Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।13.27।।
यावत्-जो भी; सञ्जायते-प्रकट होता है; किञ्चित्-कुछ भी; सत्त्वम्-अस्तित्त्व; स्थावर-अचर; जङ्गमम्-चर; क्षेत्र-कर्मक्षेत्र; क्षेत्रज्ञ- शरीर को जानने वाले का; संयोगत्-संयोग से; तत्-तुम; विद्धि-जानो; भरतऋषभ-भरतवंशियों में श्रेष्ठ।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! जो भी स्थावर और जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं अर्थात जो भी चर और अचर का अस्तित्व तुम्हें दिखाई दे रहा है, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए जानो ॥13.27॥
यावत्संजायते ৷৷. क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् – स्थिर रहने वाले वृक्ष , लता , दूब , गुल्म , त्वक्सार , बेंत , बाँस , पहाड़ आदि जितने भी स्थावर प्राणी हैं और चलने-फिरने वाले मनुष्य, देवता , पशु , पक्षी , कीट , पतंग , मछली , कछुआ आदि जितने भी जङ्गम (थलचर , जलचर , नभचर) प्राणी हैं वे सब के सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही पैदा होते हैं। उत्पत्तिविनाशशील पदार्थ क्षेत्र हैं और जो इस क्षेत्र को जानने वाला , उत्पत्तिविनाशरहित एवं सदा एकरस रहने वाला है वह क्षेत्रज्ञ है। उस क्षेत्रज्ञ (प्रकृतिस्थ पुरुष)का जो शरीर के साथ मैं-मेरेपन का सम्बन्ध मानना है – यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संयोग है। इस माने हुए संयोग के कारण ही इस जीव को स्थावर-जङ्गम योनियों में जन्म लेना पड़ता है। इसी क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोगको पहले 21वें श्लोक में ‘गुणसङ्गः’ पद से कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि निरन्तर परिवर्तनशील प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीरादि के साथ तादात्म्य कर लेने से स्वयं जीवात्मा भी अपने को जन्मने-मरने वाला मान लेता है। [स्थावरजङ्गम प्राणियों के पैदा होने की बात तो यहाँ ‘संजायते’ पद से कह दी और उनके मरने की बात आगे के श्लोक में ‘विनश्यत्सु’ पद से कहेंगे।] तद्विद्धि भरतर्षभ – यह क्षेत्रज्ञ क्षेत्र के साथ अपना सम्बन्ध मानता है इसी से इसका जन्म होता है परन्तु जब यह शरीर के साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता तब इसका जन्म नहीं होता – इस बात को तुम ठीक समझ लो। पूर्वश्लोक में भगवान ने बताया कि क्षेत्र (शरीर) के साथ सम्बन्ध रखने से उसकी तरफ दृष्टि रखने से यह पुरुष जन्म-मरण में जाता है तो अब प्रश्न होता है कि इस जन्म-मरण के चक्कर से छूटने के लिये उसको क्या करना चाहिये ? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी