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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
47 – 50 भगवान द्वारा अपने विश्वरूप के दर्शन की महिमा का कथन तथा चतुर्भुज और सौम्य रूप का दिखाया जाना
मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥11.49।।
मा- न हो; ते-तुम; व्यथा-भयभीत; मा- न हो; च-और; विमूढभावः-मोहित अवस्था; दृष्टा-देखकर; रुपम्-रूप को; घोरम्-भयानक; ईदृक्-इस प्रकार का; मम–मेरे; इदम्-इस; व्यपेत-भी:-भय से मुक्त; प्रीत-मनाः-प्रसन्न चित्त; पुनः-फिर; त्वम्-तुम; तत्-उस; एव-इस प्रकार; मे-मेरे; रूपम्-रूप को; इदम्-इस; प्रपश्य-देखो।
मेरे इस प्रकार के इस भयानक और विकराल रूप को देखकर तुझको व्याकुलता नहीं होनी चाहिए और मूढ़भाव भी नहीं होना चाहिए अर्थात मेरे इस भयानक रूप को देखकर तू न तो भयभीत हो और न ही मोहित। तू भयरहित और प्रसन्नचित्त होकर उसी मेरे शंख-चक्र-गदा-पद्मयुक्त इस चतुर्भुज पुरुषोत्तम रूप को फिर देख॥11.49॥
(‘मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ‘ – विकराल दाढ़ों के कारण भयभीत करने वाले मेरे मुखों में योद्धा लोग बड़ी तेजी से जा रहे हैं । उनमें से कई चूर्ण हुए सिरों सहित दाँतों के बीच में फँसे हुए दिख रहे हैं और मैं प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों द्वारा सम्पूर्ण लोगों का ग्रसन करते हुए उनको चारों ओर से चाट रहा हूँ – इस प्रकार के मेरे घोर रूप को देखकर तेरे को व्यथा नहीं होनी चाहिये बल्कि प्रसन्नता होनी चाहिये। तात्पर्य है कि पहले (11। 45 में) तू जो मेरी कृपा को देखकर हर्षित हुआ था तो मेरी कृपा की तरफ दृष्टि होने से तेरा हर्षित होना ठीक ही था पर यह व्यथित होना ठीक नहीं है। अर्जुन ने जो पहले कहा है – ‘प्रव्यथितास्तथाहम् ‘ (11। 23) और ‘प्रव्यथितान्तरात्मा ‘ (11। 24)। उसी के उत्तर में भगवान यहाँ कहते हैं – ‘मा ते व्यथा।’ मैं कृपा करके ही ऐसा रूप दिखा रहा हूँ। इसको देखकर तेरे को मोहित नहीं होना चाहिये – ‘मा च विमूढभावः।’ दूसरी बात – मैं तो प्रसन्न ही हूँ और अपनी प्रसन्नता से ही तेरे को यह रूप दिखा रहा हूँ परन्तु तू जो बार-बार यह कह रहा है कि प्रसन्न हो जाओ , प्रसन्न हो जाओ – यही तेरा विमूढ़भाव है। तू इसको छोड़ दे। तीसरी बात – पहले तूने कहा था कि मेरा मोह चला गया (11। 1) पर वास्तव में तेरा मोह अभी नहीं गया है। तेरे को इस मोह को छोड़ देना चाहिये और निर्भय तथा प्रसन्न मन वाला होकर मेरा वह देवरूप देखना चाहिये। तेरा और मेरा जो संवाद है – यह तो प्रसन्नता से , आनन्दरूप से , लीलारूप से होना चाहिये। इसमें भय और मोह बिलकुल नहीं होने चाहिये। मैं तेरे कहे अनुसार घोड़े हाँकता हूँ , बातें करता हूँ , विश्वरूप दिखाता हूँ आदि सब कुछ करने पर भी तूने मेरे में कोई विकृति देखी है क्या ? (टिप्पणी प0 611.1) मेरे में कुछ अन्तर आया है क्या ? ऐसे ही मेरे विश्वरूप को देखकर तेरे में भी कोई विकृति नहीं आनी चाहिये। हे अर्जुन ! तेरे को जो भय लग रहा है वह शरीर में अहंता-ममता (मैं-मेरापन) होने से ही लग रहा है अर्थात् अहंता-ममता वाली चीज (शरीर ) नष्ट न हो जाय? इसको लेकर तू भयभीत हो रहा है – यह तेरी मूर्खता है , अनजानपना है। इसको तू छोड़ दे। आज भी जिस किसी को , जहाँ कहीं , जिस किसी से भी भय होता है वह शरीर में अहंता-ममता होने से ही होता है। शरीर में अहंता-ममता होने से वह उत्पत्तिविनाशशील वस्तु (प्राणों ) को रखना चाहता है। यही मनुष्य की मूर्खता है और यही आसुरी सम्पत्ति का मूल है परन्तु जो भगवान की तरफ चलने वाले हैं उनका प्राणों में मोह नहीं रहता बल्कि उनका सर्वत्र भगवद्भाव रहता है और एकमात्र भगवान में प्रेम रहता है। इसलिये वे निर्भय हो जाते हैं। उनका भगवान की तरफ चलना दैवी सम्पत्ति का मूल है। नृसिंहभगवान के भयंकर रूप को देखकर देवता आदि सभी डर गये पर प्रह्लादजी नहीं डरे क्योंकि प्रह्लादजी की सर्वत्र भगवद्बुद्धि थी। इसलिये वे नृसिंहभगवान के पास जाकर उनके चरणों में गिर गये और भगवान ने उनको उठाकर गोद में ले लिया तथा उनको जीभ से चाटने लगे । ‘व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ‘ – अर्जुन ने 45वें श्लोक में कहा था – ‘भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ‘ अतः भगवान ने ‘भयेन ‘ के लिये कहा है – ‘व्यपेतभीः’ अर्थात् तू भयभीत हो जा और ‘प्रव्यथितं’ मनः के लिये कहा है – ‘प्रीतमनाः’ अर्थात् तू प्रसन्न मन वाला हो जा। भगवान ने विराट रूप में अर्जुन को जो चतुर्भुज रूप दिखाया था उसी के लिये भगवान पुनः पद देकर कह रहे हैं कि वही मेरा यह रूप तू फिर अच्छी तरह से देख ले। ‘तदेव ‘ कहने का तात्पर्य है कि तू देवरूप (विष्णुरूप) के साथ ब्रह्मा , शंकर आदि देवता और भयानक विश्वरूप नहीं देखना चाहता , केवल देवरूप ही देखना चाहता है । इसलिये वही रूप तू अच्छी तरह से देख ले। अर्जुन की प्रार्थना के अनुसार भगवान अभी जो रूप दिखाना चाहते हैं उसके लिये भगवान ने यहाँ ‘इदम्’ शब्द का प्रयोग किया है। सञ्जय और अर्जुन की दिव्यदृष्टि कब तक रही ? सञ्जय को वेदव्यासजी ने युद्ध के आरम्भ में दिव्यदृष्टि दी थी (टिप्पणी प0 611.2)? जिससे वे धृतराष्ट्र को युद्ध के समाचार सुनाते रहे परन्तु अन्त में जब दुर्योधन की मृत्यु पर सञ्जय शोक से व्याकुल हो गये तब सञ्जय की वह दिव्यदृष्टि चली गयी (टिप्पणी प0 611.3)। अर्जुन के द्वारा विश्वरूप दिखाने की प्रार्थना करने पर भगवान ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी – ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ‘ (11। 8) और अर्जुन विराट रूप , भगवान के देवरूप , उग्ररूप आदि रूपों के दर्शन करने लगे। जब अर्जुन के सामने अत्युग्र रूप आया तब वे डर गये और भगवान की स्तुति-प्रार्थना करते हुए कहने लगे कि मेरा मन भय से व्यथित हो रहा है , आप मेरे को वही चतुर्भुजरूप दिखाइये। तब भगवान ने अपना चतुर्भुज दिखाया और फिर द्विभुजरूप से हो गये। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ (49वें श्लोक) तक ही अर्जुन की दिव्यदृष्टि रही। 51वें श्लोक में स्वयं अर्जुन ने कहा है कि मैं आपके सौम्य मनुष्यरूप को देखकर सचेत हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ। यहाँ शङ्का होती है कि अर्जुन तो पहले भी व्यथित (व्याकुल) हुए थे – ‘दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ‘ (11। 23) ‘दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा’ (11। 24) अतः वहीं उनकी दिव्यदृष्टि चली जानी चाहिये थी। इसका समाधान यह है कि वहाँ अर्जुन इतने भयभीत नहीं हुए थे जितने यहाँ हुए हैं। यहाँ तो अर्जुन भयभीत होकर भगवान को बार-बार नमस्कार करते हैं और उनसे चतुर्भुज रूप दिखाने के लिये प्रार्थना भी करते हैं (11। 45)। इसलिये यहाँ अर्जुन की दिव्यदृष्टि चली जाती है। दूसरा कारण यह भी माना जा सकता है कि पहले अर्जुनकी विश्वरूप देखने की विशेष रुचि (इच्छा) थी – ‘द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम् ‘( 11। 3) इसलिये भगवान ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी परन्तु यहाँ अर्जुन की विश्वरूप देखने की रुचि नहीं रही और वे भयभीत होने के कारण चतुर्भुज रूप देखने की इच्छा करते हैं इसलिये ( दिव्यदृष्टि की आवश्यकता न रहने से ) उनकी दिव्यदृष्टि चली जाती है। अगर सञ्जय और अर्जुन शोक से , भय से व्यथित (व्याकुल ) न होते तो उनकी दिव्यदृष्टि बहुत समय तक रहती और वे बहुत कुछ देख लेते परन्तु शोक और भय से व्यथित होने के कारण उनकी दिव्यदृष्टि चली गयी। इसी तरह से जब मनुष्य मोह से संसार में आसक्त हो जाता है तब भगवान की दी हुई विवेकदृष्टि काम नहीं करती। जैसे मनुष्य का रुपयों में अधिक मोह होता है तो वह चोरी करने लग जाता है फिर और मोह बढ़ने पर डकैती करने लग जाता है तथा अत्यधिक मोह बढ़ जाने पर वह रुपयों के लिये दूसरे की हत्या तक कर देता है। इस प्रकार ज्यों-ज्यों मोह बढ़ता है त्यों ही त्यों उसका विवेक काम नहीं करता। अगर मनुष्य मोह में न फँसकर अपनी विवेकदृष्टि को महत्त्व देता तो वह अपना उद्धार करके संसारमात्र का उद्धार करने वाला बन जाता । पूर्वश्लोक में भगवान ने अर्जुन को जिस रूप को देखने के लिये आज्ञा दी उसी के अनुसार भगवान अपना विष्णुरूप दिखाते हैं – इसका वर्णन सञ्जय आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )