कर्मयोग ~ अध्याय तीन
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश
अर्जुन उवाच।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥3 .36॥
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; अथ–तव; केन-किस के द्वारा; प्रयुक्तः-प्रेरित; अयम्-कोई; पापम्-पाप; चरति-करता है। पुरुषः-व्यक्ति; अनिच्छन्–बिना इच्छा के; अपि -यद्यपि ; वार्ष्णेय-वृष्णि वंश से संबंध रखने वाले, श्रीकृष्ण; बलात्-बलपूर्वक; इव-मानो; नियोजितः-संलग्न होना।
अर्जुन ने कहा! हे वृष्णिवंशी श्रीकृष्ण! इच्छा न होते हुए भी मनुष्य पापजन्य कर्मों की ओर क्यों प्रवृत्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसे बलपूर्वक पाप कर्मों में लगाया जाता है अर्थात यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलपूर्वक लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥3 .36॥
( ‘अथ केन प्रयुक्तोऽयं ৷৷. बलादिव नियोजितः यदुकुलमेंवृष्णि ‘ नाम का एक वंश था। उसी वृष्णिवंश में अवतार लेने से भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम वार्ष्णेय है। पूर्वश्लोक में भगवान् ने स्वधर्मपालन की प्रशंसा की है। धर्म वर्ण और कुल का होता है अतः अर्जुन भी कुल (वंश) के नाम से भगवान् को सम्बोधित करके प्रश्न करते हैं। विचारवान् पुरुष पाप नहीं करना चाहता क्योंकि पापका परिणाम दुःख होता है और दुःख को कोई भी प्राणी नहीं चाहता। यहाँ ‘अनिच्छन्’ पद का तात्पर्य भोग और संग्रह की इच्छा का त्याग नहीं बल्कि पाप करने की इच्छा का त्याग है। कारण कि भोग और संग्रह की इच्छा ही समस्त पापों का मूल है जिसके न रहने पर पाप होते ही नहीं।विचारशील मनुष्य पाप करना तो नहीं चाहता पर भीतर सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा रहने से वह करने योग्य कर्तव्य कर्म नहीं कर पाता और न करने योग्य पापकर्म कर बैठता है। ‘अनिच्छन् ‘ पद की प्रबलता को बताने के लिये अर्जुन ‘बलादिव नियोजितः’ पदों को कहते हैं। तात्पर्य यह है कि पापवृत्ति के उत्पन्न होने पर विचारशील पुरुष उस पाप को जानता हुआ उससे सर्वथा दूर रहना चाहता है फिर भी वह उस पाप में ऐसे लग जाता है जैसे कोई उसको जबर्दस्ती पाप में लगा रहा हो। इससे ऐसा मालूम होता है कि पाप में लगाने वाला कोई बलवान् कारण है। पापों में प्रवृत्ति का मूल कारण है काम अर्थात् सांसारिक सुखभोग और संग्रह की कामना परन्तु इस कारण की ओर दृष्टि न रहने से मनुष्य को यह पता नहीं चलता कि पाप कराने वाला कौन है ? वह यह समझता है कि मैं तो पाप को जानता हुआ उससे निवृत्त होना चाहता हूँ पर मेरे को कोई बलपूर्वक पाप में प्रवृत्त करता है । जैसे दुर्योधन ने कहा है ‘जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि’।। (गर्गसंहिता अश्वमेध0 50। 36) मैं धर्म को जानता हूँ पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदय में स्थित कोई देव है जो मेरे से जैसा करवाता है वैसा ही मैं करता हूँ। दुर्योधन द्वारा कहा गया यह देव वस्तुतः काम (भोग और संग्रह की इच्छा) ही है जिससे मनुष्य विचारपूर्वक जानता हुआ भी धर्म का पालन और अधर्म का त्याग नहीं कर पाता। ‘केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति’ पदों से भी ‘अनिच्छन्’ पद की प्रबलता प्रतीत होती है। तात्पर्य यह है कि विचारवान् मनुष्य स्वयं पाप करना नहीं चाहता , कोई दूसरा ही उसे जबर्दस्ती पाप में प्रवृत्त करा देता है। वह दूसरा कौन है ? यह अर्जुन का प्रश्न है। भगवान ने अभी-अभी 34वें श्लोक में बताया है कि राग और द्वेष (जो काम और क्रोध के ही सूक्ष्म रूप हैं) साधक के महान शत्रु हैं अर्थात् ये दोनों पाप के कारण हैं परन्तु वह बात सामान्य रीति से कहने के कारण अर्जुन उसे पकड़ नहीं सके। अतः वे प्रश्न करते हैं कि मनुष्य विचारपूर्वक पाप करना न चाहता हुआ भी किसी से प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है । अर्जुन के प्रश्न का अभिप्राय यह है कि (31वें से लेकर 35वें श्लोक तक देखते हुए) अश्रद्धा , असूया , दुष्टचित्तता , मूढ़ता , प्रकृति (स्वभाव ) की परवशता , राग-द्वेष , स्वधर्म में अरुचि और परधर्म में रुचि इनमें से कौन सा कारण है जिससे मनुष्य विचारपूर्वक न चाहता हुआ भी पाप में प्रवृत्त होता है ।इसके अलावा ईश्वर , प्रारब्ध , युग , परिस्थिति , कर्म , कुसङ्ग , समाज , रीतिरिवाज , सरकारी कानून आदि में से भी किस कारण से मनुष्य पाप में प्रवृत्त होता है । अब भगवान् आगे के श्लोक में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )