कर्मयोग ~ अध्याय तीन
01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।
कर्म-इन्द्रियाणि – कर्मेन्द्रियों के घटक; संयम्य-नियंत्रित करके; यः-जो; आस्ते-रहता है; मनसा-मन में; स्मरन्–चिन्तन; इन्द्रिय-अर्थात-इन्द्रिय विषय; विमूढ आत्मा-भ्रमित जीव; मिथ्या आचार:-ढोंग; सः-वे; उच्यते-कहलाते हैं।
जो अपनी कर्मेन्द्रियों के बाह्य घटकों को तो नियंत्रित करते हैं लेकिन मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हैं, वे निःसन्देह स्वयं को धोखा देते हैं और पाखण्डी कहलाते हैं। अर्थात जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है।।3.6।।
( “कर्मेन्द्रियाणि संयम्य ৷৷ मिथ्याचारः स उच्यते ” यहाँ “कर्मेन्द्रियाणि ” पद का अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों ( वाक् , हस्त , पाद , उपस्थ और गुदा ) से ही नहीं है बल्कि इनके साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , रसना और घ्राण ) से भी है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों के बिना केवल कर्मेन्द्रियों से कर्म नहीं हो सकते। इसके सिवाय केवल हाथ , पैर आदि कर्मेन्द्रियों को रोकने से तथा आँख , कान आदि ज्ञानेन्द्रियों को न रोकने से पूरा मिथ्याचार भी सिद्ध नहीं होता। गीतामें कर्मेन्द्रियों के अन्तर्गत ही ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं। इसलिये गीता में कर्मेन्द्रिय शब्द तो आता है पर ज्ञानेन्द्रिय शब्द कहीं नहीं आता। पाँचवें अध्याय के 8वें और 9वें श्लोकों में देखना ,सुनना ,स्पर्श करना आदि ज्ञानेन्द्रियों की क्रियाओं को भी कर्मेन्द्रियों की क्रियाओं के साथ सम्मिलित किया गया है जिससे सिद्ध होता है कि गीता ज्ञानेन्द्रियों को भी कर्मेन्द्रियाँ ही मानती है। गीता मन की क्रियाओं को भी कर्म मानती है । “शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः” (18। 15)। तात्पर्य यह है कि मात्र प्रकृति क्रियाशील होने से प्रकृति का कार्यमात्र क्रियाशील है। यद्यपि “संयम्य ” पद का अर्थ होता है इन्द्रियों का अच्छी तरह से नियमन अर्थात् उन्हें वश में करना फिर भी यहाँ इस पद का अर्थ “इन्द्रियों को वश में करना” न होकर उन्हें “हठपूर्वक बाहर से रोकना” ही है। कारण कि इन्द्रियों के वश में होने पर उसे मिथ्याचार कहना नहीं बनता। मूढ़ बुद्धिवाला (सत्त और असत के विवेक से रहित ) मनुष्य बाहर से तो इन्द्रियों की क्रियाओं को हठपूर्वक रोक देता है पर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है और ऐसी स्थिति को क्रियारहित मान लेता है। इसलिये वह मिथ्याचारी अर्थात् मिथ्या आचरण करने वाला कहा जाता है। यद्यपि उसने इन्द्रियों के विषयों को बाहर से त्याग दिया है और ऐसा समझता है कि मैं कर्म नहीं करता हूँ तथापि ऐसी अवस्था में भी वह वस्तुतः कर्मरहित नहीं हुआ है। कारण कि बाहर से क्रियारहित दिखने पर भी अहंता , ममता और कामना के कारण रागपूर्वक विषय-चिन्तन के रूप में विषयभोगरूप कर्म तो हो ही रहा है। सांसारिक भोगों को बाहर से भी भोगा जा सकता है और मन से भी। बाहर से रागपूर्वक भोगों को भोगने से अन्तःकरण में भोगों के जैसे संस्कार पड़ते हैं वैसे ही संस्कार मन से भोगों को भोगने से अर्थात् रागपूर्वक भोगों का चिन्तन करने से भी पड़ते हैं। बाहर से भोगों का त्याग तो मनुष्य विचार से लोक-लिहाज से और व्यवहार में गड़बड़ी आने के भय से भी कर सकता है पर मन से भोग भोगने में बाहर से कोई बाधा नहीं आती। अतः वह मन से भोगों को भोगता रहता है और मिथ्या अभिमान करता है कि मैं भोगों का त्यागी हूँ। मन से भोग भोगने से विशेष हानि होती है क्योंकि इसके सेवन का विशेष अवसर मिलता है। अतः साधक को चाहिये कि जैसे वह बाहर के भोगों से अपने को बचाता है उनका त्याग करता है , ऐसे ही मन से भोगों के चिन्तन का भी विशेष सावधानी से त्याग करे। अर्जुन भी कर्मों का स्वरूप से त्याग करना चाहते हैं और भगवन से पूछते हैं कि आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं ? इसके उत्तर में यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य अहंता , ममता , आसक्ति , कामना आदि रखते हुए केवल बाहर से कर्मों का त्याग करके अपने को क्रियारहित मानता है , उसका आचरण मिथ्या है। तात्पर्य यह है कि साधक को कर्मों का स्वरूप से त्याग न करके उन्हें कामना , आसक्ति से रहित होकर तत्परतापूर्वक करते रहना चाहिये। चौथे श्लोक में भगवान ने कर्मयोग और सांख्ययोग दोनों की दृष्टि से कर्मों का त्याग अनावश्यक बताया। फिर पाँचवें श्लोक में कहा कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। छठे श्लोक में हठपूर्वक इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर अपने को क्रियारहित मान लेने वाले का आचरण मिथ्या बताया। इससे सिद्ध हुआ कि कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देने मात्र से उनका वास्तविक त्याग नहीं होता। अतः आगे के श्लोक में भगवान वास्तविक त्याग की पहचान बताते हैं- स्वामी रामसुखदासजी )