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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
05 – 08 भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥11.6।।
पश्य-देखो; आदित्यान्-अदिति के बारह पुत्रों को; बसून्–आठ वसुओं को; रुद्रान्–रुद्र के ग्यारह रूपों को; अश्विनौ-दो अश्विनी कुमारों को; मरुतः-उन्चास मरुतों को; तथा-भी; बहूनि – अनेक; अदृष्ट-न देखे हुए; पूर्वाणि-पहले; पश्य-देखो; आश्चर्याणि-आश्चर्यों को; भारत-भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्थात अर्जुन;
हे भरतवंशी अर्जुन! तू मुझमें आदित्यों को अर्थात अदिति के बारह पुत्रों को, आठ वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को, दो अश्विनीकुमारों को और उनचास मरुद्गणों को देख तथा और भी बहुत से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को तू देख॥11.6॥
(‘पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा’ – अदिति के पुत्र धाता , मित्र , अर्यमा , शुक्र , वरुण , अंश , भग , विवस्वान् , पूषा , सविता , त्वष्टा और विष्णु – ये बारह आदित्य हैं (महा0 आदि0 65। 15 16)। धर , ध्रुव , सोम , अहः , अनिल , अनल , प्रत्यूष और प्रभास – ये आठ वसु हैं (महा0 आदि0 66। 18)। हर , बहुरूप , त्रयम्बक , अपराजित , वृषाकपि , शम्भु , कपर्दी , रैवत , मृगव्याध , शर्व और कपाली – ये ग्यारह रुद्र हैं (हरिवंश0 1। 3। 51 52)। अश्विनीकुमार दो हैं। ये दोनों भाई देवताओं के वैद्य हैं। सत्त्वज्योति , आदित्य , सत्यज्योति , तिर्यग्ज्योति , सज्योति , ज्योतिष्मान् , हरित , ऋतजित् , सत्यजित् , सुषेण , सेनजित् , सत्यमित्र , अभिमित्र , हरिमित्र , कृत , सत्य , ध्रुव , धर्ता , विधर्ता , विधारय , ध्वान्त , धुनि , उग्र , भीम , अभियु , साक्षिप , ईदृक्, अन्यादृक् , यादृक् , प्रतिकृत् , ऋक् , समिति , संरम्भ , ईदृक्ष , पुरुष , अन्यादृक्ष , चेतस , समिता , समिदृक्ष , प्रतिदृक्ष , मरुति , सरत , देव , दिश , यजुः , अनुदृक् , साम , मानुष और विश् – ये उनचास मरुत हैं (वायुपुराण 67। 123 — 130) – इन सबको तू मेरे विराट रूप में देख। बारह आदित्य , आठ वसु , ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार – ये 33 कोटि ( 33 प्रकार के) देवता सम्पूर्ण देवताओं में मुख्य हैं। देवताओं में मरुद्गणों का नाम भी आता है पर वे 49 मरुद्गण इन 33 प्रकार के देवताओं से अलग माने जाते हैं क्योंकि वे सभी दैत्यों से देवता बने हैं। इसलिये भगवान ने भी तथा पद देकर मरुद्गणों को अलग बताया है। ‘बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ‘ – तुमने इन रूपों को पहले कभी आँखों से नहीं देखा है , कानों से नहीं सुना है , मन से चिन्तन नहीं किया है , बुद्धि से कल्पना नहीं की है। इन रूपों की तरफ तुम्हारी कभी वृत्ति ही नहीं गयी है। ऐसे बहुत से अदृष्टपूर्व रूपों को तू अब प्रत्यक्ष देख ले। इन रूपों के देखते ही आश्चर्य होता है कि अहो ! ऐसे भी भगवान के रूप हैं , ऐसे अद्भुत रूपों को तू देख। भगवान द्वारा विश्वरूप देखने की आज्ञा देने पर अर्जुन की यह जिज्ञासा हो सकती है कि मैं इस रूप को कहाँ देखूँ । अतः भगवान कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )