Contents
VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
35 – 46 भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥11.41।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥11.42।।
सखा–मित्र; इति–इस प्रकार; मत्वा-सोचकर; प्रसभम्-हठपूर्वक; यत्-जो भी; उक्तम्-कहा गया; हे कृष्ण-कृष्ण; हे यादव-हे यादव, श्रीकृष्ण जिनका जन्म यदु वंश में हुआ; हे सखा-हे मित्र; इति–इस प्रकार; अजानता-अज्ञानता से; महिमानम्-शक्तिशाली; तब-आपकी; इदम् – यह; मयां-मेरे द्वारा; प्रमादात्-असावधानी से; प्रणयेन–प्रेमवश; वापि – या तो; यत्-जो; च-भी; अवहासार्थं -उपहास में; असत्-कृतः-अनादर किया गया; असि-हो; विहार-विश्राम करते; शय्या-लेटे रहने पर; आसन-बैठे रहने पर; भोजनेषु-या भोजन करते समयः एकः-अकेले; अथवा-या; अपि भी; अच्युत-अच्युत, श्रीकृष्ण; तत्समक्षम्-मित्रों के बीच; तत्-उन सभी; क्षामये-क्षमा की याचना करता हूँ; त्वाम्-आपसे; अहम्–मैं; अप्रमेयम्-अचिन्तय।
आपके प्रभाव , आपके स्वरूप और आपकी महिमा को न जानते हुए , ‘ आप मेरे सखा हैं ‘ ऐसा मानकर , प्रेम से या प्रमाद से मैंने आपको ‘हे कृष्ण!’, ‘हे यादव !’ ‘हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ भी बिना सोचे-समझे हठात् कहा है और हे अच्युत! हँसी- ठिठोली में, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय, अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदि के सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार या अपमान किया गया है;- हे अचिन्त्य ! उन सब अपराधों के लिए मैं आपसे क्षमा की याचना करता हूँ॥11.41-11.42॥
[जब अर्जुन विराट भगवान के अति उग्र रूप को देखकर भयभीत होते हैं तब वे भगवान के कृष्णरूप को भूल जाते हैं और पूछ बैठते हैं कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं ? परन्तु जब उनको भगवान श्रीकृष्ण की स्मृति आती है कि वे ये ही हैं तब भगवान के प्रभाव आदि को देखकर उनको सखाभाव से किये हुए पुराने व्यवहार की याद आ जाती है और उसके लिये वे भगवान से क्षमा माँगते हैं।] ‘सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं ‘ हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखेति ! – जो बड़े आदमी होते हैं , श्रेष्ठ पुरुष होते हैं उनको साक्षात् नाम से नहीं पुकारा जाता। उनके लिये तो आप महाराज आदि शब्दों का प्रयोग होता है परन्तु मैंने आपको कभी हे कृष्ण ! कह दिया , कभी हे यादव ! कह दिया और कभी हे सखे ! कह दिया। इसका कारण क्या था ? ‘अजानता महिमानं तवेदम् ‘ (टिप्पणी प0 603.1) इसका कारण यह था कि मैंने आपकी ऐसी महिमा को और स्वरूप को जाना नहीं कि आप ऐसे विलक्षण हैं। आपके किसी एक अंश में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं – ऐसा मैं पहले नहीं जानता था। आपके प्रभाव की तरफ मेरी दृष्टि ही नहीं गयी। मैंने कभी सोचा-समझा ही नहीं कि आप कौन हैं और कैसे हैं ? यद्यपि अर्जुन भगवान के स्वरूप को , महिमा को , प्रभाव को पहले भी जानते थे तभी तो उन्होंने एक अक्षौहिणी सेना को छोड़कर निःशस्त्र भगवान को स्वीकार किया था तथापि भगवान के शरीर के किसी एक अंश में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड यथावकाश स्थित हैं – ऐसे प्रभाव को , स्वरूप को , महिमा को अर्जुन ने पहले नहीं जाना था। जब भगवान ने कृपा करके विश्वरूप दिखाया तब उसको देखकर ही अर्जुन की दृष्टि भगवान के प्रभाव की तरफ गयी और वे भगवान को कुछ जानने लगे। उनका यह विचित्र भाव हो गया कि कहाँ तो मैं और कहाँ ये देवों के देव परन्तु मैंने प्रमाद से अथवा प्रेम से हठपूर्वक , बिना सोचे-समझे जो मन में आया वह कह दिया – ‘मया प्रमादात्प्रणयेन वापि’।। बोलने में मैंने बिलकुल ही सावधानी नहीं बरती । वास्तव में भगवान की महिमा को सर्वथा कोई जान ही नहीं सकता क्योंकि भगवान की महिमा अनन्त है। अगर वह सर्वथा जानने में आ जायगी तो उसकी अनन्तता नहीं रहेगी वह सीमित हो जायगी। जब भगवान की सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाली विभूतियों का भी अन्त नहीं है तब भगवान और उनकी महिमा का अन्त आ ही कैसे सकता है ? अर्थात् आ ही नहीं सकता – स्वामी रामसुखदास जी )
( ‘यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ‘ – मैंने आपको बराबरी का साधारण मित्र समझकर हँसी-दिल्लगी करते समय , रास्ते में चलते-फिरते समय , शय्या पर सोते-जागते समय , आसन पर उठते-बैठते समय , भोजन करते समय जो कुछ अपमान के शब्द कहे , आपका असत्कार किया अथवा हे अच्युत ! जब आप अकेले थे उस समय या उन सखाओं , कुटुम्बीजनों , सभ्य व्यक्तियों आदि के सामने मैंने आपका जो कुछ तिरस्कार किया है वह सब मैं आपसे क्षमा करवाता हूँ — ‘एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।’ अर्जुन और भगवान की मित्रता का ऐसा वर्णन आता है कि जैसे दो मित्र आपस में खेलते हैं – ऐसे ही अर्जुन भगवान के साथ खेलते थे। कभी स्नान करते तो अर्जुन हाथों से भगवान के ऊपर जल फेंकते और भगवान अर्जुन के ऊपर। कभी अर्जुन भगवान के पीछे दौड़ते तो कभी भगवान अर्जुन के पीछे दौड़ते। कभी दोनों आपस में हँसते-हँसाते। कभी दोनों परस्पर अपनी-अपनी विशेष कलाएँ दिखाते। कभी भगवान सो जाते तो अर्जुन कहते – तुम इतने फैलकर सो गये हो क्या कोई दूसरा नहीं सोयेगा तुम अकेले ही हो क्या ? कभी भगवान आसन पर बैठ जाते तो अर्जुन कहते – आसन पर तुम अकेले ही बैठोगे क्या और किसी को बैठने दोगे कि नहीं ? अकेले ही आधिपत्य जमा लिया जरा एक तरफ तो खिसक जाओ। इस प्रकार अर्जुन भगवान के साथ बहुत ही घनिष्ठता का व्यवहार करते थे (टिप्पणी प0 603.2)। अब अर्जुन उन बातों को याद करके कहते हैं कि हे भगवन ! मैंने आपके न जाने कितने-कितने तिरस्कार किये हैं। मेरे को तो सब याद भी नहीं हैं। यद्यपि आपने मेरे तिरस्कारों की तरफ खयाल नहीं किया तथापि मेरे द्वारा आपके बहुत से तिरस्कार हुए हैं इसलिये मैं अप्रमेयस्वरूप आपसे सब तिरस्कार क्षमा करवाता हूँ। भगवान को अप्रमेय कहने का तात्पर्य है कि दिव्यदृष्टि होने पर भी आप दिव्यदृष्टि के अन्तर्गत नहीं आते हैं। अब आगे के दो श्लोकों में अर्जुन भगवान की महत्ता और प्रभाव का वर्णन करके पुनः क्षमा करने के लिये प्रार्थना करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )