Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता

 

 

Chapter 3 Bhagavad Gita Karma Yog

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।

 

न-नहीं; हि- निश्चित ही, निःसंदेह ; कश्चित्-कोई; क्षणम्-क्षण के लिए; अपि-भी; जातु-सदैव; तिष्ठति-रह सकता है; अकर्म-कृत बिना कर्म; कार्यते – कर्म करने के लिए; हि- निश्चय ही; अवशः बाध्य होकर; कर्म-कर्म; सर्वः-समस्त; प्रकृति-जैः-प्रकृति के गुणों से उत्पन्न; गुणैः-गुणों के द्वारा।

 

निश्चित ही कोई भी मनुष्य किसी भी काल में एक क्षण के लिए भी अकर्मा ( बिना कर्म किये ) नहीं रह सकता। वास्तव में सभी प्राणी प्रकृति द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के द्वारा पर-वश होकर कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं ॥3 .5॥

 

 (“न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्” कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग किसी भी मार्ग में साधक कर्म किये बिना नहीं रह सकता। यहाँ “कश्चित् क्षणम् और जातु ” ये तीनों विलक्षण पद हैं। इनमें “कश्चित् ” पद का प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रहता चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी। यद्यपि ज्ञानी का अपने कहलाने वाले शरीर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता तथापि उसके कहलाने वाले शरीर से भी हरदम क्रिया होती रहती है। “क्षणम् “पद का प्रयोग करके भगवान् यह कहते हैं कि यद्यपि मनुष्य मैं हर समय कर्म करता हूँ ऐसा नहीं मानता तथापि जब तक वह शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानता है तब तक वह एक क्षण के लिये भी कर्म किये बिना नहीं रहता। “जातु” पद का प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि जाग्रत् , स्वप्न् , सुषुप्ति , मूर्च्छा आदि किसी भी अवस्था में मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रह सकता। इसका कारण भगवान् इसी श्लोक के उत्तरार्ध में “अवशः” पद से बताते हैं कि प्रकृति के परवश होने के कारण उसे कर्म करने ही पड़ते हैं। प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है। साधक को अपने लिये कुछ नहीं करना है। जो विहित कर्म सामने आ जाय उसे केवल दूसरों के हित की दृष्टि से कर देना है। परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य होने से साधक निषिद्धकर्म तो कर ही नहीं सकता। बहुत से मनुष्य केवल स्थूलशरीर की क्रियाओं को कर्म मानते हैं पर गीता मन की क्रियाओं को भी कर्म मानती है। गीता ने शारीरिक , वाचिक और मानसिक रूप से की गयी मात्र क्रियाओं को कर्म माना है – “शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः” (गीता 18। 15)। जिस शारीरिक अथवा मानसिक क्रियाओं के साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है वे ही सब क्रियाएँ कर्म बनकर उसे बाँधनेवाली होती हैं अन्य क्रियाएँ नहीं। मनुष्यों की एक ऐसी धारणा बनी हुई है जिसके अनुसार वे बच्चों का पालन-पोषण तथा आजीविका , व्यापार ,नौकरी ,  अध्यापन आदिको ही कर्म मानते हैं और इनके अतिरिक्त खाना-पीना , सोना -बैठना , चिन्तन करना आदि को कर्म नहीं मानते। इसी कारण कई मनुष्य व्यापार आदि कर्मों को छोड़कर ऐसा मान लेते हैं कि मैं कर्म नहीं कर रहा हूँ परन्तु यह उनकी भारी भूल है। शरीरनिर्वाहसम्बन्धी स्थूल शरीर की क्रियाएँ , नींद , चिन्तन आदि सूक्ष्मशरीर की क्रियाएँ और समाधि आदि कारणशरीर की क्रियाएँ ये सब कर्म ही हैं। जब तक शरीर में अहंता-ममता है तब तक शरीर से होने वाली मात्र क्रियाएँ कर्म हैं। कारण कि शरीर प्रकृति का कार्य है और प्रकृति कभी अक्रिय नहीं होती। अतः शरीर में अहंता-ममता रहते हुए कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता चाहे वह अवस्था प्रवृत्ति की हो या निवृत्ति की। “कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः” प्रकृतिजन्य गुण (प्रकृति के) परवश हुए प्राणियों से कर्म कराते हैं। परवश होने पर प्रकृति के गुणों द्वारा कर्म कराये जाते हैं क्योंकि प्रकृति एवं उसके गुण निरन्तर क्रियाशील हैं ( गीता 3। 27 13। 29)। यद्यपि आत्मा स्वयं अक्रिय , असंग , अविनाशी , निर्विकार तथा निर्लिप्त है तथापि जब तक वह प्रकृति एवं उसके कार्य स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीर में किसी भी शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानकर उससे सुख चाहता है तब तक वह प्रकृति के परवश रहता है (गीता 14। 5)। इसी परवशता को यहाँ “अवशः “पद से कहा गया है। नवें अध्याय के आठवें श्लोक में और आठवें अध्याय के 19वें श्लोक में भी प्रकृति के साथ सम्बन्ध मानने से परवश हुए जीव के द्वारा कर्म करने की बात कही गयी है। स्वभाव बनता है वृत्तियों से , वृत्तियाँ बनती हैं गुणों से और गुण पैदा होते हैं प्रकृतिसे। अतः चाहे स्वभाव के परवश कहो चाहे गुणों के परवश कहो और चाहे प्रकृति के परवश कहो एक ही बात है। वास्तव में सब के मूल में प्रकृतिजन्य पदार्थों की परवशता ही है। इसी परवशता से सभी परवशताएँ पैदा होती हैं। अतः प्रकृतिजन्य पदार्थों की परवशता को ही कहीं काल की , कहीं स्वभाव की , कहीं कर्म की और कहीं गुणों की परवशता कह दिया है। तात्पर्य यह है कि यह जीव जब तक प्रकृति और उसके गुणों से अतीत या परे नहीं होता,  परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर लेता तब तक यह गुण ,काल , स्वभाव आदि के वश (परवश) ही रहता है अर्थात् यह जीव जब तक प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मानता है प्रकृति में स्थित रहता है । तब तक यह कभी गुणों के , कभी काल के , कभी भोगों के और कभी स्वभाव के परवश होता रहता है , कभी स्ववश (स्वतन्त्र) नहीं रहता। इनके सिवाय यह परिस्थिति व्यक्ति , स्त्री , पुत्र , धन , मकान आदि के भी परवश होता रहता है परन्तु जब यह गुणों से अतीत अपने स्वरूप का अथवा परमात्मतत्त्व का अनुभव कर लेता है तो फिर इसकी यह परवशता नहीं रहती और यह स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रता को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति की सक्रिय (स्थूल) और अक्रिय (सूक्ष्म) दो अवस्थाएँ होती हैं जैसे कार्य करना सक्रिय अवस्था है और कार्य न करना (निद्रा आदि) अक्रिय अवस्था। वास्तव में अक्रिय अवस्था में भी प्रकृति अक्रिय नहीं रहती बल्कि उसमें सूक्ष्म रूप से सक्रियता रहती है। जैसे किसी सोये हुए मनुष्य को जागने के समय से पूर्व ही जगा देने पर वह कहता है कि मुझे कच्ची नींद में जगा दिया। इससे यह सिद्ध हुआ कि नींद की अक्रिय अवस्था में भी नींद के पकने की क्रिया हो रही थी। जब पूरी नींद लेने के बाद मनुष्य जागता है तब उपर्युक्त बात नहीं कहता क्योंकि नींद का पकना पूर्ण हो गया। इसी प्रकार समाधि , प्रलय , महाप्रलय आदि की अवस्थाओं में भी सूक्ष्मरूप से क्रिया होती रहती है। वास्तव में देखा जाय तो प्रकृति की कभी अक्रिय अवस्था होती ही नहीं क्योंकि वह प्रतिक्षण बदलनेवाली है। स्वयं आत्मा में कर्तापन नहीं है परन्तु प्रकृति के कार्य शरीरादि के साथ अपना सम्बन्ध मानने से वह प्रकृति के परवश हो जाता है। इसी परवशता के कारण स्वयं अकर्ता होते हुए भी वह अपने को कर्ता मानता रहता है। वस्तुतः आत्मा में कोई भी परिवर्तन रूप क्रिया नहीं होती। जैसे प्रकृति द्वारा समस्त सृष्टि की क्रियाएँ स्वाभाविक रूपसे हो रही हैं ऐसे ही उसके द्वारा बालकपन , जवानी आदि अवस्थाएँ और भोजन का पाचन , श्वासों का आवागमन आदि क्रियाएँ एवं इसी प्रकार देखना, सुनना आदि क्रियाएँ भी स्वाभाविक रूप से हो रही हैं परन्तु जीवात्मा कुछ क्रियाओं में अपने को कर्ता मानकर बँध जाता है। प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है पर शुद्ध स्वरूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। वास्तव में प्राकृतिक पदार्थों की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। प्रतिक्षण बदलते हुए पुञ्ज का नाम ही पदार्थ है। पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध मानने से कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। अगर साधक ऐसा वास्तविक अनुभव कर ले कि सम्पूर्ण क्रियाएँ पदार्थों में ही हो रही हैं और पदार्थो के साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है तो वह परवशता से मुक्त हो सकता है। कर्मयोगी प्रतिक्षण परिवर्तनशील पदार्थों की कामना , ममता और आसक्ति का त्याग करके इस परवशता को मिटा देता है। भगवान ने इस श्लोक में जो बात कही है वही बात उन्होंने अठारहवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भी कही है कि प्रकृति से अपना सम्बन्ध मानते हुए कोई भी मनुष्य कर्मों का सम्पूर्णता से त्याग नहीं कर सकता “न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः”। पीछे के श्लोक में यह कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता। इस पर यह शंका हो सकती है कि मनुष्य इन्द्रियों की क्रियाओं को हठपूर्वक रोककर भी तो अपने को अक्रिय मान सकता है। इसका समाधान करनेके लिये आगे का श्लोक कहते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

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