Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय
श्रीभगवानुवाच
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।13.21।।
कार्य-परिणाम; कारण-कारण; कर्तृत्वे-सृष्टि के विषय में; हेतुः-माध्यम; प्रकृतिः-भौतिक शक्ति; उच्यते-कही जाती है; पुरूष:-जीवात्मा; सुख दुखानाम्-सुख तथा दुख का; भोक्तृत्वे-अनुभूति; हेतुः-उत्तरदायी; उच्यते-कहा जाता है।
कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध – इनका नाम ‘कार्य’ है) और कारण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा कर्ण , त्वचा, जिह्वा , नेत्र और घ्राण एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम ‘ कारण ‘ है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष या जीवात्मा सुख-दुःख के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है अर्थात सृष्टि के विषय में प्राकृत शक्ति ही कारण और परिणाम के लिए उत्तरदायी है और सुख-दुख की अनुभूति हेतु जीवात्मा को उत्तरदायी बताया जाता है।॥13.21॥
[इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने क्षेत्र के विषय में यच्च (जो है) , यादृक् च (जैसा है) , यद्विकारि (जिन विकारों वाला है) और ‘यतश्च यत्’ (जिससे जो उत्पन्न हुआ है) – ये चार बातें सुनने की आज्ञा दी थी। उनमें से यच्च का वर्णन पाँचवें श्लोक में और ‘यद्विकारि’ का वर्णन छठे श्लोक में कर दिया। ‘यादृक् च’ का वर्णन आगे इसी अध्याय के 26वें-27वें श्लोकों में करेंगे। अब ‘यतश्च यत्’ का वर्णन करते हुए प्रकृति से विकारों और गुणों को उत्पन्न हुआ बताते हैं। इसमें भी देखा जाय तो विकारों का वर्णन पहले छठे श्लोक में ‘इच्छा द्वेषः’ आदि पदों से किया जा चुका है। यहाँ गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं – यह बात नयी बतायी है। 12वें से 18वें श्लोक तक ज्ञेय तत्त्व (परमात्मा) का वर्णन है और यहाँ 19वें से 34वें श्लोक तक पुरुष (क्षेत्रज्ञ) का वर्णन है। वहाँ तो ज्ञेय तत्त्व के अन्तर्गत ही सब कुछ है और यहाँ पुरुष के अन्तर्गत सब कुछ है अर्थात् वहाँ ज्ञेय तत्त्व के अन्तर्गत पुरुष है और यहाँ पुरुष के अन्तर्गत ज्ञेय तत्त्व है। तात्पर्य यह है कि ज्ञेय तत्त्व (परमात्मा) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) – दोनों तत्त्व से दो नहीं हैं बल्कि एक ही हैं।] ‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि’ – यहाँ ‘प्रकृतिम्पद’ सम्पूर्ण क्षेत्र (जगत्)की कारणरूप मूल प्रकृति का वाचक है। सात प्रकृति-विकृति (पञ्चमहाभूत , अहंकार और महत्तत्त्व) तथा सोलह विकृति (दस इन्द्रियाँ , मन और पाँच विषय) – ये सभी प्रकृति के कार्य हैं और प्रकृति इन सबकी मूल कारण है। ‘पुरुषम् ‘ पद यहाँ क्षेत्रज्ञ का वाचक है? जिसको इसी अध्याय के पहले श्लोकमें क्षेत्रको जानने वाला कहा गया है। प्रकृति और पुरुष — दोनों को अनादि कहने का तात्पर्य है कि जैसे परमात्मा का अंश यह पुरुष (जीवात्मा) अनादि है? ऐसे ही यह प्रकृति भी अनादि है। इन दोनों के अनादिपने में फरक नहीं है किन्तु दोनों के स्वरूप में फरक है। जैसे – प्रकृति गुणों वाली है और पुरुष गुणों से सर्वथा रहित है प्रकृति में विकार होता है और पुरुष में विकार नहीं होता प्रकृति जगत की कारण बनती है और पुरुष किसी का भी कारण नहीं बनता प्रकृति में कार्य एवं कारणभाव है और पुरुष कार्य एवं कारणभाव से रहित है। ‘उभौ एव’ कहने का तात्पर्य है कि प्रकृति और पुरुष – दोनों अलग-अलग हैं। अतः जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं । ऐसे ही उन दोनों का यह भेद (विवेक) भी अनादि है। इसी अध्याय के पहले श्लोक में आये ‘इदं शरीरं क्षेत्रम्’ पदों से मनुष्यशरीर की तरफ ही दृष्टि जाती है अर्थात् व्यष्टि मनुष्यशरीर का ही बोध होता है और ‘क्षेत्रज्ञः’ पद से मनुष्यशरीर को जानने वाले व्यष्टि क्षेत्रज्ञ का ही बोध होता है। अतः प्रकृति और उसके कार्यमात्र का बोध कराने के लिये यहाँ ‘प्रकृतिम्’ पद का और मात्र क्षेत्रज्ञों का बोध कराने के लिये यहाँ ‘पुरुषम्’ पद का प्रयोग किया गया है। इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में क्षेत्रज्ञ की परमात्मा के साथ एकता जानने के लिये ‘विद्धि’ पद का प्रयोग किया था और यहाँ पुरुष की प्रकृति से भिन्नता जानने के लिये ‘विद्धि’ पद का प्रयोग किया गया है। तात्पर्य है कि मनुष्य स्वयं को और शरीर को एक समझता है इसलिये भगवान यहाँ ‘विद्धि’ पद से अर्जुन को यह आज्ञा देते हैं कि ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं – इस बात को तुम ठीक तरह से समझ लो। ‘विकारांश्च गुणंश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्’ – इच्छा , द्वेष , सुख , दुःख , संघात , चेतना और धृति – इन सात विकारों को तथा सत्त्व , रज और तम – इन तीन गुणों को प्रकृति से उत्पन्न हुए समझो। इसका तात्पर्य यह है कि पुरुष में विकार और गुण नहीं हैं। सातवें अध्याय में तो भगवान ने गुणों को अपने से उत्पन्न बताया है (7। 12) और यहाँ गुणों को प्रकृति से उत्पन्न बताते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ भक्ति का प्रकरण होने से भगवान ने गुणों को अपने से उत्पन्न बताया है और गुणमयी माया से तरने के लिये अपनी शरणागति बतायी है परन्तु यहाँ ज्ञान का प्रकरण होने से गुणों को प्रकृति से उत्पन्न बताया है। अतः साधक गुणों से अपना सम्बन्ध न मानकर ही गुणों से छूट सकता है। ‘कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते’ – आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी तथा शब्द , स्पर्श , रूप, रस और गन्ध – इन दस (महाभूतों और विषयों)का नाम कार्य है। श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , रसना , घ्राण , वाणी , हस्त , पाद , उपस्थ और गुदा तथा मन, बुद्धि और अहंकार – इन तेरह (बहिःकरण और अन्तःकरण )का नाम करण है। इन सबके द्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं उनको उत्पन्न करने में प्रकृति ही हेतु है।जो उत्पन्न होता है वह कार्य कहलाता है और जिसके द्वारा कार्य की सिद्धि होती है वह करण कहलाता है अर्थात् क्रिया करने के जितने औजार (साधन) हैं वे सब करण कहलाते हैं। करण तीन तरह के होते हैं – (1) कर्मेन्द्रियाँ (2) ज्ञानेन्द्रियाँ और (3) मन , बुद्धि एवं अहंकार। कर्मेन्द्रियाँ स्थूल हैं , ज्ञानेन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं और मन , बुद्धि एवं अहंकार अत्यन्त सूक्ष्म हैं। कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को बहिःकरण कहते हैं तथा मन , बुद्धि और अहंकार को अन्तःकरण कहते हैं। जिनसे क्रियाएँ होती है वे कर्मेन्द्रियाँ हैं और कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों पर जो शासन करते हैं वे मन , बुद्धि और अहंकार हैं। तात्पर्य है कि कर्मेन्द्रियों पर ज्ञानेन्द्रियों का शासन है , ज्ञानेन्द्रियों पर मन का शासन है , मन पर बुद्धि का शासन है और बुद्धि पर अहंकारका शासन है। मन , बुद्धि और अहंकार के बिना कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ काम नहीं करतीं। ज्ञानेन्द्रियों के साथ जब मन का सम्बन्ध हो जाता है तब विषयों का ज्ञान होता है। मन से जिन विषयों का ज्ञान होता है उन विषयों में से कौन सा विषय ग्राह्य है और कौन सा त्याज्य है ? कौन सा विषय ठीक है और कौन सा बेठीक है ? – इसका निर्णय बुद्धि करती है। बुद्धि के द्वारा निर्णीत विषयों पर अहंकार शासन करता है। अहंकार दो तरह का होता है — (1) अहंवृत्ति और (2) अहंकर्ता। अहंवृत्ति किसी के लिये कभी दोषी नहीं होती पर उस अहंवृत्ति के साथ जब स्वयं (पुरुष) अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है , तादात्म्य कर लेता है तब वह अहंकर्ता बन जाता है। तात्पर्य है कि अहंवृत्ति से मोहित होकर उसके परवश होकर स्वयं उस अहंवृत्ति से मोहित होकर , उसके परवश होकर स्वयं उस अहंवृत्ति में अपनी स्थिति मान लेता है तो वह कर्ता बन जाता है – ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता 3। 27)। प्रकृति का कार्य बुद्धि (महत्तत्त्व) है और बुद्धि का कार्य अहंवृत्ति (अहंकार) है। यह अहंवृत्ति है तो बुद्धि का कार्य पर इसके साथ तादात्म्य करके स्वयं बुद्धि का मालिक बन जाता है अर्थात् कर्ता और भोक्ता बन जाता है – ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता 13। 21) परन्तु जब तत्त्व का बोध हो जाता है तब स्वयं न कर्ता बनता है और न भोक्ता ही बनता है – ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ‘ (गीता 13। 31)। फिर कर्तृत्व-भोक्तृत्व रहित पुरुष के शरीर द्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं वे सब क्रियाएँ अहंवृत्ति से ही होती हैं। इसी अहंवृत्ति के द्वारा होने वाली क्रियाओं को गीता में कई तरह से बताया गया है जैसे – प्रकृति के द्वारा ही सब क्रियाएँ होती हैं। (13। 29) प्रकृति के गुणों द्वारा ही सब क्रियाएँ होती हैं (3। 27) गुण ही गुणों में बरत रहे हैं (3। 28) गुणों के सिवाय दूसरा कोई कर्ता नहीं है (14। 19) इन्द्रियाँ ही अपने-अपने विषयों में बरत रही हैं (5। 9) आदि। तात्पर्य है कि बहिःकरण और अन्तःकरण के द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं वे सब प्रकृति से ही होती हैं। ‘पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते’ – अनुकूल परिस्थिति के आने पर सुखी (राजी) होना – यह सबका भोग है और प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर दुःखी (नाराज) होना – यह दुःखका भोग है। यह सुख-दुःख का भोग पुरुष (चेतन)में ही होता है – प्रकृति (जड)में नहीं क्योकि जड प्रकृति में सुखी-दुःखी होने की सामर्थ्य नहीं है। अतः सुख-दुःख के भोक्तापन में पुरुष कारण कहा गया है। अगर पुरुष अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से मिलकर राजी-नाराज न हो तो वह सुख-दुःख का भोक्ता नहीं बन सकता। सातवें अध्याय के चौथे-पाँचवें श्लोकों में भगवान ने अपरा (जड) और परा (चेतन) नाम से अपनी दो प्रकृतियों का वर्णन किया है। ये दोनों प्रकृतियाँ भगवान के स्वभाव हैं इसलिये ये दोनों स्वतः ही भगवान की ओर जा रही हैं परन्तु परा प्रकृति (चेतन) जो परमात्मा का अंश है और जिसकी स्वाभाविक रुचि परमात्मा की ओर जाने की ही है तात्कालिक सुखभोग में आकर्षित होकर अपरा प्रकृति (जड) के साथ तादात्म्य कर लेता है। इतना ही नहीं , प्रकृति के साथ तादात्म्य करके वह प्रकृतिस्थ पुरुष के रूप में अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता का निर्माण कर लेता है (गीता 13। 21) जिसको ‘अहम्’ कहते हैं। इस अहम् में जड और चेतन दोनों हैं। सुख-दुःख रूप जो विकार होता है वह जड अंश में ही होता है पर जड से तादात्म्य होने के कारण उसका परिणाम ज्ञाता चेतन पर होता है अर्थात् जड के सम्बन्ध से सुख-दुःख रूप विकार को चेतन अपने में मान लेता है कि मैं सुखी हूँ , मैं दुःखी हूँ। जैसे – घाटा लगता है दुकान में पर दुकानदार कहता है कि मुझे घाटा लग गया। ज्वर शरीर में आता है पर मान लेता है कि मेरे में ज्वर आ गया। स्वयं में ज्वर नहीं आता (टिप्पणी प0 696) यदि आता तो कभी मिटता नहीं। सुख-दुःख का परिणाम चेतन पर होता है तभी वह सुख-दुःख से मुक्ति चाहता है। अगर वह सुखी-दुःखी न हो तो उसमें मुक्ति की इच्छा हो ही नहीं सकती। मुक्ति की इच्छा जड के सम्बन्ध से ही होती है क्योंकि जड को स्वीकार करने से ही बन्धन हुआ है। जो अपने को सुखी-दुःखी मानता है वही सुख-दुःख रूप विकार से अपनी मुक्ति चाहता है और उसी की मुक्ति होती है। तात्पर्य है कि तादात्म्य में मुक्ति (कल्याण) की इच्छा में चेतन की मुख्यता और भोगों की इच्छा में जड की मुख्यता होती है इसलिये अन्त में कल्याण का भागी चेतन ही होता है , जड नहीं।विकृतिमात्र जड में ही होती है , चेतन में नहीं। अतः वास्तव में सुखी-दुःखी होना चेतन का धर्म नहीं है बल्कि जड के सङ्ग से अपने को सुखी-दुःखी मानना ज्ञाता चेतन का स्वभाव है। तात्पर्य है कि चेतन सुखी-दुःखी होता नहीं बल्कि (सुखाकार-दुःखाकार वृत्ति से मिलकर) अपने को सुखी-दुःखी मान लेता है। चेतन में एक-दूसरे से विरुद्ध सुख-दुःख रूप दो भाव हो ही कैसे सकते हैं ? दो रूप परिवर्तनशील प्रकृति में ही हो सकते हैं। जो परिवर्तनशील नहीं है उसके दो रूप नहीं हो सकते। तात्पर्य यह है कि सब विकार परिवर्तनशील में ही हो सकते हैं। चेतन स्वयं ज्यों का त्यों रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृति के संग से उसके विकारों को अपने में आरोपित करता रहता है। यह सबका अनुभव भी है कि हम सुख में दूसरे तथा दुःख में दूसरे नहीं हो जाते। सुख और दुःख दोनों अलग-अलग हैं पर हम एक ही रहते हैं इसीलिये कभी सुखी होते हैं और कभी दुःखी होते हैं। पूर्वश्लोक में भगवान ने पुरुष को सुख-दुःख के भोगने में कारण बताया। इस पर प्रश्न होता है कि कौन सा पुरुष सुख-दुःख का भोक्ता बनता है ? इसका उत्तर अब भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी