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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
32 – 34 भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥11.34।।
द्रोणम् च-द्रोणाचार्य; भीष्मम्-भीष्म, च-और; जयद्रथम्-जयद्रथ; च-और; कर्णम्-कर्ण ; तथा-भी; अन्यान्-अन्य; अपि – भी; योधावीरान्–महायोद्धा; मया – मेरे द्वारा; हतान्–पहले ही मारे गये; त्वम्-तुम; जहि-मारो; मा – मत; व्यथिष्ठाः-विक्षुब्ध हो; युधयस्व-लड़ो; जेता असि-तुम विजय पाओगे; रणे – युद्ध में; सपत्नान्-शत्रुओं पर।
द्रोणाचार्य, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य महायोद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। तुम व्यथित और दुखी मत हो । युद्ध करो और मेरे द्वारा पहले से ही मारे जा चुके शूरवीरों को तुम मारो। । निःसंदेह तुम युद्ध में अपने शत्रुओं पर विजय पाओगे॥11.34॥
‘द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् मया हतांस्त्वं जहि ‘ – तुम्हारी दृष्टि में गुरु द्रोणाचार्य , पितामह भीष्म , जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य जितने प्रतिपक्ष के नामी शूरवीर हैं जिन पर विजय करना बड़ा कठिन काम है (टिप्पणी प0 597) उन सबकी आयु समाप्त हो चुकी है अर्थात् वे सब कालरूप मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। इसलिये हे अर्जुन मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरों को तुम मार दो। भगवान के द्वारा पूर्वश्लोक में ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव’ और यहाँ ‘मया हतांस्त्वं जहि’ कहने का तात्पर्य यह है कि तुम इन पर विजय करो पर विजय का अभिमान मत करो क्योंकि ये सब के सब मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। ‘मा व्यथिष्ठा युध्यस्व ‘ – अर्जुन पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य को मारने में पाप समझते थे । यही अर्जुन के मन में व्यथा थी। अतः भगवान कह रहे हैं कि वह व्यथा भी तुम मत करो अर्थात् भीष्म और द्रोण आदि को मारने से हिंसा आदि दोषों का विचार करने की तुम्हें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। तुम अपने क्षात्रधर्म का अनुष्ठान करो अर्थात् युद्ध करो। इसका त्याग मत करो। ‘जेतासि रणे सपत्नान् ‘ – इस युद्ध में तुम वैरियों को जीतोगे। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि पहले (गीता 2। 6 में) अर्जुन ने कहा था कि हम उनको जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे – इसका हमें पता नहीं। इस प्रकार अर्जुन के मन में सन्देह था। यहाँ 11वें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने अर्जुन को विश्वरूप देखने की आज्ञा दी तो उसमें भगवान ने कहा कि तुम और भी जो कुछ देखना चाहो वह देख लो (11। 7) अर्थात् किसकी जय होगी और किसकी पराजय होगी ? – यह भी तुम देख लो। फिर भगवान ने विराट रूप के अन्तर्गत भीष्म , द्रोण और कर्ण के नाश की बात दिखा दी और इस श्लोक में वह बात स्पष्ट रूप से कह दी कि युद्ध में निःसन्देह तुम्हारी विजय होगी। विशेष बात- साधक को अपने साधन में बाधकरूप से नाशवान् पदार्थों का , व्यक्तियों का जो आकर्षण दिखता है , उससे वह घबरा जाता है कि मेरा उद्योग कुछ भी काम नहीं कर रहा है । अतः यह आकर्षण कैसे मिटे ? भगवान ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव ‘ और ‘मया हतांस्त्वं जहि ‘ पदों से ढाढ़स बँधाते हुए मानो यह आश्वासन देते हैं कि तुम्हारे को अपने साधन में जो वस्तुओं आदि का आकर्षण दिखायी देता है और वृत्तियाँ खराब होती हुई दिखती हैं ये सब के सब विघ्न नाशवान हैं और मेरे द्वारा नष्ट किये हुए हैं। इसलिये साधक इनको महत्त्व न दे। दुर्गुण-दुराचार दूर नहीं हो रहे हैं , क्या करूँ ? – ऐसी चिन्ता होने में तो साधक का अभिमान ही कारण है और ये दूर होने चाहिये और जल्दी होने चाहिये – इसमें भगवान के विश्वास की , भरोसे की , आश्रय की कमी है। दुर्गुण-दुराचार अच्छे नहीं लगते , सुहाते नहीं इसमें दोष नहीं है। दोष है चिन्ता करने में। इसलिये साधक को कभी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मेरे द्वारा मारे हुए को तू मार – इस कथन से यह शङ्का होती है कि कालरूप भगवान के द्वारा सब के सब मारे हुए हैं तो संसार में कोई किसी को मारता है तो वह भगवान के द्वारा मारे हुए को ही मारता है। अतः मारने वाले को पाप नहीं लगना चाहिये। इसका समाधान यह है कि किसी को मारने का या दुःख देने का अधिकार मनुष्य को नहीं है। उसका तो सबकी सेवा करने का , सबको सुख पहुँचाने का ही अधिकार है। अगर मारने का अधिकार मनुष्य को होता तो विधि-निषेध अर्थात् शुभ कर्म करो , अशुभ कर्म मत करो – ऐसा शास्त्रों का , गुरुजनों और सन्तों का कहना ही व्यर्थ हो जायगा। वह विधि-निषेध किस पर लागू होगा ? अतः मनुष्य किसी को मारता है या दुःख देता है तो उसको पाप लगेगा ही क्योंकि यह उसकी राग-द्वेषपूर्वक अनधिकार चेष्टा है परन्तु क्षत्रिय के लिये शास्त्रविहित युद्ध प्राप्त हो जाय तो स्वार्थ और अहंकार का त्याग करके कर्तव्यपालन करने से पाप नहीं लगता क्योंकि यह क्षत्रिय का स्वधर्म है। विराट रूप भगवान के अत्यन्त उग्ररूप को देखकर अर्जुन ने 31वें श्लोक में पूछा कि आप कौन हैं ? और यहाँ क्या करने आये हैं ? 32वें श्लोक में भगवान ने उसका उत्तर दिया कि मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सबका संहार करने के लिये यहाँ आया हूँ। फिर 33वें और 34वें श्लोकों में भगवान ने अर्जुन को आश्वासन दिया कि मेरे द्वारा मारे हुए को ही तू मार दे , तेरी जीत होगी। इसके बाद अर्जुन ने क्या किया ? इसको सञ्जय आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )