Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

35 – 46  भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना

 

 

Bhagvat Gita Chapter 11 अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।

तदेव मे दर्शय देवरुपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥11.45॥

 

अदृष्टपूर्वं -पहले कभी न देखा गया; हृर्षितः-अति प्रसन्न; अस्मि-मैं अति प्रसन्न हूँ; दृष्टा-देखकर; भयेन – भय से; च-भी; प्रव्यथितम्-कम्पन; मन:-मन; मे–मेरा; तत्-वह; एव–निश्चय ही; मे-मुझको; दर्शय-दिखलाइये; देव-परम प्रभु; रुपम्-रूप; प्रसीद-कृपया करुणा करके; देव-देवेश; जगन्निवास – हे ब्रह्माण्ड के आश्रय।

 

पहले कभी न देखे गए आपके विराट रूप का दर्शन कर के मैं अत्यधिक हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही साथ मेरा मन भय से कांप रहा है और अत्यंत व्याकुल हो रहा है। इसलिए कृपया मुझ पर दया करें और मुझे पुनः अपना आनन्दमयी देव स्वरूप (सौम्य चतुर्भुज विष्णुरूप को)  दिखाएँ। हे देवेश, हे जगन्नाथ! आप प्रसन्न होइये॥11.45॥

 

[ जैसे विराट रूप दिखाने के लिये मैंने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान ने मुझे विराट रूप दिखा दिया – ऐसे ही देवरूप दिखाने के लिये प्रार्थना करने पर भगवान देवरूप दिखायेंगे ही – ऐसी आशा होने से अर्जुन भगवान से देवरूप दिखाने के लिये प्रार्थना करते हैं।] ‘अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ‘ – आपका ऐसा अलौकिक आश्चर्यमय विशालरूप मैंने पहले कभी नहीं देखा। आपका ऐसा भी रूप है – ऐसी मेरे मन में सम्भावना भी नहीं थी। ऐसा रूप देखने की मेरे में कोई योग्यता भी नहीं थी। यह तो केवल आपने अपनी तरफ से ही कृपा करके दिखाया है। इससे मैं अपने आपको बड़ा सौभाग्यशाली मानकर हर्षित हो रहा हूँ । आपकी कृपा को देख कर गद्गद हो रहा हूँ परन्तु साथ ही साथ आपके स्वरूप की उग्रता को देखकर मेरा मन भय के कारण अत्यन्त व्यथित हो रहा है , व्याकुल हो रहा है , घबरा रहा है। ‘तदेव मे दर्शय देवरूपम् ‘ – ‘तत् ‘ (वह ) शब्द परोक्षवाची है । अतः ‘तदेव ‘ (तत् एव) कहने से ऐसा मालूम देता है कि अर्जुन ने देवरूप (विष्णुरूप) पहले कभी देखा है जो अभी सामने नहीं है। विश्वरूप देखने पर जहाँ अर्जुन की पहले दृष्टि पड़ी वहाँ उन्होंने कमलासन पर विराजमान ब्रह्माजी को देखा – ‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे ৷৷. ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम् ‘ (11। 15)। इससे सिद्ध होता है कि वह कमल जिसकी नाभि से निकला है उस शेषशायी चतुर्भुज विष्णुरूप को भी अर्जुन ने देखा है। फिर 17वें श्लोक में अर्जुन ने कहा है कि मैं आपको किरीट , गदा , चक्र (और च पद से शङ्ख और पद्म) धारण किये हुए देख रहा हूँ – ‘किरीटनं गदिनं चक्रिणं च ‘ – इन दोनों बातों से यही सिद्ध होता है कि अर्जुन ने विश्वरूप के अन्तर्गत भगवान के जिस विष्णुरूप को देखा था उसी के लिये अर्जुन यहाँ वही देवरूप मेरे को दिखाइये । ऐसा कह रहे हैं (टिप्पणी प0 606)। ‘देवरूपम् ‘ कहने का तात्पर्य है कि मैंने विराट रूप में आपके विष्णु रूप को भी देखा था पर अब आप मेरे को केवल विष्णुरूप ही दिखाइये। दूसरी बात 15वें श्लोक में भी अर्जुन ने भगवान के लिये ‘देव’ कहा है – ‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे ‘ और यहाँ भी देवरूप दिखाने के लिये कहते हैं । इसका तात्पर्य है कि विराट रूप भी नहीं और मनुष्य रूप भी नहीं केवल देवरूप दिखाइये। आगे के (46वें) श्लोक में भी ‘तेनैव’ पद से विराट रूप और मनुष्य रूप का निषेध करके भगवान से चतुर्भुज विष्णु रूप बन जाने के लिये प्रार्थना करते हैं। ‘प्रसीद देवेश जगन्निवास ‘ – यहाँ  ‘जगन्निवास ‘ सम्बोधन विश्वरूप का और ‘देवेश’ सम्बोधन चतुर्भुज रूप का संकेत कर रहा है। अर्जुन ये दो सम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि सम्पूर्ण संसार का निवास आप में है – ऐसा विश्वरूप तो मैंने देख लिया है और देख ही रहा हूँ। अब आप देवेश – देवताओं के मालिक विष्णुरूप से हो जाइये। विशेष बात – भगवान का विश्वरूप दिव्य है , अविनाशी है , अक्षय है। इस विश्वरूप में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं तथा उन ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मा , विष्णु और शिव भी अनन्त हैं। इस नित्य विश्वरूप से अनन्त विश्व (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हो-हो कर उसमें लीन होते रहते हैं पर यह विश्वरूप अव्यय होने से ज्यों का त्यों ही रहता है। यह विश्वरूप इतना दिव्य , अलौकिक है कि हजारों भौतिक सूर्यों का प्रकाश भी इसके प्रकाश का उपमेय नहीं हो सकता (11। 12)। इसलिये इस विश्वरूप को दिव्यचक्षु के बिना कोई भी देख नहीं सकता। ज्ञानचक्षु के द्वारा संसार के मूल में सत्तारूप में जो परमात्मतत्त्व है उसका बोध होता है और भावचक्षु से संसार भगवत्स्वरूप दिखता है पर इन दोनों ही चक्षुओं से विश्वरूप का दर्शन नहीं होता। चर्मचक्षु से न तो तत्त्व का बोध होता है , न संसार भगवत्स्वरूप दिखता है और न विश्वरूप का दर्शन ही होता है क्योंकि चर्मचक्षु प्रकृति का कार्य है। इसलिये चर्मचक्षु से प्रकृति के स्थूल कार्य को ही देखा जा सकता है। वास्तव में भगवान के द्विभुज , चतुर्भुज , सहस्रभुज आदि जितने भी रूप हैं वे सब के सब दिव्य और अव्यय हैं। इसी तरह भगवान के सगुण-निराकार , निर्गुण-निराकार , सगुण-साकार आदि जितने रूप हैं वे सब के सब भी दिव्य और अव्यय हैं। माधुर्यलीला में तो भगवान द्विभुज रूप ही रहते हैं परन्तु जहाँ अपना कुछ ऐश्वर्य दिखलाने की आवश्यकता होती है वहाँ भगवान पात्र , अधिकार , भाव आदि के भेद से अपना विराट रूप भी दिखा देते हैं। जैसे भगवान ने अर्जुन को मनुष्य रूप से प्रकट हुए अपने द्विभुज रूप – शरीर के किसी अंश में विराट रूप दिखाया है। भगवान में अनन्त असीम ऐश्वर्य , माधुर्य , सौन्दर्य , औदार्य आदि दिव्य गुण हैं। उन अनन्त दिव्य गुणों के सहित भगवान का विश्वरूप है। भगवान जिस किसी को ऐसा विश्वरूप दिखाते हैं उसे पहले दिव्यदृष्टि देते हैं। दिव्यदृष्टि देने पर भी वह जैसा पात्र होता है , जैसी योग्यता और रुचि वाला होता है उसी के अनुसार भगवान उसको अपने विश्वरूप के स्तरों का दर्शन कराते हैं। यहाँ 11वें अध्याय के 15वें से 30वें श्लोक तक भगवान विश्वरूप से अनेक स्तरों से प्रकट होते गये जिसमें पहले देवरूप की (11। 15 — 18) फिर उग्ररूप की (11। 19 — 22) और उसके बाद अति उग्र रूप की (11। 23 — 30) प्रधानता रही। अत्युग्ररूप को देखकर जब अर्जुन भयभीत हो गये तब भगवान ने अपने दिव्यातिदिव्य विश्वरूप के स्तरों को दिखाना बंद कर दिया अर्थात् अर्जुन के भयभीत होने के कारण भगवान ने अगले रूपों के दर्शन नहीं कराये। तात्पर्य है कि भगवान ने दिव्य विराट रूप के अनन्त स्तरों में से उतने ही स्तर अर्जुन को दिखाये जितने स्तरों को दिखाने की आवश्यकता थी और जितने स्तर देखनेकी अर्जुन में योग्यता थी – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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