः-भयानक रूप; नम:अस्तु-नमस्कार करता हूँ; ते-आपको; देववर-देवेश; प्रसीद-करुणा करो; विज्ञातुम्-जानने के लिए; इच्छामि – इच्छुक हूँ; भवन्तम्-आपको; आद्यम्-आदि; न-नहीं; हि-क्योंकि; प्रजानामि-जानता हूँ; तव-आपका; प्रवृत्तिम्-प्रकृति और प्रयोजन।
हे देवेश! कृपया मुझे बताएं कि अति उग्र रूप वाले आप कौन हैं? मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया मुझ पर करुणा करें। आप समस्त सृष्टियों की उत्पत्ति से भी पूर्व स्थित आदि पुरुष हैं। मैं आपको तत्व से जानना चाहता हूँ और मैं आपकी प्रकृति और प्रयोजन को नहीं समझ पा रहा हूँ॥11.31॥
( ‘आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ‘ – आप देवरूप से भी दिख रहे हैं और उग्ररूप से भी दिख रहे हैं तो वास्तव में ऐसे रूपों को धारण करने वाले आप कौन हैं ? अत्यन्त उग्र विराट रूप को देखकर भय के कारण अर्जुन नमस्कार के सिवाय और करते भी क्या ? जब अर्जुन भगवान के ऐसे विराट रूप को समझने में सर्वथा असमर्थ हो गये तब अन्त में कहते हैं कि हे देवताओं में श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है। भगवान अपनी जीभ से सबको अपने मुखों में लेकर बार-बार चाट रहे हैं – ऐसे भयंकर बर्ताव को देखकर अर्जुन प्रार्थना करते हैं कि आप प्रसन्न हो जाइये। ‘विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ‘ – भगवान का पहला अवतार विराट (संसार ) रूप में ही हुआ था। इसलिये अर्जुन कहते हैं कि आदिनारायण ! आपको मैं स्पष्टरूप से नहीं जानता हूँ। मैं आपकी इस प्रवृत्ति को भी नहीं जानता हूँ कि आप यहाँ क्यों प्रकट हुए हैं ? और आपके मुखों में हमारे पक्ष के तथा विपक्ष के बहुत से योद्धा प्रविष्ट होते जा रहे हैं? अतः वास्तव में आप क्या करना चाहते हैं ? तात्पर्य यह हुआ कि आप कौन हैं और क्या करना चाहते हैं ? इस बात को मैं जानना चाहता हूँ और इसको आप ही स्पष्टरूप से बताइये। एक प्रश्न होता है कि भगवान का पहले अवतार विराट (संसार के) रूप में हुआ और अभी अर्जुन भगवान के किसी एक देश में विराट रूप देख रहे हैं – ये दोनों विराट रूप एक ही हैं या अलग-अलग ? इसका उत्तर यह है कि वास्तविक बात तो भगवान ही जानें पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन ने जो विराट रूप देखा था उसी के अन्तर्गत यह संसाररूपी विराट रूप भी था। जैसे कहा जाता है कि भगवान सर्वव्यापी हैं तो इसका तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि भगवान केवल सम्पूर्ण संसार में ही व्याप्त हैं बल्कि भगवान संसार से बाहर भी व्याप्त हैं। संसार तो भगवान के किसी अंश में है तथा ऐसी अनन्त सृष्टियाँ भगवान के किसी अंश में हैं। ऐसे ही अर्जुन जिस विराट रूप को देख रहे हैं उसमें यह संसार भी है और इसके सिवाय और भी बहुत कुछ है। पूर्वश्लोक में अर्जुन ने प्रार्थनापूर्वक जो प्रश्न किया था उसका यथार्थ उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )