Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय

 

 

Bhagavad Geeta chapter 13ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌ ॥ 13.18

 

 

ज्योतिषाम् – सभी प्रकाशित वस्तुओं में; अपि – भी; तत्-वह; ज्योतिः-प्रकाश का स्रोत; तमस:-अन्धकार; परम्-परे; उच्यते-कहलाता है; ज्ञानम्-ज्ञान; ज्ञेयम्-ज्ञान का विषय; ज्ञानगम्यम्-ज्ञान का लक्ष्य; हृदि – हृदय में; सर्वस्य–सब; विष्ठितम्-निवास।

 

 

वे समस्त प्रकाशमयी पदार्थों के प्रकाश स्रोत हैं, वे सभी प्रकार की अज्ञानता के अंधकार से परे हैं अर्थात वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया तथा अज्ञान से अत्यन्त परे कहा जाता है। वे ज्ञान हैं, वे ज्ञान का विषय हैं और ज्ञान का लक्ष्य हैं अर्थात वह परमात्मा ज्ञानस्वरूप ( चैतन्य स्वरूप या बोध स्वरूप ) , जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने या जानने योग्य ( ज्ञानगम्य ) है और वे सभी जीवों के हृदय में विशेष रूप से स्थित हैं ( विराजमान हैं या निवास करते हैं ) ॥13.18॥

 

 

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः — ज्योति नाम प्रकाश (ज्ञान) का है अर्थात् जिनसे प्रकाश मिलता है , ज्ञान होता है , वे सभी ज्योति हैं। भौतिक पदार्थ सूर्य , चन्द्र , नक्षत्र , तारा , अग्नि , विद्युत् आदि के प्रकाश में दिखते हैं । अतः भौतिक पदार्थों की ज्योति (प्रकाशक) सूर्य , चन्द्र आदि हैं। वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दों का ज्ञान कान से होता है । अतः शब्द की ज्योति (प्रकाशक) कान है। शीत-उष्ण , कोमल-कठोर आदि के स्पर्श का ज्ञान त्वचा से होता है । अतः स्पर्श की ज्योति (प्रकाशक) त्वचा है। श्वेत , नील , पीत आदि रूपों का ज्ञान नेत्र से होता है । अतः रूप की ज्योति (प्रकाशक) नेत्र है। खट्टा , मीठा , नमकीन आदि रसों का ज्ञान जिह्वा से होता है । अतः रस की ज्योति (प्रकाशक) जिह्वा है। सुगन्ध, दुर्गन्ध का ज्ञान नाक से होता है । अतः गन्ध की ज्योति (प्रकाशक) नाक है। इन पाँचों इन्द्रियों से शब्दादि पाँचों विषयों का ज्ञान तभी होता है जब उन इन्द्रियों के साथ मन रहता है। अगर उनके साथ मन न रहे तो किसी भी विषय का ज्ञान नहीं होता। अतः इन्द्रियों की ज्योति (प्रकाशक) मन है। मन से विषयों का ज्ञान होने पर भी जब तक बुद्धि उसमें नहीं लगती , बुद्धि मन के साथ नहीं रहती । तब तक उस विषय का स्पष्ट और स्थायी ज्ञान नहीं होता। बुद्धि के साथ रहने से ही उस विषय का स्पष्ट और स्थायी ज्ञान होता है। अतः मन की ज्योति (प्रकाशक) बुद्धि है। बुद्धि से कर्तव्य-अकर्तव्य , सत – असत , नित्य-अनित्य का ज्ञान होने पर भी अगर स्वयं (कर्ता) उसको धारण नहीं करता तो वह बौद्धिक ज्ञान ही रह जाता है । वह ज्ञान जीवन में , आचरण में नहीं आता। वह बात स्वयं में नहीं बैठती। जो बात स्वयं में बैठ जाती है वह फिर कभी नहीं जाती। अतः बुद्धि की ज्योति (प्रकाशक) स्वयं है। स्वयं भी परमात्मा का अंश है और परमात्मा अंशी है। स्वयं में ज्ञान , प्रकाश परमात्मासे ही आता है। अतः स्वयं की ज्योति (प्रकाशक) परमात्मा है। उस स्वयंप्रकाश परमात्मा को कोई भी प्रकाशित नहीं कर सकता। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा का प्रकाश (ज्ञान) स्वयं में आता है। स्वयं का प्रकाश बुद्धि में , बुद्धि का प्रकाश मन में , मन का प्रकाश इन्द्रियों में और इन्द्रियों का प्रकाश विषयों में आता है। मूल में इन सबमें प्रकाश परमात्मा से ही आता है। अतः इन सब ज्योतियों का ज्योति प्रकाशकों का प्रकाशक परमात्मा ही है (टिप्पणी प0 692)। जैसे एक-एक के पीछे बैठे हुए परीक्षार्थी अपने से आगे बैठे हुए को तो देख सकते हैं पर अपने से पीछे बैठे हुए को नहीं । ऐसे ही अहम् , बुद्धि , मन , इन्द्रियाँ आदि भी अपने से आगे वाले को तो देख (जान) सकते हैं पर अपने से पीछे वाले को नहीं। जैसे सबसे पीछे बैठा हुआ परीक्षार्थी अपने आगे बैठे हुए समस्त परीक्षार्थियों को देख सकता है? ऐसे ही परमप्रकाशक परमात्मा अहम् , बुद्धि , मन , इन्द्रियाँ आदि सबको देखता है , प्रकाशित करता है पर उसको कोई प्रकाशित नहीं कर सकता। वह परमात्मा सम्पूर्ण चर-अचर जगत का समानरूप से निरपेक्ष प्रकाशक है – ‘यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचम्’ (श्रीमद्भा0 10। 13। 55)। वहाँ प्रकाशक , प्रकाश और प्रकाश्य – यह त्रिपुटी नहीं है। ‘तमसः परमुच्यते’ – वह परमात्मा अज्ञान से अत्यन्त परे अर्थात् सर्वथा असम्बद्ध और निर्लिप्त है। इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि और अहम् – इनमें तो ज्ञान और अज्ञान दोनों आते-जाते हैं परन्तु जो सबका परम प्रकाशक है , उस परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नहीं , आ सकता ही नहीं और आना सम्भव ही नहीं। जैसे सूर्य में अँधेरा कभी आता ही नहीं । ऐसे ही उस परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नहीं। अतः उस परमात्मा को अज्ञान से अत्यन्त परे कहा गया है। ‘ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यम्’ – उस परमात्मा में कभी अज्ञान नहीं आता। वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है और उसी से सबको प्रकाश मिलता है। अतः उस परमात्मा को ज्ञान अर्थात् ज्ञानस्वरूप कहा गया है। इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि के द्वारा भी (जानने में आने वाले) विषयों का ज्ञान होता है पर वे अवश्य जानने योग्य नहीं हैं क्योंकि उनको जान लेने पर भी जानना बाकी रह जाता है , जानना पूरा नहीं होता। वास्तव में अवश्य जानने योग्य तो एक परमात्मा ही है – अवसि देखिअहिं देखन जोगू।। ( मानस 1। 229। 3)। उस परमात्मा को जान लेने के बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहता। 15वें अध्याय में भगवान ने अपने लिये कहा है कि सम्पूर्ण वेदों के द्वारा जानने योग्य मैं ही हूँ (15। 15) जो मुझे जान लेता है वह ‘सर्ववित्’ हो जाता है (15। 19)। अतः परमात्मा को ‘ज्ञेय’ कहा गया है। इसी अध्याय के 7वें से 11वें श्लोक तक जिन ‘अमानित्वम्’ आदि साधनों का ज्ञान के नाम से वर्णन किया गया है उस ज्ञान के द्वारा असत का त्याग होने पर परमात्मा को तत्त्वसे जाना जा सकता है। अतः उस परमात्मा को ज्ञानगम्य कहा गया है। हृदि सर्वस्य विष्ठितम् – वह परमात्मा सबके हृदय में नित्य-निरन्तर विराजमान है। तात्पर्य है कि यद्यपि वह परमात्मा सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , अवस्था आदि में परिपूर्णरूप से व्यापक है तथापि उसका प्राप्ति स्थान तो हृदय ही है। उस परमात्मा का अपने हृदय में अनुभव करने का उपाय है – (1) मनुष्य हरेक विषय को जानता है तो उस जानकारी में सत् और असत् – ये दोनों रहते हैं। इन दोनों का विभाग करने के लिये साधक यह अनुभव करे कि मेरी जो जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति और बालकपन , जवानी , बुढ़ापा आदि अवस्थाएँ तो भिन्न-भिन्न हुईं पर मैं एक रहा। सुखदायी-दुःखदायी , अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं और चली गयीं पर उनमें मैं एक ही रहा। देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि का संयोग-वियोग हुआ पर उनमें भी मैं एक ही रहा। तात्पर्य यह हुआ कि अवस्थाएँ , परिस्थितियाँ , संयोग-वियोग तो भिन्न-भिन्न (तरह-तरह के) हुए पर उन सबमें जो एक ही रहा है , भिन्न-भिन्न नहीं हुआ है उसका (उन सबसे अलग करके) अनुभव करे। ऐसा करने से जो सबके हृदय में विराजमान है , उसका अनुभव हो जायगा क्योंकि यह स्वयं परमात्मा से अभिन्न है। (2) जैसे अत्यन्त भूखा अन्न के बिना और अत्यन्त प्यासा जल के बिना रह नहीं सकता । ऐसे ही उस परमात्माके बिना रह नहीं सके , बेचैन हो जाय। उसके बिना न भूख लगे , न प्यास लगे और न नींद आये। उस परमात्मा के सिवाय और कहीं वृत्ति जाय ही नहीं। इस तरह परमात्मा को पाने के लिये व्याकुल हो जाय तो अपने हृदय में उस परमात्मा का अनुभव हो जायगा। इस प्रकार एक बार हृदय में परमात्मा का अनुभव हो जाने पर साधक को सब जगह परमात्मा ही हैं – ऐसा अनुभव हो जाता है। यही वास्तविक अनुभव है। पहले श्लोक से 17वें श्लोक तक क्षेत्र , ज्ञान और ज्ञेय का जो वर्णन हुआ है । अब आगे के श्लोक में फलसहित उसका उपसंहार करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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