Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।।13.26।।
अन्ये – अन्य; तु–लेकिन; एवम्-इस प्रकार; अजानन्तः-आध्यात्मिक ज्ञान से अनभिज्ञ; श्रुत्वा-सुनकर; अन्येभ्यः-अन्यों से; उपासते- आराधना करना प्रारम्भ कर देते हैं; ते–वे; अपि-भी; च-तथा; अतितरन्ति-पार कर जाते हैं; एव-निश्चय ही; मृत्युम्-मृत्युः श्रुतिपरायणाः-संतो के उपदेश सुनकर।
अन्य लोग जो आध्यात्मिक मार्ग से अनभिज्ञ होते हैं या (ध्यानयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, आदि साधनों को नहीं जानते ) , लेकिन वे अन्य संत पुरुषों या जीवन्मुक्त महापुरुषों ( तत्व को जानने वाले संतों ) से श्रवण कर भगवान की आराधना करने लगते हैं। इस प्रकार वे भी निःसंदेह जन्म और मृत्यु के सागर को पार कर लेते हैं या इस भाव सागर से तर जाते हैं ॥13.26॥
अन्ये त्वेवमजानन्तः ৷৷. मृत्युं श्रुतिपरायणाः – कई ऐसे तत्त्वप्राप्ति की उत्कण्ठा वाले मनुष्य हैं जो ध्यानयोग , सांख्ययोग , कर्मयोग , हठयोग , लययोग आदि साधनों को समझते ही नहीं । अतः वे साधन उनके अनुष्ठान में भी नहीं आते। ऐसे मनुष्य केवल तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों की आज्ञा का पालन करके मृत्यु को तर जाते हैं अर्थात् तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। जैसे धनी आदमी की आज्ञा का पालन करने से धन मिलता है । ऐसे ही तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों की आज्ञा का पालन करने से तत्त्वज्ञान मिलता है। हाँ , इसमें इतना फरक है कि धनी जब देता है तब धन मिलता है परन्तु सन्त-महापुरुषों की आज्ञा का पालन करने से उनके मन के , संकेत के , आज्ञा के अनुसार तत्परतापूर्वक चलने से मनुष्य स्वतः उस परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है जो कि सबको सदा से ही स्वतः स्वाभाविक प्राप्त है। कारण कि धन तो धनी के अधीन होता है पर परमात्मतत्त्व किसी के अधीन नहीं है। शरीर के साथ सम्बन्ध रखने से ही मृत्यु होती है। जो मनुष्य महापुरुषों की आज्ञा के परायण हो जाते हैं उनका शरीर से माना हुआ सम्बन्ध छूट जाता है। अतः वे मृत्यु को तर जाते हैं अर्थात् वे पहले शरीर की मृत्यु से अपनी मृत्यु मानते थे उस मान्यता से रहित हो जाते हैं। ऐसे श्रुतिपरायण साधकों की तीन श्रेणियाँ होती हैं – 1 – यदि साधक में सांसारिक सुखभोग की इच्छा नहीं है , केवल तत्त्वप्राप्ति की ही उत्कट अभिलाषा है और वह जिनकी आज्ञा का पालन करता है वे अनुभवी महापुरुष हैं तो साधक को शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। 2 – यदि साधक में सुखभोग की इच्छा शेष है तो केवल महापुरुष की आज्ञा का पालन करने से ही उसकी उस इच्छा का नाश हो जायगा और उसको परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी। 3 – साधक जिनकी आज्ञा का पालन करता है वे अनुभवी महापुरुष नहीं हैं पर साधक में किञ्चिन्मात्र भी सांसारिक इच्छा नहीं है और उसका उद्देश्य केवल परमात्मा की प्राप्ति करना है तो उसको भगवत्कृपा से परमात्मप्राप्ति हो जायगी क्योंकि भगवान तो उसको जानते ही हैं। अगर किसी कारणवश साधक की संत-महापुरुष के प्रति अश्रद्धा , दोषदृष्टि हो जाय तो उनमें साधक को अवगुण ही अवगुण दिखेंगे , गुण दिखेंगे ही नहीं। इसका कारण यह है कि महापुरुष गुण-अवगुणों से ऊँचे उठे (गुणातीत) होते हैं । अतः उनमें अश्रद्धा होने पर अपना ही भाव अपने को दिखता है। मनुष्य जिस भाव से देखता है उसी भाव से उसका सम्बन्ध हो जाता है। अवगुण देखने से उसका सम्बन्ध अवगुणों से हो जाता है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह तत्त्वज्ञ महापुरुष की क्रियाओं पर उनके आचरणों पर ध्यान न देकर उनके पास तटस्थ होकर रहे। संत-महापुरुष से ज्यादा लाभ वही ले सकता है जो उनसे किसी प्रकार के सांसारिक व्यवहार का सम्बन्ध न रखकर केवल पारमार्थिक (साधन का ) सम्बन्ध रखता है। दूसरी बात – साधक इस बात की सावधानी रखे कि उसके द्वारा उन महापुरुष की कहीं भी निन्दा न हो। यदि वह उनकी निन्दा करेगा तो उसकी कहीं भी उन्नति नहीं होगी। पूर्वश्लोक में कहा गया कि श्रुतिपरायण साधक भी मृत्यु को तर जाते हैं तो अब प्रश्न होता है कि मृत्यु के होने में क्या कारण है ? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी