Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय

 

 

Bhagavad Geeta chapter 13अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌ ।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥13.17

 

 

अविभक्तम्-अविभाजित; च यद्यपि; भूतेषु–सभी जीवों में ; विभक्तम्-विभक्त; इव-प्रत्यक्ष रूप से; च–फिर; स्थितम्-स्थित; भूतभर्तृ-सभी जीवों का पालक; च-भी; तत्-वह; ज्ञेयम्-जानने योग्य; ग्रसिष्णु-संहारक, प्रभविष्णु-सृष्टा; च-और।

 

 

वह परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी तथा आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है अर्थात यद्यपि भगवान सभी जीवों के बीच विभाजित प्रतीत होता है किन्तु वह अविभाजित है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है अर्थात वह जानने योग्य परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के जनक ( उनको उत्पन्न करने वाले )   पालनकर्ता ( उनका भरण-पोषण करने वाले ) और संहारक ( उनका संहार करने वाले ) हैं ॥13.17॥

 

 

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् – इस त्रिलोकी में देखने , सुनने और समझने में जितने भी स्थावरजङ्गम प्राणी आते हैं उन सबमें परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी विभक्त की तरह प्रतीत होते हैं। विभाग केवल प्रतीति है। जिस प्रकार आकाश , घट , मठ आदि की उपाधि से घटाकाश , मठाकाश आदि के रूपमें अलग-अलग दिखते हुए भी तत्त्व से एक ही है । उसी प्रकार परमात्मा भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीरों की उपाधि से अलग-अलग दिखते हुए भी तत्त्व से एक ही हैं। इसी अध्याय के 27वें श्लोक में ‘समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्’ पदों से परमात्मा को सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव से स्थित देखने के लिये कहा गया है। इसी तरह 18वें अध्याय के 20वें श्लोक में ‘अविभक्तंविभक्तेषु’ पदों से सात्त्विक ज्ञान का वर्णन करते हुए भी परमात्मा को अविभक्तरूप से देखने को ही सात्त्विक ज्ञान कहा गया है। ‘भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च’ – इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘विद्धि’ पद से जिस परमात्मा को जानने की बात कही गयी है और 12वें श्लोक में जिस ‘ज्ञेय’ तत्त्व का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की गयी है उसी का यहाँ ब्रह्मा , विष्णु और शिव के रूप से वर्णन हुआ है। वस्तुतः चेतन तत्त्व (परमात्मा) एक ही है। वे ही परमात्मा रजोगुण की प्रधानता स्वीकार करने से ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाले सत्त्वगुण की प्रधानता स्वीकार करने से विष्णुरूप से सबका भरण-पोषण करनेवाले और तमोगुण की प्रधानता स्वीकार करने से रुद्ररूप से सबका संहार करनेवाले हैं। तात्पर्य है कि एक ही परमात्मा सृष्टि पालन और संहार करने के कारण ब्रह्मा , विष्णु और शिव नाम धारण करते हैं (टिप्पणी प0 691)। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि परमात्मा सृष्टि-रचनादि कार्यों के लिये भिन्न-भिन्न गुणों को स्वीकार करने पर भी उन गुणों के वशीभीत नहीं होते। गुणों पर उनका पूर्ण आधिपत्य रहता है। पूर्वश्लोक में भगवान ने ज्ञेय तत्त्व का आधाररूप से वर्णन किया। अब आगे के श्लोक में उसका प्रकाशकरूप से वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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