Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 15

 

 

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अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग

पुरुषोत्तमयोग-  पंद्रहवाँ अध्याय

 

( 01-06 )  संसार रूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय

 

 

SHrimad Bhagavad Geeta Chapter 15अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ৷৷15.2৷৷

 

 

अध:-नीचे की ओर; च-और; ऊर्ध्वम्-ऊपर की ओर; प्रसृताः-प्रसारित; तस्य-उसकी; शाखाः-शाखाएँ; गुण–प्राकृतिक गुणों द्वारा; प्रवद्धाः-पोषित; विषय-इन्द्रिय विषय; प्रवाला:-कोंपलें; अध:-नीचे की ओर; च -तथा; मूलानि-जड़ें; अनुसन्ततानि-बंधन; कर्म-कर्म; अनुबन्धीनि-बांधना; मनुष्यलोके-मानव समाज में।

 

 

 इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियों रूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों (सत्त्व, रज और तम) द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय रूपी कोंपलें है अर्थात पांच इन्द्रिय विषय इसके अंकुर या कोपलें हैं , इस वृक्ष की जड़ों का विस्तार नीचे की ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्म रूप से मनुष्यों के लिये फल रूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं या संसार में मानव जाति के कर्मों का कारण हैं अर्थात मनुष्यों के फल की इच्छा से किये गए सकाम कर्म ही उसे मनुष्य लोक में बार बार जन्म लेने पर बाध्य करते हैं ৷৷15.2৷৷

 

 तस्य शाखा गुणप्रवृद्धाः – संसारवृक्ष की मुख्य शाखा ब्रह्मा है। ब्रह्मा से सम्पूर्ण देव , मनुष्य? तिर्यक् आदि योनियों की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है। इसलिये ब्रह्मलोक से पाताल तक जितने भी लोक तथा उनमें रहने वाले देव , मनुष्य , कीट आदि प्राणी हैं वे सभी संसारवृक्ष की शाखाएँ हैं। जिस प्रकार जल सींचने से वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं उसी प्रकार गुणरूप जल के सङ्ग से इस संसारवृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं। इसीलिये भगवान ने जीवात्मा के ऊँच , मध्य और नीच योनियों में जन्म लेने का कारण गुणों का सङ्ग ही बताया है (गीता 13। 21 14। 18)। सम्पूर्ण सृष्टि में ऐसा कोई देश , वस्तु , व्यक्ति नहीं जो प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों से रहित हो (गीता 18। 40)। इसलिये गुणों के सम्बन्ध से ही संसार की स्थिति है। गुणों की अनुभूति गुणों से उत्पन्न वृत्तियों तथा पदार्थों के द्वारा होती है। अतः वृत्तियों तथा पदार्थों से माने हुए सम्बन्ध का त्याग कराने के लिये ही ‘गुणप्रवृद्धाः’ पद देकर भगवान ने यहाँ यह बताया है कि जब तक गुणों से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध है तब तक संसारवृक्ष की शाखाएँ बढ़ती ही रहेंगी। अतः संसारवृक्ष का छेदन करने के लिये गुणों का सङ्ग किञ्चिन्मात्र भी नहीं रखना चाहिये क्योंकि गुणों का सङ्ग रहते हुए संसार से सम्बन्धविच्छेद नहीं हो सकता। विषयप्रवालाः – जिस प्रकार शाखा से निकलने वाली नयी कोमल पत्ती के डंठल से लेकर पत्ती के अग्रभाग तक को प्रवाल (कोंपल) कहा जाता है उसी प्रकार गुणों की वृत्तियों से लेकर दृश्य पदार्थमात्र को यहाँ ‘विषयप्रवालाः’ कहा गया है। वृक्ष के मूल से तना (मुख्य शाखा) , तने से शाखाएँ और शाखाओं से कोंपलें फूटती हैं और कोंपलों से शाखाएँ आगे बढ़ती हैं। इस संसारवृक्ष में विषयचिन्तन ही कोंपलें हैं। विषयचिन्तन तीनों गुणों से होता है। जिस प्रकार गुणरूप जल से संसारवृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं उसी प्रकार गुणरूप जल से विषयरूप कोंपलें भी बढ़ती हैं। जैसे कोंपलें दिखती हैं उनमें व्याप्त जल नहीं दिखता। ऐसे ही शब्दादि विषय तो दिखते हैं पर उनमें गुण नहीं दिखते। अतः विषयों से ही गुण जाने जाते हैं। ‘विषयप्रवालाः’ पद का भाव यह प्रतीत होता है कि विषयचिन्तन करते हुए मनुष्य का संसार से सम्बन्धविच्छेद नहीं हो सकता (टिप्पणी प0 745.1) (गीता 2। 62 — 63)। अन्तकाल में मनुष्य जिस-जिस भाव का चिन्तन करते हुए शरीर का त्याग करता है उस-उस भाव को ही प्राप्त होता है (गीता 8। 6) यही विषयरूप कोंपलों का फूटना है। कोंपलों की तरह विषय भी देखने में बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं जिससे मनुष्य उनमें आकर्षित हो जाता है। साधक अपने विवेक से परिणाम पर विचार करते हुए इनको क्षणभङ्गुर , नाशवान और दुःखरूप जानकर इन विषयों का सुगमतापूर्वक त्याग कर सकता है (गीता 5। 22)। विषयों में सौन्दर्य और आकर्षण अपने राग के कारण ही दिखता है , वास्तव में वे सुन्दर और आकर्षक है नहीं। इसलिये विषयों में राग का त्याग ही वास्तविक त्याग है। जैसे कोमल कोंपलों को नष्ट करने में कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता । ऐसे ही इन विषयों के त्याग में भी साधक को कठिनता नहीं माननी चाहिये। मन से आदर देने पर ही ये विषयरूप कोंपलें सुन्दर और आकर्षक दिखती हैं वास्तव में तो ये विषयुक्त लड्डू के समान ही हैं (टिप्पणी प0 745.2)। इसलिये इस संसारवृक्ष का छेदन करने के लिये भोगबुद्धिपूर्वक विषयचिन्तन एवं विषयसेवन का सर्वथा त्याग करना आवश्यक है (टिप्पणी प0 745.3)। अधश्चोर्ध्वं प्रसृताः – यहाँ ‘च’ पद को मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोक (इसी श्लोक के मनुष्यलोके कर्मानुबन्धीनि पदों ) का वाचक समझना चाहिये। ‘ऊर्ध्वम्’ पद का तात्पर्य ब्रह्मलोक आदि से है जिसमें जाने के दो मार्ग हैं – देवयान और पितृयान (जिसका वर्णन आठवें अध्याय के 24वें-25वें श्लोकों में शुक्ल और कृष्णमार्ग के नाम से हुआ है)। ‘अधः’ पद का तात्पर्य नरकों से है। जिसके भी दो भेद हैं – योनिविशेष नरक और स्थानविशेष नरक। इन पदों से यह कहा गया है कि ऊर्ध्वमूल परमात्मा से नीचे संसारवृक्ष की शाखाएँ नीचे , मध्य और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं। इसमें मनुष्ययोनिरूप शाखा ही मूल शाखा है क्योंकि मनुष्ययोनि में नवीन कर्मों को करने का अधिकार है। अन्य शाखाएँ भोगयोनियाँ हैं जिनमें केवल पूर्वकृत कर्मों का फल भोगने का ही अधिकार है। इस मनुष्ययोनिरूप मूल शाखा से मनुष्य नीचे (अधोलोक) तथा ऊपर (ऊर्ध्वलोक) – दोनों ओर जा सकता है और संसारवृक्ष का छेदन करके सबसे ऊर्ध्व (परमात्मा) तक भी जा सकता है। मनुष्यशरीर में ऐसा विवेक है जिसको महत्त्व देकर जीव परमधाम तक पहुँच सकता है और अविवेकपूर्वक विषयों का सेवन करके नरकों में भी जा सकता है। इसीलिये गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है – नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।। (मानस 7। 121। 5)अ धश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके – मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी सब भोगयोनियाँ हैं। मनुष्ययोनि में किये हुए पाप-पुण्यों का फल भोगने के लिये ही मनुष्य को दूसरी योनियों में जाना पड़ता है। नये पाप-पुण्य करने का अथवा पाप-पुण्य से रहित होकर मुक्त होने का अधिकार और अवसर मनुष्यशरीर में ही है। यहाँ ‘मूलानि’ पद का तात्पर्य तादात्म्य , ममता और कामनारूप मूल से है , वास्तविक ऊर्ध्वमूल परमात्मा से नहीं। मैं शरीर हूँ – ऐसा मानना तादात्म्य है। शरीरादि पदार्थों को अपना मानना ममता है। पुत्रैषणा , वित्तैषणा और लोकैषणा – ये तीन प्रकार की मुख्य कामनाएँ हैं। पुत्र-परिवार की कामना ‘पुत्रैषणा’ और धन-सम्पत्ति की कामना ‘वित्तैषणा’ है। संसार में मेरा मान-आदर हो जाय , मैं बना रहूँ , शरीर निरोग रहे , मैं शास्त्रों का पण्डित बन जाऊँ आदि अनेक कामनाएँ ‘लोकैषणा’ के अन्तर्गत हैं। इतना ही नहीं कीर्ति की कामना मरने के बाद भी इस रूप में रहती है कि लोग मेरी प्रशंसा करते रहें , मेरा स्मारक बन जाय , मेरी स्मृति में पुस्तकें बन जायँ , लोग मुझे याद करें आदि। यद्यपि कामनाएँ प्रायः सभी योनियों में न्यूनाधिक रूप से रहती हैं तथापि वे मनुष्ययोनि में ही बाँधने वाली होती हैं (टिप्पणी प0 746)। जब कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है तब उन कर्मों के संस्कार उसके अन्तःकरण में संचित होकर भावी जन्म-मरण के कारण बन जाते हैं। मनुष्ययोनि में किये हुए कर्मों का फल इस जन्म में तथा मरने के बाद भी अवश्य भोगना पड़ता है (गीता 18। 12)। अतः तादात्म्य , ममता और कामना के रहते हुए कर्मों से सम्बन्ध नहीं छूट सकता। यह नियम है कि जहाँ से बन्धन होता है वहीं से छुटकारा होता है जैसे – रस्सी की गाँठ जहाँ लगी है वहीं से वह खुलती है। मनुष्ययोनि में ही जीव शुभाशुभ कर्मों से बँधता है । अतः मनुष्ययोनि में ही वह मुक्त हो सकता है। पहले श्लोक में आये ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पद का तात्पर्य है – परमात्मा जो संसार के रचयिता तथा उसके मूल आधार हैं और यहाँ ‘मूलानि’ पद का तात्पर्य है – तादात्म्य , ममता और कामनारूप मूल जो संसार में मनुष्य को बाँधते हैं। साधक को इन (तादात्म्य , ममता और कामनारूप) मूलों का तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्मा का आश्रय लेना है जिसका उल्लेख ‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये’ पद से इसी अध्याय के चौथे श्लोक में हुआ है। मनुष्यलोक में कर्मानुसार बाँधने वाले तादात्म्य , ममता और कामनारूप मूल नीचे और ऊपर सभी लोकों , योनियों में व्याप्त हो रहे हैं। पशु-पक्षियों का भी अपने शरीर से तादात्म्य रहता है , अपनी सन्तान में ममता होती है और भूख लगने पर खाने के लिये अच्छे पदार्थों की कामना होती है। ऐसे ही देवताओं में भी अपने दिव्य शरीर से तादात्म्य , प्राप्त पदार्थों में ममता और अप्राप्त भोगों की कामना रहती है। इस प्रकार तादात्म्य , ममता और कामनारूप दोष किसी न किसी रूप में ऊँच-नीच सभी योनियों में रहते हैं परन्तु मनुष्ययोनि के सिवाय दूसरी योनियों में ये बाँधने वाले नहीं होते। यद्यपि मनुष्ययोनि के सिवाय देवादि अन्य योनियों में भी विवेक रहता है पर भोगों की अधिकता होने तथा भोग भोगने के लिये ही उन योनियों में जाने के कारण उनमें विवेक का उपयोग नहीं हो पाता। इसलिये उन योनियों में उपर्युक्त दोषों से स्वयं को (विवेक के द्वारा) अलग देखना सम्भव नहीं है। मनुष्ययोनि ही ऐसी है जिसमें (विवेक के कारण) मनुष्य ऐसा अनुभव कर सकता है कि मैं (स्वरूप से) तादात्म्य , ममता और कामनारूप दोषों से सर्वथा रहित हूँ। भोगों के परिणाम पर दृष्टि रखने की योग्यता भी मनुष्यशरीर में ही है। परिणाम पर दृष्टि न रखकर भोग भोगने वाले मनुष्य को पशु कहना भी मानो पशुयोनि की निन्दा ही करना है क्योंकि पशु तो अपने कर्मफल भोगकर मनुष्ययोनि की तरफ आ रहा है पर यह मनुष्य तो निषिद्ध भोग भोगकर पशुयोनि की तरफ ही जा रहा है। पीछे के दो श्लोकों में संसारवृक्ष का जो वर्णन किया गया है उसका प्रयोजन क्या है ? इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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