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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
51 – 55 बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का कथन
अर्जुन उवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः॥11.52।।
श्रीभगवान् उवाच-परम् प्रभु ने कहा; सुदुर्दर्शम्-देख पाना अति कठिन है; इदम्-इस; रुपम्-रूप को; दृष्टवानसि -जो तुमने देखा; यत्-जो; मम–मेरे; देवा:-स्वर्ग के देवता; अपि-भी; अस्य-इस; रुपस्य-रूप का; नित्यम्-शाश्वत; दर्शनकाङ्क्षिणः-दर्शन की अभिलाषा;
श्रीभगवान् बोले – मेरा यह जो चतुर्भज रूप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं अर्थात इस रूप के दर्शन कर पाना अति कठिन है । इस रूप को देखने के लिये देवता भी सदा लालायित और इच्छुक रहते हैं और मेरे इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं॥11.52॥
(‘सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ‘ – यहाँ ‘सुदुर्दर्शम्’ पद चतुर्भुज रूप के लिये ही आया है , विराट रूप या द्विभुज रूप के लिये नहीं। कारण कि विराट रूप की तो देवता भी कल्पना क्यों करने लगे और मनुष्य रूप जब मनुष्यों के लिये सुलभ था तब देवताओं के लिये वह दुर्लभ कैसे होता ? इसलिये ‘सुदुर्दर्शम्’ पद से भगवान विष्णु का चतुर्भुज रूप ही लेना चाहिये जिसके लिये ‘देवरूपम्’ (11। 45) और ‘स्वकं रूपम्’ (11। 50) पद आये हैं। ‘देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः’ – भगवान ने यहाँ कहा है कि मेरा यह जो चतुर्भुजरूप है इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। आगे 53वें , 54वें श्लोकों में कहा है कि इस चतुर्भुजरूप के दर्शन वेद , यज्ञ , तप , दान आदि साधनों से नहीं हो सकते बल्कि इसके दर्शन तो अनन्यभक्ति से ही हो सकते हैं। अब यहाँ एक शङ्का होती है कि देवता भी इस रूप के दर्शन की नित्य आकाङ्क्षा (लालसा) रखते हैं फिर उनको दर्शन क्यों नहीं होते ? जब कि भगवान के दर्शन की नित्य लालसा रहना अनन्यभक्ति ही है। इसका समाधान यह है कि वास्तव में देवताओं की नित्य लालसा अनन्यभक्ति नहीं है। नित्य लालसा रखने का तात्पर्य है कि नित्य-निरन्तर एक परमत्मा की ही लालसा लगी रहे और दूसरी कोई लालसा न रहे। ऐसी लालसा वाला , दुराचारी से दुराचारी मनुष्य भी भगवान का भक्त हो जाता है और उसे भगवत्प्राप्ति हो जाती है परन्तु ऐसी अनन्य लालसा देवताओं की नहीं होती क्योंकि वे प्रायः भोग भोगने के लिये ही देवता बने हैं और उनका प्रायः भोग भोगने का ही उद्देश्य होता है। तो फिर उनकी लालसा कैसी होती है? जैसी लालसा (इच्छा) प्रायः सभी आस्तिक मनुष्यों में रहती है कि हमें भगवान के दर्शन हो जाएं , हमारा कल्याण हो जाय। उनकी ऐसी इच्छा तो रहती है पर भोग और संग्रह की रुचि ज्यों की त्यों बनी रहती है। तात्पर्य है कि जैसे मार्ग में चलते हुए किसी को मणि मिल जाय – ऐसे ही (गौणता से) हमारी मुक्ति हो जाय तो अच्छी बात है (टिप्पणी प0 614) – इस प्रकार जैसे मनुष्यों में मुक्ति की इच्छा गौण होती है – ऐसे ही भगवान दर्शन दें तो हम भी दर्शन कर लें – इस प्रकार देवताओं में दर्शन की इच्छा गौण होती है। देवतालोग हम इतने ऊँचे पद पर हैं , हमारे लोक , शरीर और भोग दिव्य हैं , हम बड़े पुण्यशाली हैं । अतः हमें भगवान के दर्शन होने चाहिये – ऐसी कोरी इच्छा ही करते हैं । इसलिये उनको कभी दर्शन होंगे नहीं। कारण कि उनमें देवत्व पद आदि का अभिमान है। अभिमान से , पद आदि के बल से भगवान के दर्शन नहीं हो सकते। इसलिये अर्जुन ने 10वें अध्याय के 14वें श्लोक में कहा है कि हे भगवन् ! आपके प्रकट होने को देवता और दानव भी नहीं जानते। इस प्रकार अर्जुन ने भगवान को न जानने में देवताओं और दानवों को एक श्रेणी में लिया है। इसका तात्पर्य यही है कि जैसे देवताओं के पास वैभव है – ऐसे ही दानवों के पास विचित्र-विचित्र माया है , सिद्धियाँ हैं पर उनके बल पर वे भगवान को नहीं जान सकते। ऐसे ही देवता भगवान के दर्शन की लालसा भी रखें तो भी उनको देवत्व शक्ति से दर्शन नहीं हो सकते क्योंकि भगवान के दर्शन में देवत्व कारण नहीं है। तात्पर्य है कि भगवान को न तो देवत्वशक्तिसे देखा जा सकता है और न यज्ञ , तप , दान आदि शुभकर्मों से ही देखा जा सकता है (11। 53)। उनको तो अनन्यभक्ति से देवता और मनुष्य – दोनों ही भगवान को देख सकते हैं। ‘देवा अपि ‘ कहने का तात्पर्य है कि जिन पुण्यों के कारण देवताओं को ऊँचा पद मिला है , ऊँचे (दिव्य) भोग मिले हैं , उन पुण्यों के बल से , पद आदि के बल से वे भगवान के दर्शन नहीं कर सकते। तात्पर्य है कि पुण्यकर्म ऊँचे लोक , ऊँचे भोग तो दे सकते हैं पर भगवान के दर्शन कराने की उनमें सामर्थ्य नहीं है। भगवान के दर्शन में यह प्राकृत महत्त्व कुछ भी मूल्य नहीं रखता। पूर्वश्लोक में कही हुई बात को ही भगवान आगे के श्लोक में पुष्ट करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )